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2.4k
⌀ |
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tiraa-lab-dekh-haivaan-yaad-aave-wali-mohammad-wali-ghazals
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तिरा लब देख हैवाँ याद आवे
तिरा मुख देख कनआँ याद आवे
तिरे दो नैन जब देखूँ नज़र भर
मुझे तब नर्गिसिस्ताँ याद आवे
तिरी ज़ुल्फ़ाँ की तूलानी कूँ देखे
मुझे लैल-ए-ज़मिस्ताँ याद आवे
तिरे ख़त का ज़मुर्रद-रंग देखे
बहार-ए-सुंबुलिस्ताँ याद आवे
तिरे मुख के चमन के देखने सूँ
मुझे फ़िरदौस-ए-रिज़वाँ याद आवे
तिरी ज़ुल्फ़ाँ में यू मुख जो कि देखे
उसे शम-ए-शबिस्ताँ याद आवे
जो कुइ देखे मिरी अँखियाँ को रोते
उसे अब्र-ए-बहाराँ याद आवे
जो मेरे हाल की गर्दिश कूँ देखे
उसे गिर्दाब-ए-गर्दां याद आवे
'वली' मेरा जुनूँ जो कुइ कि देखे
उसे कोह ओ बयाबाँ याद आवे
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hue-hain-raam-piitam-ke-nayan-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals
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हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता
मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का
लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता
गिरेबाँ सब्र का मत चाक कर ऐ ख़ातिर-ए-मिस्कीं
सुनेगा बात वो शीरीं-बचन आहिस्ता-आहिस्ता
गुल ओ बुलबुल का गुलशन में ख़लल होवे तो बरजा है
चमन में जब चले वो गुल-बदन आहिस्ता-आहिस्ता
'वली' सीने में मेरे पंजा-ए-इश्क़-ए-सितमगर ने
किया है चाक दिल का पैरहन आहिस्ता-आहिस्ता
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dil-huaa-hai-miraa-kharaab-e-sukhan-wali-mohammad-wali-ghazals
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दिल हुआ है मिरा ख़राब-ए-सुख़न
देख कर हुस्न-ए-बे-हिजाब-ए-सुख़न
बज़्म-ए-मा'नी में सरख़ुशी है उसे
जिस कूँ है नश्शा-ए-शराब-ए-सुख़न
राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
ता-क़यामत खुला है बाब-ए-सुख़न
जल्वा-पैरा हो शाहिद-ए-मा'नी
जब ज़बाँ सूँ उठे नक़ाब-ए-सुख़न
गौहर उस की नज़र में जा न करे
जिन ने देखा है आब-ओ-ताब-ए-सुख़न
हर्जा़-गोयाँ की बात क्यूँकि सुने
जो सुना नग़्मा-ए-रबाब-ए-सुख़न
है तिरी बात ऐ नज़ाकत-ए-फ़हम
लौह-ए-दीबाचा-ए-किताब-ए-सुख़न
है सुख़न जग मनीं अदीम-उल-मिसाल
जुज़ सुख़न नीं दुजा जवाब-ए-सुख़न
ऐ 'वली' दर्द-ए-सर कभू न रहे
जब मिले सन्दल-ओ-गुलाब-ए-सुख़न
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kiyaa-mujh-ishq-ne-zaalim-kuun-aab-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals
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किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ
कि गर्मी दफ़ा करता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
अजब कुछ लुत्फ़ रखता है शब-ए-ख़ल्वत में गुल-रू सूँ
ख़िताब आहिस्ता आहिस्ता जवाब आहिस्ता आहिस्ता
मिरे दिल कूँ किया बे-ख़ुद तिरी अँखियाँ ने आख़िर कूँ
कि ज्यूँ बेहोश करती है शराब आहिस्ता आहिस्ता
हुआ तुझ इश्क़ सूँ ऐ आतिशीं-रू दिल मिरा पानी
कि ज्यूँ गलता है आतिश सूँ गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
अदा ओ नाज़ सूँ आता है वो रौशन-जबीं घर सूँ
कि ज्यूँ मशरिक़ सूँ निकले आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
'वली' मुझ दिल में आता है ख़याल-ए-यार-ए-बे-परवा
कि ज्यूँ अँखियाँ मनीं आता है ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता
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sharaab-e-shauq-sen-sarshaar-hain-ham-wali-mohammad-wali-ghazals
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शराब-ए-शौक़ सें सरशार हैं हम
कभू बे-ख़ुद कभू हुशियार हैं हम
दो-रंगी सूँ तिरी ऐ सर्व-ए-रा'ना
कभू राज़ी कभू बेज़ार हैं हम
तिरे तस्ख़ीर करने में सिरीजन
कभी नादाँ कभी अय्यार हैं हम
सनम तेरे नयन की आरज़ू में
कभू सालिम कभी बीमार हैं हम
'वली' वस्ल-ओ-जुदाई सूँ सजन की
कभू सहरा कभू गुलज़ार हैं हम
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vo-naazniin-adaa-men-ejaaz-hai-saraapaa-wali-mohammad-wali-ghazals
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वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा
ख़ूबी में गुल-रुख़ाँ सूँ मुम्ताज़ है सरापा
ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर कर
आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा
जग के अदा-शनासाँ है जिन की फ़िक्र आली
तुझ क़द कूँ देख बोले यू नाज़ है सरापा
क्यूँ हो सकें जगत के दिलबर तिरे बराबर
तू हुस्न हौर अदा में एजाज़ है सरापा
गाहे ऐ ईसवी-दम यक बात लुत्फ़ सूँ कर
जाँ-बख़्श मुझ को तेरा आवाज़ है सरापा
मुझ पर 'वली' हमेशा दिलदार मेहरबाँ है
हर-चंद हस्ब-ए-ज़ाहिर तन्नाज़ है सरापा
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haadson-kii-zad-pe-hain-to-muskuraanaa-chhod-den-waseem-barelvi-ghazals
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हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें
तुम ने मेरे घर न आने की क़सम खाई तो है
आँसुओं से भी कहो आँखों में आना छोड़ दें
प्यार के दुश्मन कभी तो प्यार से कह के तो देख
एक तेरा दर ही क्या हम तो ज़माना छोड़ दें
घोंसले वीरान हैं अब वो परिंदे ही कहाँ
इक बसेरे के लिए जो आब-ओ-दाना छोड़ दें
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duaa-karo-ki-koii-pyaas-nazr-e-jaam-na-ho-waseem-barelvi-ghazals
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दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो
वो ज़िंदगी ही नहीं है जो ना-तमाम न हो
जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है सदियों से
कहीं हयात उसी फ़ासले का नाम न हो
कोई चराग़ न आँसू न आरज़ू-ए-सहर
ख़ुदा करे कि किसी घर में ऐसी शाम न हो
अजीब शर्त लगाई है एहतियातों ने
कि तेरा ज़िक्र करूँ और तेरा नाम न हो
सबा-मिज़ाज की तेज़ी भी एक ने'मत है
अगर चराग़ बुझाना ही एक काम न हो
'वसीम' कितनी ही सुब्हें लहू लहू गुज़रीं
इक ऐसी सुब्ह भी आए कि जिस की शाम न हो
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mujhe-to-qatra-hii-honaa-bahut-sataataa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है
इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है
वो इस तरह भी मिरी अहमियत घटाता है
कि मुझ से मिलने में शर्तें बहुत लगाता है
बिछड़ते वक़्त किसी आँख में जो आता है
तमाम उम्र वो आँसू बहुत रुलाता है
कहाँ पहुँच गई दुनिया उसे पता ही नहीं
जो अब भी माज़ी के क़िस्से सुनाए जाता है
उठाए जाएँ जहाँ हाथ ऐसे जलसे में
वही बुरा जो कोई मसअला उठाता है
न कोई ओहदा न डिग्री न नाम की तख़्ती
मैं रह रहा हूँ यहाँ मेरा घर बताता है
समझ रहा हो कहीं ख़ुद को मेरी कमज़ोरी
तो उस से कह दो मुझे भूलना भी आता है
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mere-gam-ko-jo-apnaa-bataate-rahe-waseem-barelvi-ghazals
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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे
बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छतें आज़माते रहे
आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए
घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे
शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र
आँसुओं से इन आँखों में आते रहे
नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे
शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ 'वसीम'
लोग पीते रहे हम पिलाते रहे
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shaam-tak-subh-kii-nazron-se-utar-jaate-hain-waseem-barelvi-ghazals-3
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शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी
नश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं
इक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं
लोग कहते थे कि सब वक़्त गुज़र जाते हैं
घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझ से अच्छी
रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं
हम तो बे-नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं 'वसीम'
कुछ पता हो तो बताएँ कि किधर जाते हैं
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kyaa-bataauun-kaisaa-khud-ko-dar-ba-dar-main-ne-kiyaa-waseem-barelvi-ghazals
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क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया
उम्र-भर किस किस के हिस्से का सफ़र मैं ने किया
तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा इस शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझ से बे-ख़बर मैं ने किया
कैसे बच्चों को बताऊँ रास्तों के पेच-ओ-ख़म
ज़िंदगी-भर तो किताबों का सफ़र मैं ने किया
किस को फ़ुर्सत थी कि बतलाता तुझे इतनी सी बात
ख़ुद से क्या बरताव तुझ से छूट कर मैं ने किया
चंद जज़्बाती से रिश्तों के बचाने को 'वसीम'
कैसा कैसा जब्र अपने आप पर मैं ने किया
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kyaa-dukh-hai-samundar-ko-bataa-bhii-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals
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क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या
हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात
किस के लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता
घर ढूँड रहे हैं मिरा रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
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zindagii-tujh-pe-ab-ilzaam-koii-kyaa-rakkhe-waseem-barelvi-ghazals
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ज़िंदगी तुझ पे अब इल्ज़ाम कोई क्या रक्खे
अपना एहसास ही ऐसा है जो तन्हा रक्खे
किन शिकस्तों के शब-ओ-रोज़ से गुज़रा होगा
वो मुसव्विर जो हर इक नक़्श अधूरा रक्खे
ख़ुश्क मिट्टी ही ने जब पाँव जमाने न दिए
बहते दरिया से फिर उम्मीद कोई क्या रक्खे
आ ग़म-ए-दोस्त उसी मोड़ पे हो जाऊँ जुदा
जो मुझे मेरा ही रहने दे न तेरा रक्खे
आरज़ूओं के बहुत ख़्वाब तो देखो हो 'वसीम'
जाने किस हाल में बे-दर्द ज़माना रक्खे
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biite-hue-din-khud-ko-jab-dohraate-hain-waseem-barelvi-ghazals
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बीते हुए दिन ख़ुद को जब दोहराते हैं
एक से जाने हम कितने हो जाते हैं
हम भी दिल की बात कहाँ कह पाते हैं
आप भी कुछ कहते कहते रह जाते हैं
ख़ुश्बू अपने रस्ते ख़ुद तय करती है
फूल तो डाली के हो कर रह जाते हैं
रोज़ नया इक क़िस्सा कहने वाले लोग
कहते कहते ख़ुद क़िस्सा हो जाते हैं
कौन बचाएगा फिर तोड़ने वालों से
फूल अगर शाख़ों से धोखा खाते हैं
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main-aasmaan-pe-bahut-der-rah-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals
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मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता
मगर ये बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता
किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूँ
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता
ये आज़माने की फ़ुर्सत तुझे कभी मिल जाए
मैं आँखों आँखों में क्या बात कह नहीं सकता
सहारा लेना ही पड़ता है मुझ को दरिया का
मैं एक क़तरा हूँ तन्हा तो बह नहीं सकता
लगा के देख ले जो भी हिसाब आता हो
मुझे घटा के वो गिनती में रह नहीं सकता
ये चंद लम्हों की बे-इख़्तियारियाँ हैं 'वसीम'
गुनह से रिश्ता बहुत देर रह नहीं सकता
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jahaan-dariyaa-kahiin-apne-kinaare-chhod-detaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है
कोई उठता है और तूफ़ान का रुख़ मोड़ देता है
मुझे बे-दस्त-ओ-पा कर के भी ख़ौफ़ उस का नहीं जाता
कहीं भी हादिसा गुज़रे वो मुझ से जोड़ देता है
बिछड़ के तुझ से कुछ जाना अगर तो इस क़दर जाना
वो मिट्टी हूँ जिसे दरिया किनारे छोड़ देता है
मोहब्बत में ज़रा सी बेवफ़ाई तो ज़रूरी है
वही अच्छा भी लगता है जो वा'दे तोड़ देता है
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kitnaa-dushvaar-thaa-duniyaa-ye-hunar-aanaa-bhii-waseem-barelvi-ghazals
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कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी
तुझ से ही फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी
कैसी आदाब-ए-नुमाइश ने लगाईं शर्तें
फूल होना ही नहीं फूल नज़र आना भी
दिल की बिगड़ी हुई आदत से ये उम्मीद न थी
भूल जाएगा ये इक दिन तिरा याद आना भी
जाने कब शहर के रिश्तों का बदल जाए मिज़ाज
इतना आसाँ तो नहीं लौट के घर आना भी
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी
ख़ुद को पहचान के देखे तो ज़रा ये दरिया
भूल जाएगा समुंदर की तरफ़ जाना भी
जानने वालों की इस भीड़ से क्या होगा 'वसीम'
इस में ये देखिए कोई मुझे पहचाना भी
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main-apne-khvaab-se-bichhdaa-nazar-nahiin-aataa-waseem-barelvi-ghazals
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मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता
तो इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता
अजब दबाओ है उन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता
मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता
मैं इक सदा पे हमेशा को घर तो छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता
धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मिरा जलता नज़र नहीं आता
ग़ज़ल-सराई का दा'वा तो सब करे हैं 'वसीम'
मगर वो 'मीर' सा लहजा नज़र नहीं आता
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apne-chehre-se-jo-zaahir-hai-chhupaaen-kaise-waseem-barelvi-ghazals
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अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे
घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत ब'अद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएँ कैसे
लाख तलवारें बढ़ी आती हों गर्दन की तरफ़
सर झुकाना नहीं आता तो झुकाएँ कैसे
क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है
हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आएँ कैसे
फूल से रंग जुदा होना कोई खेल नहीं
अपनी मिट्टी को कहीं छोड़ के जाएँ कैसे
कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे को समुंदर नज़र आएँ कैसे
जिस ने दानिस्ता किया हो नज़र-अंदाज़ 'वसीम'
उस को कुछ याद दिलाएँ तो दिलाएँ कैसे
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bhalaa-gamon-se-kahaan-haar-jaane-vaale-the-waseem-barelvi-ghazals
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भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
हम आँसुओं की तरह मुस्कुराने वाले थे
हमीं ने कर दिया ऐलान-ए-गुमरही वर्ना
हमारे पीछे बहुत लोग आने वाले थे
उन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे
उन्हें क़रीब न होने दिया कभी मैं ने
जो दोस्ती में हदें भूल जाने वाले थे
मैं जिन को जान के पहचान भी नहीं सकता
कुछ ऐसे लोग मिरा घर जलाने वाले थे
हमारा अलमिया ये था कि हम-सफ़र भी हमें
वही मिले जो बहुत याद आने वाले थे
'वसीम' कैसी तअल्लुक़ की राह थी जिस में
वही मिले जो बहुत दिल दुखाने वाले थे
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khul-ke-milne-kaa-saliiqa-aap-ko-aataa-nahiin-waseem-barelvi-ghazals
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खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं
वो समझता था उसे पा कर ही मैं रह जाऊँगा
उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं
जा दिखा दुनिया को मुझ को क्या दिखाता है ग़ुरूर
तू समुंदर है तो है मैं तो मगर प्यासा नहीं
कोई भी दस्तक करे आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मिरा घर तो है दरवाज़ा नहीं
अपनों को अपना कहा चाहे किसी दर्जे के हों
और जब ऐसा किया मैं ने तो शरमाया नहीं
उस की महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिन के चराग़
मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता नहीं
तुझ से क्या बिछड़ा मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई
अब कोई मौसम मिले तो मुझ से शरमाता नहीं
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sab-ne-milaae-haath-yahaan-tiirgii-ke-saath-waseem-barelvi-ghazals
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सब ने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ रौशनी के साथ
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ
कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ
तेरा ख़याल, तेरी तलब तेरी आरज़ू
मैं उम्र भर चला हूँ किसी रौशनी के साथ
दुनिया मिरे ख़िलाफ़ खड़ी कैसे हो गई
मेरी तो दुश्मनी भी नहीं थी किसी के साथ
किस काम की रही ये दिखावे की ज़िंदगी
वादे किए किसी से गुज़ारी किसी के साथ
दुनिया को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम कौन दे
अपनी ही निभ सकी न बहुत दिन किसी के साथ
क़तरे वो कुछ भी पाएँ ये मुमकिन नहीं 'वसीम'
बढ़ना जो चाहते हैं समुंदर-कशी के साथ
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dukh-apnaa-agar-ham-ko-bataanaa-nahiin-aataa-waseem-barelvi-ghazals
|
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता
पहुँचा है बुज़ुर्गों के बयानों से जो हम तक
क्या बात हुई क्यूँ वो ज़माना नहीं आता
मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया
उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता
इस छोटे ज़माने के बड़े कैसे बनोगे
लोगों को जब आपस में लड़ाना नहीं आता
ढूँढे है तो पलकों पे चमकने के बहाने
आँसू को मिरी आँख में आना नहीं आता
तारीख़ की आँखों में धुआँ हो गए ख़ुद ही
तुम को तो कोई घर भी जलाना नहीं आता
|
apne-har-har-lafz-kaa-khud-aaiina-ho-jaauungaa-waseem-barelvi-ghazals
|
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा
इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा
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chalo-ham-hii-pahal-kar-den-ki-ham-se-bad-gumaan-kyuun-ho-waseem-barelvi-ghazals
|
चलो हम ही पहल कर दें कि हम से बद-गुमाँ क्यूँ हो
कोई रिश्ता ज़रा सी ज़िद की ख़ातिर राएगाँ क्यूँ हो
मैं ज़िंदा हूँ तो इस ज़िंदा-ज़मीरी की बदौलत ही
जो बोले तेरे लहजे में भला मेरी ज़बाँ क्यूँ हो
सवाल आख़िर ये इक दिन देखना हम ही उठाएँगे
न समझे जो ज़मीं के ग़म वो अपना आसमाँ क्यूँ हो
हमारी गुफ़्तुगू की और भी सम्तें बहुत सी हैं
किसी का दिल दुखाने ही को फिर अपनी ज़बाँ क्यूँ हो
बिखर कर रह गया हमसायगी का ख़्वाब ही वर्ना
दिए इस घर में रौशन हों तो उस घर में धुआँ क्यूँ हो
मोहब्बत आसमाँ को जब ज़मीं करने की ज़िद ठहरी
तो फिर बुज़दिल उसूलों की शराफ़त दरमियाँ क्यूँ हो
उम्मीदें सारी दुनिया से 'वसीम' और ख़ुद में ऐसे ग़म
किसी पे कुछ न ज़ाहिर हो तो कोई मेहरबाँ क्यूँ हो
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tahriir-se-varna-mirii-kyaa-ho-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals
|
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता
आँखों में ख़यालात में साँसों में बसा है
चाहे भी तो मुझ से वो जुदा हो नहीं सकता
जीना है तो ये जब्र भी सहना ही पड़ेगा
क़तरा हूँ समुंदर से ख़फ़ा हो नहीं सकता
गुमराह किए होंगे कई फूल से जज़्बे
ऐसे तो कोई राह-नुमा हो नहीं सकता
क़द मेरा बढ़ाने का उसे काम मिला है
जो अपने ही पैरों पे खड़ा हो नहीं सकता
ऐ प्यार तिरे हिस्से में आया तिरी क़िस्मत
वो दर्द जो चेहरों से अदा हो नहीं सकता
|
rang-be-rang-hon-khushbuu-kaa-bharosa-jaae-waseem-barelvi-ghazals
|
रंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए
मेरी आँखों से जो दुनिया तुझे देखा जाए
हम ने जिस राह को छोड़ा फिर उसे छोड़ दिया
अब न जाएँगे उधर चाहे ज़माना जाए
मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाए
मैं गुनाहों का तरफ़-दार नहीं हूँ फिर भी
रात को दिन की निगाहों से न देखा जाए
कुछ बड़ी सोचों में ये सोचें भी शामिल हैं 'वसीम'
किस बहाने से कोई शहर जलाया जाए
|
haveliyon-men-mirii-tarbiyat-nahiin-hotii-waseem-barelvi-ghazals
|
हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती
तो आज सर पे टपकने को छत नहीं होती
हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल
उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती
चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती
हमें जो ख़ुद में सिमटने का फ़न नहीं आता
तो आज ऐसी तिरी सल्तनत नहीं होती
'वसीम' शहर में सच्चाइयों के लब होते
तो आज ख़बरों में सब ख़ैरियत नहीं होती
|
sirf-teraa-naam-le-kar-rah-gayaa-waseem-barelvi-ghazals
|
सिर्फ़ तेरा नाम ले कर रह गया
आज दीवाना बहुत कुछ कह गया
क्या मिरी तक़दीर में मंज़िल नहीं
फ़ासला क्यूँ मुस्कुरा कर रह गया
ज़िंदगी दुनिया में ऐसा अश्क थी
जो ज़रा पलकों पे ठहरा बह गया
और क्या था उस की पुर्सिश का जवाब
अपने ही आँसू छुपा कर रह गया
उस से पूछ ऐ कामयाब-ए-ज़िंदगी
जिस का अफ़्साना अधूरा रह गया
हाए क्या दीवानगी थी ऐ 'वसीम'
जो न कहना चाहिए था कह गया
|
kahaan-savaab-kahaan-kyaa-azaab-hotaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
|
कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है
मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है
बिछड़ के मुझ से तुम अपनी कशिश न खो देना
उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है
उसे पता ही नहीं है कि प्यार की बाज़ी
जो हार जाए वही कामयाब होता है
जब उस के पास गँवाने को कुछ नहीं होता
तो कोई आज का इज़्ज़त-मआब होता है
जिसे मैं लिखता हूँ ऐसे कि ख़ुद ही पढ़ पाँव
किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा भी बाब होता है
बहुत भरोसा न कर लेना अपनी आँखों पर
दिखाई देता है जो कुछ वो ख़्वाब होता है
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sabhii-kaa-dhuup-se-bachne-ko-sar-nahiin-hotaa-waseem-barelvi-ghazals
|
सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता
हर आदमी के मुक़द्दर में घर नहीं होता
कभी लहू से भी तारीख़ लिखनी पड़ती है
हर एक मा'रका बातों से सर नहीं होता
मैं उस की आँख का आँसू न बन सका वर्ना
मुझे भी ख़ाक में मिलने का डर नहीं होता
मुझे तलाश करोगे तो फिर न पाओगे
मैं इक सदा हूँ सदाओं का घर नहीं होता
हमारी आँख के आँसू की अपनी दुनिया है
किसी फ़क़ीर को शाहों का डर नहीं होता
मैं उस मकान में रहता हूँ और ज़िंदा हूँ
'वसीम' जिस में हवा का गुज़र नहीं होता
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ye-hai-to-sab-ke-liye-ho-ye-zid-hamaarii-hai-waseem-barelvi-ghazals
|
ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है
इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है
उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समुंदर की ज़िम्मेदारी है
इसी से जलते हैं सहरा-ए-आरज़ू में चराग़
ये तिश्नगी तो मुझे ज़िंदगी से प्यारी है
कोई बताए ये उस के ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग मैं ने लड़ी ही नहीं जो हारी है
हर एक साँस पे पहरा है बे-यक़ीनी का
ये ज़िंदगी तो नहीं मौत की सवारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मिरी हिम्मत
ये इक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
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andheraa-zehn-kaa-samt-e-safar-jab-khone-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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अंधेरा ज़ेहन का सम्त-ए-सफ़र जब खोने लगता है
किसी का ध्यान आता है उजाला होने लगता है
वो जितनी दूर हो उतना ही मेरा होने लगता है
मगर जब पास आता है तो मुझ से खोने लगता है
किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर
मिरे अंदर कोई बच्चा बिलक कर रोने लगता है
मोहब्बत चार दिन की और उदासी ज़िंदगी भर की
यही सब देखता है और 'कबीरा' रोने लगता है
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
ये दिल बच कर ज़माने भर से चलना चाहे है लेकिन
जब अपनी राह चलता है अकेला होने लगता है
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tumhaarii-raah-men-mittii-ke-ghar-nahiin-aate-waseem-barelvi-ghazals
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तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसी लिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मोहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौट कर नहीं आते
जिन्हें सलीक़ा है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते
बिसात-ए-इश्क़ पे बढ़ना किसे नहीं आता
ये और बात कि बचने के घर नहीं आते
'वसीम' ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
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lahuu-na-ho-to-qalam-tarjumaan-nahiin-hotaa-waseem-barelvi-ghazals
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लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई
कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता
बस इक निगाह मिरी राह देखती होती
ये सारा शहर मिरा मेज़बाँ नहीं होता
तिरा ख़याल न होता तो कौन समझाता
ज़मीं न हो तो कोई आसमाँ नहीं होता
मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता
'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
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chaand-kaa-khvaab-ujaalon-kii-nazar-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है
तू जिधर हो के गुज़र जाए ख़बर लगता है
उस की यादों ने उगा रक्खे हैं सूरज इतने
शाम का वक़्त भी आए तो सहर लगता है
एक मंज़र पे ठहरने नहीं देती फ़ितरत
उम्र भर आँख की क़िस्मत में सफ़र लगता है
मैं नज़र भर के तिरे जिस्म को जब देखता हूँ
पहली बारिश में नहाया सा शजर लगता है
बे-सहारा था बहुत प्यार कोई पूछता क्या
तू ने काँधे पे जगह दी है तो सर लगता है
तेरी क़ुर्बत के ये लम्हे उसे रास आएँ क्या
सुब्ह होने का जिसे शाम से डर लगता है
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kuchh-itnaa-khauf-kaa-maaraa-huaa-bhii-pyaar-na-ho-waseem-barelvi-ghazals
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कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो
वो ए'तिबार दिलाए और ए'तिबार न हो
हवा ख़िलाफ़ हो मौजों पे इख़्तियार न हो
ये कैसी ज़िद है कि दरिया किसी से पार न हो
मैं गाँव लौट रहा हूँ बहुत दिनों के बाद
ख़ुदा करे कि उसे मेरा इंतिज़ार न हो
ज़रा सी बात पे घुट घुट के सुब्ह कर देना
मिरी तरह भी कोई मेरा ग़म-गुसार न हो
दुखी समाज में आँसू भरे ज़माने में
उसे ये कौन बताए कि अश्क-बार न हो
गुनाहगारों पे उँगली उठाए देते हो
'वसीम' आज कहीं तुम भी संगसार न हो
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main-is-umiid-pe-duubaa-ki-tuu-bachaa-legaa-waseem-barelvi-ghazals
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मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वा'दा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम'
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
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udaasiyon-men-bhii-raste-nikaal-letaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है
अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है
ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो
कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है
ढले तो होती है कुछ और एहतियात की उम्र
कि बहते बहते ये दरिया उछाल लेता है
बड़े-बड़ों की तरह-दारियाँ नहीं चलतीं
उरूज तेरी ख़बर जब ज़वाल लेता है
जब उस के जाम में इक बूँद तक नहीं होती
वो मेरी प्यास को फिर भी सँभाल लेता है
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aate-aate-miraa-naam-saa-rah-gayaa-waseem-barelvi-ghazals
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आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया
रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई
दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया
वो मिरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
उस को काँधों पे ले जा रहे हैं 'वसीम'
और वो जीने का हक़ माँगता रह गया
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use-samajhne-kaa-koii-to-raasta-nikle-waseem-barelvi-ghazals
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उसे समझने का कोई तो रास्ता निकले
मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले
किताब-ए-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा
न जाने कौन सा सफ़हा मुड़ा हुआ निकले
मैं तुझ से मिलता तो तफ़्सील में नहीं जाता
मिरी तरफ़ से तिरे दिल में जाने क्या निकले
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासला निकले
तमाम शहर की आँखों में सुर्ख़ शो'ले हैं
'वसीम' घर से अब ऐसे में कोई क्या निकले
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vo-mere-ghar-nahiin-aataa-main-us-ke-ghar-nahiin-jaataa-waseem-barelvi-ghazals
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वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता
बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं
किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता
घरों की तर्बियत क्या आ गई टी-वी के हाथों में
कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता
खुले थे शहर में सौ दर मगर इक हद के अंदर ही
कहाँ जाता अगर मैं लौट के फिर घर नहीं जाता
मोहब्बत के ये आँसू हैं उन्हें आँखों में रहने दो
शरीफ़ों के घरों का मसअला बाहर नहीं जाता
'वसीम' उस से कहो दुनिया बहुत महदूद है मेरी
किसी दर का जो हो जाए वो फिर दर दर नहीं जाता
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mohabbat-naa-samajh-hotii-hai-samjhaanaa-zaruurii-hai-waseem-barelvi-ghazals
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मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है
उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में तअ'ल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मिरे होंटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बा'द भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
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apne-andaaz-kaa-akelaa-thaa-waseem-barelvi-ghazals
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अपने अंदाज़ का अकेला था
इस लिए मैं बड़ा अकेला था
प्यार तो जन्म का अकेला था
क्या मिरा तजरबा अकेला था
साथ तेरा न कुछ बदल पाया
मेरा ही रास्ता अकेला था
बख़्शिश-ए-बे-हिसाब के आगे
मेरा दस्त-ए-दुआ' अकेला था
तेरी समझौते-बाज़ दुनिया में
कौन मेरे सिवा अकेला था
जो भी मिलता गले लगा लेता
किस क़दर आइना अकेला था
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hamaaraa-azm-e-safar-kab-kidhar-kaa-ho-jaae-waseem-barelvi-ghazals
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हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए
ये वो नहीं जो किसी रहगुज़र का हो जाए
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
खुली हवाओं में उड़ना तो उस की फ़ितरत है
परिंदा क्यूँ किसी शाख़-ए-शजर का हो जाए
मैं लाख चाहूँ मगर हो तो ये नहीं सकता
कि तेरा चेहरा मिरी ही नज़र का हो जाए
मिरा न होने से क्या फ़र्क़ उस को पड़ना है
पता चले जो किसी कम-नज़र का हो जाए
'वसीम' सुब्ह की तन्हाई-ए-सफ़र सोचो
मुशाएरा तो चलो रात भर का हो जाए
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kahaan-qatre-kii-gam-khvaarii-kare-hai-waseem-barelvi-ghazals
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कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
समुंदर है अदाकारी करे है
कोई माने न माने उस की मर्ज़ी
मगर वो हुक्म तो जारी करे है
नहीं लम्हा भी जिस की दस्तरस में
वही सदियों की तय्यारी करे है
बड़े आदर्श हैं बातों में लेकिन
वो सारे काम बाज़ारी करे है
हमारी बात भी आए तो जानें
वो बातें तो बहुत सारी करे है
यही अख़बार की सुर्ख़ी बनेगा
ज़रा सा काम चिंगारी करे है
बुलावा आएगा चल देंगे हम भी
सफ़र की कौन तय्यारी करे है
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vo-mujh-ko-kyaa-bataanaa-chaahtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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वो मुझ को क्या बताना चाहता है
जो दुनिया से छुपाना चाहता है
मुझे देखो कि मैं उस को ही चाहूँ
जिसे सारा ज़माना चाहता है
क़लम करना कहाँ है उस का मंशा
वो मेरा सर झुकाना चाहता है
शिकायत का धुआँ आँखों से दिल तक
तअ'ल्लुक़ टूट जाना चाहता है
तक़ाज़ा वक़्त का कुछ भी हो ये दिल
वही क़िस्सा पुराना चाहता है
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apne-saae-ko-itnaa-samjhaane-de-waseem-barelvi-ghazals
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अपने साए को इतना समझाने दे
मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे
एक नज़र में कई ज़माने देखे तो
बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे
बाबा दुनिया जीत के मैं दिखला दूँगा
अपनी नज़र से दूर तो मुझ को जाने दे
मैं भी तो इस बाग़ का एक परिंदा हूँ
मेरी ही आवाज़ में मुझ को गाने दे
फिर तो ये ऊँचा ही होता जाएगा
बचपन के हाथों में चाँद आ जाने दे
फ़स्लें पक जाएँ तो खेत से बिछ्ड़ेंगी
रोती आँख को प्यार कहाँ समझाने दे
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ham-apne-aap-ko-ik-masala-banaa-na-sake-waseem-barelvi-ghazals
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हम अपने आप को इक मसअला बना न सके
इसी लिए तो किसी की नज़र में आ न सके
हम आँसुओं की तरह वास्ते निभा न सके
रहे जिन आँखों में उन में ही घर बना न सके
फिर आँधियों ने सिखाया वहाँ सफ़र का हुनर
जहाँ चराग़ हमें रास्ता दिखा न सके
जो पेश पेश थे बस्ती बचाने वालों में
लगी जब आग तो अपना भी घर बचा न सके
मिरे ख़ुदा किसी ऐसी जगह उसे रखना
जहाँ कोई मिरे बारे में कुछ बता न सके
तमाम उम्र की कोशिश का बस यही हासिल
किसी को अपने मुताबिक़ कोई बना न सके
तसल्लियों पे बहुत दिन जिया नहीं जाता
कुछ ऐसा हो के तिरा ए'तिबार आ न सके
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main-ye-nahiin-kahtaa-ki-miraa-sar-na-milegaa-waseem-barelvi-ghazals
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मैं ये नहीं कहता कि मिरा सर न मिलेगा
लेकिन मिरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा
सर पर तो बिठाने को है तय्यार ज़माना
लेकिन तिरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा
जाती है चली जाए ये मय-ख़ाने की रौनक़
कम-ज़र्फ़ों के हाथों में तो साग़र न मिलेगा
दुनिया की तलब है तो क़नाअत ही न करना
क़तरे ही से ख़ुश हो तो समुंदर न मिलेगा
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mirii-vafaaon-kaa-nashsha-utaarne-vaalaa-waseem-barelvi-ghazals
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मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
कहाँ गया मुझे हँस हँस के हारने वाला
हमारी जान गई जाए देखना ये है
कहीं नज़र में न आ जाए मारने वाला
बस एक प्यार की बाज़ी है बे-ग़रज़ बाज़ी
न कोई जीतने वाला न कोई हारने वाला
भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
शराब-ख़ाने में रातें गुज़ारने वाला
मैं उस का दिन भी ज़माने में बाँट कर रख दूँ
वो मेरी रातों को छुप कर गुज़ारने वाला
'वसीम' हम भी बिखरने का हौसला करते
हमें भी होता जो कोई सँवारने वाला
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tuu-samajhtaa-hai-ki-rishton-kii-duhaaii-denge-waseem-barelvi-ghazals
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तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे
हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे
हम को महसूस किया जाए है ख़ुश्बू की तरह
हम कोई शोर नहीं हैं जो सुनाई देंगे
फ़ैसला लिक्खा हुआ रक्खा है पहले से ख़िलाफ़
आप क्या साहब अदालत में सफ़ाई देंगे
पिछली सफ़ में ही सही है तो इसी महफ़िल में
आप देखेंगे तो हम क्यूँ न दिखाई देंगे
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duur-se-hii-bas-dariyaa-dariyaa-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है
डूब के देखो कितना प्यासा लगता है
तन्हा हो तो घबराया सा लगता है
भीड़ में उस को देख के अच्छा लगता है
आज ये है कल और यहाँ होगा कोई
सोचो तो सब खेल-तमाशा लगता है
मैं ही न मानूँ मेरे बिखरने में वर्ना
दुनिया भर को हाथ तुम्हारा लगता है
ज़ेहन से काग़ज़ पर तस्वीर उतरते ही
एक मुसव्विर कितना अकेला लगता है
प्यार के इस नश्शा को कोई क्या समझे
ठोकर में जब सारा ज़माना लगता है
भीड़ में रह कर अपना भी कब रह पाता
चाँद अकेला है तो सब का लगता है
शाख़ पे बैठी भोली-भाली इक चिड़िया
क्या जाने उस पर भी निशाना लगता है
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zaraa-saa-qatra-kahiin-aaj-agar-ubhartaa-hai-waseem-barelvi-ghazals
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है
खुली छतों के दिए कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है
तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
ज़मीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमाँ से कोई फ़ैसला उतरता है
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nahiin-ki-apnaa-zamaana-bhii-to-nahiin-aayaa-waseem-barelvi-ghazals
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नहीं कि अपना ज़माना भी तो नहीं आया
हमें किसी से निभाना भी तो नहीं आया
जला के रख लिया हाथों के साथ दामन तक
तुम्हें चराग़ बुझाना भी तो नहीं आया
नए मकान बनाए तो फ़ासलों की तरह
हमें ये शहर बसाना भी तो नहीं आया
वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब
मुझे बहाना बनाना भी तो नहीं आया
'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़
किसी को छोड़ के जाना भी तो नहीं आया
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vo-dhal-rahaa-hai-to-ye-bhii-rangat-badal-rahii-hai-javed-akhtar-ghazals
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वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है
जो मुझ को ज़िंदा जला रहे हैं वो बे-ख़बर हैं
कि मेरी ज़ंजीर धीरे धीरे पिघल रही है
मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है
न जलने पाते थे जिस के चूल्हे भी हर सवेरे
सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
मैं जानता हूँ कि ख़ामुशी में ही मस्लहत है
मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है
कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त
ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है
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dast-bardaar-agar-aap-gazab-se-ho-jaaen-javed-akhtar-ghazals
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दस्त-बरदार अगर आप ग़ज़ब से हो जाएँ
हर सितम भूल के हम आप के अब से हो जाएँ
चौदहवीं शब है तो खिड़की के गिरा दो पर्दे
कौन जाने कि वो नाराज़ ही शब से हो जाएँ
एक ख़ुश्बू की तरह फैलते हैं महफ़िल में
ऐसे अल्फ़ाज़ अदा जो तिरे लब से हो जाएँ
न कोई इश्क़ है बाक़ी न कोई परचम है
लोग दीवाने भला किस के सबब से हो जाएँ
बाँध लो हाथ कि फैलें न किसी के आगे
सी लो ये लब कि कहीं वो न तलब से हो जाएँ
बात तो छेड़ मिरे दिल कोई क़िस्सा तो सुना
क्या अजब उन के भी जज़्बात अजब से हो जाएँ
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ba-zaahir-kyaa-hai-jo-haasil-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals
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ब-ज़ाहिर क्या है जो हासिल नहीं है
मगर ये तो मिरी मंज़िल नहीं है
ये तूदा रेत का है बीच दरिया
ये बह जाएगा ये साहिल नहीं है
बहुत आसान है पहचान उस की
अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है
मुसाफ़िर वो अजब है कारवाँ में
कि जो हमराह है शामिल नहीं है
बस इक मक़्तूल ही मक़्तूल कब है
बस इक क़ातिल ही तो क़ातिल नहीं है
कभी तो रात को तुम रात कह दो
ये काम इतना भी अब मुश्किल नहीं है
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dard-ke-phuul-bhii-khilte-hain-bikhar-jaate-hain-javed-akhtar-ghazals
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दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं
छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर
मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं
नर्म अल्फ़ाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाते हैं
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yahii-haalaat-ibtidaa-se-rahe-javed-akhtar-ghazals
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यही हालात इब्तिदा से रहे
लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे
इन चराग़ों में तेल ही कम था
क्यूँ गिला हम को फिर हवा से रहे
बहस शतरंज शे'र मौसीक़ी
तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे
ज़िंदगी की शराब माँगते हो
हम को देखो कि पी के प्यासे रहे
उस के बंदों को देख कर कहिए
हम को उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे
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phirte-hain-kab-se-dar-ba-dar-ab-is-nagar-ab-us-nagar-ik-duusre-ke-ham-safar-main-aur-mirii-aavaargii-javed-akhtar-ghazals
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फिरते हैं कब से दर-ब-दर अब इस नगर अब उस नगर इक दूसरे के हम-सफ़र मैं और मिरी आवारगी
ना-आश्ना हर रह-गुज़र ना-मेहरबाँ हर इक नज़र जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी
हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बर्बाद थे बे-फ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिल-शाद थे
वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गए दिल जल गया निकले जला के अपना घर मैं और मिरी आवारगी
जीना बहुत आसान था इक शख़्स का एहसान था हम को भी इक अरमान था जो ख़्वाब का सामान था
अब ख़्वाब है नय आरज़ू अरमान है नय जुस्तुजू यूँ भी चलो ख़ुश हैं मगर मैं और मिरी आवारगी
वो माह-वश वो माह-रू वो माह-काम-ए-हू-ब-हू थीं जिस की बातें कू-ब-कू उस से अजब थी गुफ़्तुगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई तो मुझ को ज़िद सी हो गई लाएँगे उस को ढूँड कर मैं और मिरी आवारगी
ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कह के वो दिलबर गया तेरे लिए मैं मर गया रोते हैं उस को रात भर मैं और मिरी आवारगी
अब ग़म उठाएँ किस लिए आँसू बहाएँ किस लिए ये दिल जलाएँ किस लिए यूँ जाँ गंवाएँ किस लिए
पेशा न हो जिस का सितम ढूँडेंगे अब ऐसा सनम होंगे कहीं तो कारगर मैं और मिरी आवारगी
आसार हैं सब खोट के इम्कान हैं सब चोट के घर बंद हैं सब गोट के अब ख़त्म हैं सब टोटके
क़िस्मत का सब ये फेर है अंधेर है अंधेर है ऐसे हुए हैं बे-असर मैं और मिरी आवारगी
जब हमदम-ओ-हमराज़ था तब और ही अंदाज़ था अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझ से हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या इक बे-हुनर इक बे-समर मैं और मिरी आवारगी
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jidhar-jaate-hain-sab-jaanaa-udhar-achchhaa-nahiin-lagtaa-javed-akhtar-ghazals
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जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता
बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती
ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता
ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो
कि सब बे-घर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता
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dard-apnaataa-hai-paraae-kaun-javed-akhtar-ghazals
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दर्द अपनाता है पराए कौन
कौन सुनता है और सुनाए कौन
कौन दोहराए फिर वही बातें
ग़म अभी सोया है जगाए कौन
अब सुकूँ है तो भूलने में है
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन
वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं
कौन दुख झेले आज़माए कौन
आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिए आज याद आए कौन
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bahaana-dhuundte-rahte-hain-koii-rone-kaa-javed-akhtar-ghazals
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बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का
अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का
जो फ़स्ल ख़्वाब की तय्यार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का
ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का
है पाश पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का
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aaj-main-ne-apnaa-phir-saudaa-kiyaa-javed-akhtar-ghazals
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आज मैं ने अपना फिर सौदा किया
और फिर मैं दूर से देखा किया
ज़िंदगी-भर मेरे काम आए उसूल
एक इक कर के उन्हें बेचा किया
बंध गई थी दिल में कुछ उम्मीद सी
ख़ैर तुम ने जो किया अच्छा किया
कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी
तुम से क्या कहते कि तुम ने क्या किया
क्या बताऊँ कौन था जिस ने मुझे
इस भरी दुनिया में है तन्हा किया
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jiinaa-mushkil-hai-ki-aasaan-zaraa-dekh-to-lo-javed-akhtar-ghazals
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जीना मुश्किल है कि आसान ज़रा देख तो लो
लोग लगते हैं परेशान ज़रा देख तो लो
फिर मुक़र्रिर कोई सरगर्म सर-ए-मिंबर है
किस के है क़त्ल का सामान ज़रा देख तो लो
ये नया शहर तो है ख़ूब बसाया तुम ने
क्यूँ पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो
इन चराग़ों के तले ऐसे अँधेरे क्यूँ है
तुम भी रह जाओगे हैरान ज़रा देख तो लो
तुम ये कहते हो कि मैं ग़ैर हूँ फिर भी शायद
निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो
ये सताइश की तमन्ना ये सिले की परवाह
कहाँ लाए हैं ये अरमान ज़रा देख तो लो
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hamaare-shauq-kii-ye-intihaa-thii-javed-akhtar-ghazals
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हमारे शौक़ की ये इंतिहा थी
क़दम रक्खा कि मंज़िल रास्ता थी
बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी
मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इब्तिदा थी
मोहब्बत मर गई मुझ को भी ग़म है
मिरे अच्छे दिनों की आश्ना थी
जिसे छू लूँ मैं वो हो जाए सोना
तुझे देखा तो जाना बद-दुआ' थी
मरीज़-ए-ख़्वाब को तो अब शिफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
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dukh-ke-jangal-men-phirte-hain-kab-se-maare-maare-log-javed-akhtar-ghazals
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दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जीवन जीवन हम ने जग में खेल यही होते देखा
धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग
वक़्त सिंघासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है
संगत देने को पाते हैं साँसों के उक्तारे लोग
नेकी इक दिन काम आती है हम को क्या समझाते हो
हम ने बे-बस मरते देखे कैसे प्यारे प्यारे लोग
इस नगरी में क्यूँ मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिन की नगरी है वो जानें हम ठहरे बंजारे लोग
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main-paa-sakaa-na-kabhii-is-khalish-se-chhutkaaraa-javed-akhtar-ghazals
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मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा
वो मुझ से जीत भी सकता था जाने क्यूँ हारा
बरस के खुल गए आँसू निथर गई है फ़ज़ा
चमक रहा है सर-ए-शाम दर्द का तारा
किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मिरी हथेली पे रक्खा हुआ ये अँगारा
जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा
वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उस को गर न फुन्कारा
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ye-mujh-se-puuchhte-hain-chaaragar-kyuun-javed-akhtar-ghazals
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ये मुझ से पूछते हैं चारागर क्यूँ
कि तू ज़िंदा तो है अब तक मगर क्यूँ
जो रस्ता छोड़ के मैं जा रहा हूँ
उसी रस्ते पे जाती है नज़र क्यूँ
थकन से चूर पास आया था उस के
गिरा सोते में मुझ पर ये शजर क्यूँ
सुनाएँगे कभी फ़ुर्सत में तुम को
कि हम बरसों रहे हैं दर-ब-दर क्यूँ
यहाँ भी सब हैं बेगाना ही मुझ से
कहूँ मैं क्या कि याद आया है घर क्यूँ
मैं ख़ुश रहता अगर समझा न होता
ये दुनिया है तो मैं हूँ दीदा-वर क्यूँ
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dard-kuchh-din-to-mehmaan-thahre-javed-akhtar-ghazals
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दर्द कुछ दिन तो मेहमाँ ठहरे
हम ब-ज़िद हैं कि मेज़बाँ ठहरे
सिर्फ़ तन्हाई सिर्फ़ वीरानी
ये नज़र जब उठे जहाँ ठहरे
कौन से ज़ख़्म पर पड़ाव किया
दर्द के क़ाफ़िले कहाँ ठहरे
कैसे दिल में ख़ुशी बसा लूँ मैं
कैसे मुट्ठी में ये धुआँ ठहरे
थी कहीं मस्लहत कहीं जुरअत
हम कहीं इन के दरमियाँ ठहरे
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main-khud-bhii-sochtaa-huun-ye-kyaa-meraa-haal-hai-javed-akhtar-ghazals
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मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है
जिस का जवाब चाहिए वो क्या सवाल है
घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था
क्या मुझ से खो गया है मुझे क्या मलाल है
आसूदगी से दल के सभी दाग़ धुल गए
लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बाल है
बे-दस्त-ओ-पा हूँ आज तो इल्ज़ाम किस को दूँ
कल मैं ने ही बुना था ये मेरा ही जाल है
फिर कोई ख़्वाब देखूँ कोई आरज़ू करूँ
अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है
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khulaa-hai-dar-pa-tiraa-intizaar-jaataa-rahaa-javed-akhtar-ghazals
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खुला है दर प तिरा इंतिज़ार जाता रहा
ख़ुलूस तो है मगर ए'तिबार जाता रहा
किसी की आँख में मस्ती तो आज भी है वही
मगर कभी जो हमें था ख़ुमार जाता रहा
कभी जो सीने में इक आग थी वो सर्द हुई
कभी निगाह में जो था शरार जाता रहा
अजब सा चैन था हम को कि जब थे हम बेचैन
क़रार आया तो जैसे क़रार जाता रहा
कभी तो मेरी भी सुनवाई होगी महफ़िल में
मैं ये उमीद लिए बार बार जाता रहा
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ye-tasallii-hai-ki-hain-naashaad-sab-javed-akhtar-ghazals
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ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बर्बाद सब
सब की ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब
भूल के सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सब को होगा याद सब
सब को दा'वा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं
इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब
शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलाएँगे आज़ाद सब
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उस को कब फ़ुर्सत सुने फ़रियाद सब
तल्ख़ियाँ कैसे न हूँ अशआ'र में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब
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zaraa-mausam-to-badlaa-hai-magar-pedon-kii-shaakhon-par-nae-patton-ke-aane-men-abhii-kuchh-din-lagenge-javed-akhtar-ghazals
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ज़रा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे
बहुत से ज़र्द चेहरों पर ग़ुबार-ए-ग़म है कम बे-शक पर उन को मुस्कुराने में अभी कुछ दिन लगेंगे
कभी हम को यक़ीं था ज़ो'म था दुनिया हमारी जो मुख़ालिफ़ है तो हो जाए मगर तुम मेहरबाँ हो
हमें ये बात वैसे याद तो अब क्या है लेकिन हाँ इसे यकसर भुलाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
जहाँ इतने मसाइब हों जहाँ इतनी परेशानी किसी का बेवफ़ा होना है कोई सानेहा क्या
बहुत माक़ूल है ये बात लेकिन इस हक़ीक़त तक दिल-ए-नादाँ को लाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
कोई टूटे हुए शीशे लिए अफ़्सुर्दा-ओ-मग़्मूम कब तक यूँ गुज़ारे बे-तलब बे-आरज़ू दिन
तो इन ख़्वाबों की किर्चें हम ने पलकों से झटक दीं पर नए अरमाँ सजाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
तवहहुम की सियह शब को किरन से चाक कर के आगही हर एक आँगन में नया सूरज उतारे
मगर अफ़्सोस ये सच है वो शब थी और ये सुरज है ये सब को मान जाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
पुरानी मंज़िलों का शौक़ तो किस को है बाक़ी अब नई हैं मंज़िलें हैं सब के दिल में जिन के अरमाँ
बना लेना नई मंज़िल न था मुश्किल मगर ऐ दिल नए रस्ते बनाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
अँधेरे ढल गए रौशन हुए मंज़र ज़मीं जागी फ़लक जागा तो जैसे जाग उट्ठी ज़िंदगानी
मगर कुछ याद-ए-माज़ी ओढ़ के सोए हुए लोगों को लगता है जगाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
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yaad-use-bhii-ek-adhuuraa-afsaana-to-hogaa-javed-akhtar-ghazals
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याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा
कल रस्ते में उस ने हम को पहचाना तो होगा
डर हम को भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से
लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा
कुछ बातों के मतलब हैं और कुछ मतलब की बातें
जो ये फ़र्क़ समझ लेगा वो दीवाना तो होगा
दिल की बातें नहीं है तो दिलचस्प ही कुछ बातें हों
ज़िंदा रहना है तो दिल को बहलाना तो होगा
जीत के भी वो शर्मिंदा है हार के भी हम नाज़ाँ
कम से कम वो दिल ही दिल में ये माना तो होगा
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gam-hote-hain-jahaan-zehaanat-hotii-hai-javed-akhtar-ghazals
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ग़म होते हैं जहाँ ज़ेहानत होती है
दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है
अक्सर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं
अक्सर क्यूँ कहते हैं हैरत होती है
तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते हैं जब भी फ़ुर्सत होती है
अपनी महबूबा में अपनी माँ देखें
बिन माँ के लड़कों की फ़ितरत होती है
इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं
कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है
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jism-damaktaa-zulf-ghanerii-rangiin-lab-aankhen-jaaduu-javed-akhtar-ghazals
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जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू
संग-ए-मरमर, ऊदा बादल, सुर्ख़ शफ़क़, हैराँ आहू
भिक्षु-दानी, प्यासा पानी, दरिया सागर, जल गागर
गुलशन ख़ुशबू, कोयल कूकू, मस्ती दारू, मैं और तू
ब़ाँबी नागिन, छाया आँगन, घुंघरू छन-छन, आशा मन
आँखें काजल, पर्बत बादल, वो ज़ुल्फ़ें और ये बाज़ू
रातें महकी, साँसें दहकी, नज़रें बहकी, रुत लहकी
सप्न सलोना, प्रेम खिलौना, फूल बिछौना, वो पहलू
तुम से दूरी, ये मजबूरी, ज़ख़्म-ए-कारी, बेदारी,
तन्हा रातें, सपने क़ातें, ख़ुद से बातें, मेरी ख़ू
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kabhii-kabhii-main-ye-sochtaa-huun-ki-mujh-ko-terii-talaash-kyuun-hai-javed-akhtar-ghazals
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कभी कभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझ को तेरी तलाश क्यूँ है
कि जब हैं सारे ही तार टूटे तो साज़ में इर्तिआ'श क्यूँ है
कोई अगर पूछता ये हम से बताते हम गर तो क्या बताते
भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यूँ है
उठा के हाथों से तुम ने छोड़ा चलो न दानिस्ता तुम ने तोड़ा
अब उल्टा हम से तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश पाश क्यूँ है
अजब दो-राहे पे ज़िंदगी है कभी हवस दिल को खींचती है
कभी ये शर्मिंदगी है दिल में कि इतनी फ़िक्र-ए-मआ'श क्यूँ है
न फ़िक्र कोई न जुस्तुजू है न ख़्वाब कोई न आरज़ू है
ये शख़्स तो कब का मर चुका है तो बे-कफ़न फिर ये लाश क्यूँ है
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khvaab-ke-gaanv-men-pale-hain-ham-javed-akhtar-ghazals
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ख़्वाब के गाँव में पले हैं हम
पानी छलनी में ले चले हैं हम
छाछ फूंकें कि अपने बचपन में
दूध से किस तरह जले हैं हम
ख़ुद हैं अपने सफ़र की दुश्वारी
अपने पैरों के आबले हैं हम
तू तो मत कह हमें बुरा दुनिया
तू ने ढाला है और ढले हैं हम
क्यूँ हैं कब तक हैं किस की ख़ातिर हैं
बड़े संजीदा मसअले हैं हम
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pyaas-kii-kaise-laae-taab-koii-javed-akhtar-ghazals
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प्यास की कैसे लाए ताब कोई
नहीं दरिया तो हो सराब कोई
ज़ख़्म-ए-दिल में जहाँ महकता है
इसी क्यारी में था गुलाब कोई
रात बजती थी दूर शहनाई
रोया पी कर बहुत शराब कोई
दिल को घेरे हैं रोज़गार के ग़म
रद्दी में खो गई किताब कोई
कौन सा ज़ख़्म किस ने बख़्शा है
इस का रक्खे कहाँ हिसाब कोई
फिर मैं सुनने लगा हूँ इस दिल की
आने वाला है फिर अज़ाब कोई
शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू
फिर हुआ क़त्ल आफ़्ताब कोई
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main-kab-se-kitnaa-huun-tanhaa-tujhe-pataa-bhii-nahiin-javed-akhtar-ghazals
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मैं कब से कितना हूँ तन्हा तुझे पता भी नहीं
तिरा तो कोई ख़ुदा है मिरा ख़ुदा भी नहीं
कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं
कभी तो बात की उस ने कभी रहा ख़ामोश
कभी तो हँस के मिला और कभी मिला भी नहीं
कभी जो तल्ख़-कलामी थी वो भी ख़त्म हुई
कभी गिला था हमें उन से अब गिला भी नहीं
वो चीख़ उभरी बड़ी देर गूँजी डूब गई
हर एक सुनता था लेकिन कोई हिला भी नहीं
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kal-jahaan-diivaar-thii-hai-aaj-ik-dar-dekhiye-javed-akhtar-ghazals
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कल जहाँ दीवार थी है आज इक दर देखिए
क्या समाई थी भला दीवाने के सर देखिए
पुर-सुकूँ लगती है कितनी झील के पानी पे बत
पैरों की बे-ताबियाँ पानी के अंदर देखिए
छोड़ कर जिस को गए थे आप कोई और था
अब मैं कोई और हूँ वापस तो आ कर देखिए
ज़ेहन-ए-इंसानी इधर आफ़ाक़ की वुसअत उधर
एक मंज़र है यहाँ अंदर कि बाहर देखिए
अक़्ल ये कहती दुनिया मिलती है बाज़ार में
दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिए
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sach-ye-hai-be-kaar-hamen-gam-hotaa-hai-javed-akhtar-ghazals
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सच ये है बे-कार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है
ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम
हम से पूछो कैसा आलम होता है
ग़ैरों को कब फ़ुर्सत है दुख देने की
जब होता है कोई हमदम होता है
ज़ख़्म तो हम ने इन आँखों से देखे हैं
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है
ज़ेहन की शाख़ों पर अशआर आ जाते हैं
जब तेरी यादों का मौसम होता है
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kin-lafzon-men-itnii-kadvii-itnii-kasiilii-baat-likhuun-javed-akhtar-ghazals
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किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ
शे'र की मैं तहज़ीब बना हूँ या अपने हालात लिखूँ
ग़म नहीं लिक्खूँ क्या मैं ग़म को जश्न लिखूँ क्या मातम को
जो देखे हैं मैं ने जनाज़े क्या उन को बारात लिखूँ
कैसे लिखूँ मैं चाँद के क़िस्से कैसे लिखूँ मैं फूल की बात
रेत उड़ाए गर्म हवा तो कैसे मैं बरसात लिखूँ
किस किस की आँखों में देखे मैं ने ज़हर बुझे ख़ंजर
ख़ुद से भी जो मैं ने छुपाए कैसे वो सदमात लिखूँ
तख़्त की ख़्वाहिश लूट की लालच कमज़ोरों पर ज़ुल्म का शौक़
लेकिन उन का फ़रमाना है मैं इन को जज़्बात लिखूँ
क़ातिल भी मक़्तूल भी दोनों नाम ख़ुदा का लेते थे
कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ था मेरी क्या औक़ात लिखूँ
अपनी अपनी तारीकी को लोग उजाला कहते हैं
तारीकी के नाम लिखूँ तो क़ौमें फ़िरक़े ज़ात लिखूँ
जाने ये कैसा दौर है जिस में जुरअत भी तो मुश्किल है
दिन हो अगर तो उस को लिखूँ दिन रात अगर हो रात लिखूँ
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kis-liye-kiije-bazm-aaraaii-javed-akhtar-ghazals
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किस लिए कीजे बज़्म-आराई
पुर-सुकूँ हो गई है तंहाई
फिर ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है
फिर ख़यालात ने ली अंगड़ाई
यूँ सुकूँ-आश्ना हुए लम्हे
बूँद में जैसे आए गहराई
इक से इक वाक़िआ' हुआ लेकिन
न गई तेरे ग़म की यकताई
कोई शिकवा न ग़म न कोई याद
बैठे बैठे बस आँख भर आई
ढलकी शानों से हर यक़ीं की क़बा
ज़िंदगी ले रही है अंगड़ाई
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ye-duniyaa-tum-ko-raas-aae-to-kahnaa-javed-akhtar-ghazals
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ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना
न सर पत्थर से टकराए तो कहना
ये गुल काग़ज़ हैं ये ज़ेवर हैं पीतल
समझ में जब ये आ जाए तो कहना
बहुत ख़ुश हो कि उस ने कुछ कहा है
न कह कर वो मुकर जाए तो कहना
बदल जाओगे तुम ग़म सुन के मेरे
कभी दिल ग़म से घबराए तो कहना
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है
न पूरे शहर पर छाए तो कहना
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shahr-ke-dukaan-daaro-kaarobaar-e-ulfat-men-suud-kyaa-ziyaan-kyaa-hai-tum-na-jaan-paaoge-javed-akhtar-ghazals
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शहर के दुकाँ-दारो कारोबार-ए-उल्फ़त में सूद क्या ज़ियाँ क्या है तुम न जान पाओगे
दिल के दाम कितने हैं ख़्वाब कितने महँगे हैं और नक़्द-ए-जाँ क्या है तुम न जान पाओगे
कोई कैसे मिलता है फूल कैसे खिलता है आँख कैसे झुकती है साँस कैसे रुकती है
कैसे रह निकलती है कैसे बात चलती है शौक़ की ज़बाँ क्या है तुम न जान पाओगे
वस्ल का सुकूँ क्या है हिज्र का जुनूँ क्या है हुस्न का फ़ुसूँ क्या है इश्क़ का दरूँ क्या है
तुम मरीज़-ए-दानाई मस्लहत के शैदाई राह-ए-गुम-रहाँ क्या है तुम न जान पाओगे
ज़ख़्म कैसे फलते हैं दाग़ कैसे जलते हैं दर्द कैसे होता है कोई कैसे रोता है
अश्क क्या है नाले क्या दश्त क्या है छाले क्या आह क्या फ़ुग़ाँ क्या है तुम न जान पाओगे
ना-मुराद दिल कैसे सुब्ह-ओ-शाम करते हैं कैसे ज़िंदा रहते हैं और कैसे मरते हैं
तुम को कब नज़र आई ग़म-ज़दों की तन्हाई ज़ीस्त बे-अमाँ क्या है तुम न जान पाओगे
जानता हूँ मैं तुम को ज़ौक़-ए-शाएरी भी है शख़्सियत सजाने में इक ये माहरी भी है
फिर भी हर्फ़ चुनते हो सिर्फ़ लफ़्ज़ सुनते हो उन के दरमियाँ क्या है तुम न जान पाओगे
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nigal-gae-sab-kii-sab-samundar-zamiin-bachii-ab-kahiin-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals
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निगल गए सब की सब समुंदर ज़मीं बची अब कहीं नहीं है
बचाते हम अपनी जान जिस में वो कश्ती भी अब कहीं नहीं है
बहुत दिनों बा'द पाई फ़ुर्सत तो मैं ने ख़ुद को पलट के देखा
मगर मैं पहचानता था जिस को वो आदमी अब कहीं नहीं है
गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख कर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक़ पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है
वो आग बरसी है दोपहर में कि सारे मंज़र झुलस गए हैं
यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है
तुम अपने क़स्बों में जा के देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है
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abhii-zamiir-men-thodii-sii-jaan-baaqii-hai-javed-akhtar-ghazals
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अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाक़ी है
अभी हमारा कोई इम्तिहान बाक़ी है
हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ
मगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है
हमारी उन से जो थी गुफ़्तुगू वो ख़त्म हुई
मगर सुकूत सा कुछ दरमियान बाक़ी है
हमारे ज़ेहन की बस्ती में आग ऐसी लगी
कि जो था ख़ाक हुआ इक दुकान बाक़ी है
वो ज़ख़्म भर गया अर्सा हुआ मगर अब तक
ज़रा सा दर्द ज़रा सा निशान बाक़ी है
ज़रा सी बात जो फैली तो दास्तान बनी
वो बात ख़त्म हुई दास्तान बाक़ी है
अब आया तीर चलाने का फ़न तो क्या आया
हमारे हाथ में ख़ाली कमान बाक़ी है
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mujh-ko-yaqiin-hai-sach-kahtii-thiin-jo-bhii-ammii-kahtii-thiin-javed-akhtar-ghazals
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मुझ को यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं
एक ये दिन जब अपनों ने भी हम से नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं
एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियाँ कहती थीं
एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं
एक ये दिन जब ज़ेहन में सारी अय्यारी की बातें हैं
एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं
एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं
एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं
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dil-men-mahak-rahe-hain-kisii-aarzuu-ke-phuul-javed-akhtar-ghazals
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दिल में महक रहे हैं किसी आरज़ू के फूल
पलकों पे खिलने वाले हैं शायद लहू के फूल
अब तक है कोई बात मुझे याद हर्फ़ हर्फ़
अब तक मैं चुन रहा हूँ किसी गुफ़्तुगू के फूल
कलियाँ चटक रही थीं कि आवाज़ थी कोई
अब तक समाअतों में हैं इक ख़ुश-गुलू के फूल
मेरे लहू का रंग है हर नोक-ए-ख़ार पर
सहरा में हर तरफ़ हैं मिरी जुस्तुजू के फूल
दीवाने कल जो लोग थे फूलों के इश्क़ में
अब उन के दामनों में भरे हैं रफ़ू के फूल
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suukhii-tahnii-tanhaa-chidiyaa-phiikaa-chaand-javed-akhtar-ghazals
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सूखी टहनी तन्हा चिड़िया फीका चाँद
आँखों के सहरा में एक नमी का चाँद
उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चाँद
पहले तू लगती थी कितनी बेगाना
कितना मुबहम होता है पहली का चाँद
कम हो कैसे इन ख़ुशियों से तेरा ग़म
लहरों में कब बहता है नद्दी का चाँद
आओ अब हम इस के भी टुकड़े कर लें
ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद
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ham-ne-dhuunden-bhii-to-dhuunden-hain-sahaare-kaise-javed-akhtar-ghazals
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हम ने ढूँडें भी तो ढूँडें हैं सहारे कैसे
इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे
हाथ को हाथ नहीं सूझे वो तारीकी थी
आ गए हाथ में क्या जाने सितारे कैसे
हर तरफ़ शोर उसी नाम का है दुनिया में
कोई उस को जो पुकारे तो पुकारे कैसे
दिल बुझा जितने थे अरमान सभी ख़ाक हुए
राख में फिर ये चमकते हैं शरारे कैसे
न तो दम लेती है तू और न हवा थमती है
ज़िंदगी ज़ुल्फ़ तिरी कोई सँवारे कैसे
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na-khushii-de-to-kuchh-dilaasa-de-javed-akhtar-ghazals
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न ख़ुशी दे तो कुछ दिलासा दे
दोस्त जैसे हो मुझ को बहला दे
आगही से मिली है तन्हाई
आ मिरी जान मुझ को धोका दे
अब तो तकमील की भी शर्त नहीं
ज़िंदगी अब तो इक तमन्ना दे
ऐ सफ़र इतना राएगाँ तो न जा
न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे
तर्क करना है गर तअ'ल्लुक़ तो
ख़ुद न जा तू किसी से कहला दे
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shukr-hai-khairiyat-se-huun-saahab-javed-akhtar-ghazals
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शुक्र है ख़ैरियत से हूँ साहब
आप से और क्या कहूँ साहब
अब समझने लगा हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ
अब कहाँ मुझ में वो जुनूँ साहब
ज़िल्लत-ए-ज़ीस्त या शिकस्त-ए-ज़मीर
ये सहूँ मैं कि वो सहूँ साहब
हम तुम्हें याद करते रो लेते
दो-घड़ी मिलता जो सुकूँ साहब
शाम भी ढल रही है घर भी है दूर
कितनी देर और मैं रुकूँ साहब
अब झुकूँगा तो टूट जाऊँगा
कैसे अब और मैं झुकूं साहब
कुछ रिवायात की गवाही पर
कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब
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mere-dil-men-utar-gayaa-suuraj-javed-akhtar-ghazals
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मेरे दिल में उतर गया सूरज
तीरगी में निखर गया सूरज
दर्स दे कर हमें उजाले का
ख़ुद अँधेरे के घर गया सूरज
हम से वा'दा था इक सवेरे का
हाए कैसा मक्र गया सूरज
चाँदनी अक्स चाँद आईना
आईने में सँवर गया सूरज
डूबते वक़्त ज़र्द था उतना
लोग समझे कि मर गया सूरज
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yaqiin-kaa-agar-koii-bhii-silsila-nahiin-rahaa-javed-akhtar-ghazals
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यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा
तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा
न हिज्र है न वस्ल है अब इस को कोई क्या कहे
कि फूल शाख़ पर तो है मगर खिला नहीं रहा
ख़ज़ाना तुम न पाए तो ग़रीब जैसे हो गए
पलक पे अब कोई भी मोती झिलमिला नहीं रहा
बदल गई है ज़िंदगी बदल गए हैं लोग भी
ख़ुलूस का जो था कभी वो अब सिला नहीं रहा
जो दुश्मनी बख़ील से हुई तो इतनी ख़ैर है
कि ज़हर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा
लहू में जज़्ब हो सका न इल्म तो ये हाल है
कोई सवाल ज़ेहन को जो दे जला नहीं रहा
|
dil-kaa-har-dard-kho-gayaa-jaise-javed-akhtar-ghazals
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दिल का हर दर्द खो गया जैसे
मैं तो पत्थर का हो गया जैसे
दाग़ बाक़ी नहीं कि नक़्श कहूँ
कोई दीवार धो गया जैसे
जागता ज़ेहन ग़म की धूप में था
छाँव पाते ही सो गया जैसे
देखने वाला था कल उस का तपाक
फिर से वो ग़ैर हो गया जैसे
कुछ बिछड़ने के भी तरीक़े हैं
ख़ैर जाने दो जो गया जैसे
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Subsets and Splits
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