Hindi
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Sanskrit
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वेद के शाखा भेद के अनुसार ही आहुति के समय का भी भेद किया गया है।
वेदस्य शाखाभेदानुसारम्‌ आहुतेः समयस्य भेदः कृतः वर्तते।
अर्थात्‌ श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयों को छोड़कर अन्यों से इन्द्रियों का निवर्तन करना चाहिए।
श्रवणादिविषयान्‌ विहाय अन्येभ्यः इन्द्रियाणां निवर्तनं कर्तव्यम्‌ इति फलितार्थः।
कर्म यदि निष्काम भावना से हमारे द्वारा हो जाएँ तो हमें उन्हीं कर्मों से मोक्ष की भी प्राप्ति हो सकती हे।
यस्मात्‌ कर्म कर्तव्यम्‌ एव तस्मात्‌ यदि निष्कामतया कर्म अस्माभिः कर्तुं शक्यते तर्हि तत्‌ मोक्षाय कल्पते।
15. पुरुशब्द सेसप्तमी अर्थ में त्राप्रत्यय करने पर।
15. पुरुशब्दात्‌ सप्तम्यर्थे त्राप्रत्यये।
इस मन्त्र का यह अर्थ है - कभी उषा भाई रहित बहिन के समान अपने दायभाग को प्राप्त करने के लिए पितृ स्थानीय सूर्य के समीप आती है।
अस्य मन्त्रस्य अयम्‌ अर्थः - कदाचिद्‌ उषा भ्रातृहीना भगिनी इव स्वदायभागं प्राप्तु पितृस्थानीयस्य सूर्यस्य समीपम्‌ आगच्छति।
अथवा ये पुरुष ब्रह्माण्ड गोलकरूप भूमि में सभी ओर से ऊर्ध्व और अधोरूप में व्याप्त होकर विराजित है।
अथवा ब्रह्माण्डगोलकरूपां भूमिं सर्वतः तिर्यक्‌ ऊर्ध्वम्‌ अधश्च व्याप्य विराजते पुरुषोऽयम्‌।
उदाहरण - न संख्यायाः इस सूत्र में प्रकृत सूत्र से विहित आदिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद का अधिकार होता है।
उदाहरणम्‌- न संख्यायाः इति सूत्रे प्रकृतसूत्रेण विहितः आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अधिकृतं भवति।
अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यमनित्यसमासे इस सूत्र से किसका विधान है?
अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यमनित्यसमासे इति सूत्रेण किं विधीयते?
छात्र भारत की अति प्राचीन भारतीय ज्ञान संपदा , वैज्ञानिकता और सर्वजन उपकार की महिमा को गर्व के साथ संसार में प्रसारित करें।
अति प्राचीनाया भारतीयज्ञानसम्पदः वैज्ञानिकतां सर्वजनोपकारितां महिमानं च सगर्वं जगति प्रसारयेत्‌ छात्रः।
जैसे ऋग्वेद में रुद्र के संहारक होने का अधिकवर्णन है।
यथा ऋग्वेदे रुद्रस्य संहारत्वेन अधिकवर्णना अस्ति।
इच्छित फल के लिए यज्ञ याग उपासना आदि जो कार्य करते हैं, अशुद्ध उच्चारण से उस कार्य से विशिष्ट लाभ कभी भी नहीं होता है।
इष्टलाभाय यज्ञयागोपासनादिकं यत्कार्यं क्रियते, अशुद्धेन उच्चारणेन तस्मात्‌ कार्यात्‌ विशिष्टलाभो न कदापि सञ्जायते।
साधक को साधना के द्वारा फल की प्राप्ति हो अतः इसके लिए उस फल की स्पष्टता आवश्यक है।
साधकः साधनेन किं फलं लभेत इति विषये तस्य स्पष्टता आवश्यकी।
तथा जो बहुत अधिक प्रयासरत है,कार्य में लग्न , वह योगी पुरुष अनेक जन्मों से परिशुद्ध होता हुआ उस परम गति को प्राप्त करता है।
प्रयत्नात्‌ - बहुयत्नेन। यतमानः प्रवर्तमानः, कार्ये लग्नः इत्यर्थः। योगी योगवान्‌ पुरुषः तु अनेकजन्मसंसिद्धः नानाजन्मसु परिशुद्धः याति गच्छति प्राप्नोति इति।
उनको यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
तदेवात्र प्रस्तूयते।
जातवेदा स्तुतो मध्ये स्तुतो वैश्वानरो दिवि॥
जातवेदा स्तुतो मध्ये स्तुतो वैश्वानरो दिवि॥
वह मछलियों में सबसे विशाल मछली हुई।
स मत्स्येषु बृहत्तमः अभवत्‌।
क्योंकि मरण काल में फल देने के लिए अनङकुरीभूत कर्मो के अगले जन्म में अन्यकर्म आरब्ध होने पर वे उपभुज्य नहीं होते हैं इस प्रकार की उपपत्ति होती है।
न हि मरणकाले फलदानाय अनङ्कुरीभूतस्य कर्मणः फलम्‌ अन्यकर्मारब्धे जन्मनि उपभुज्यते इति उपपत्तिः।
प्रत्येक दिन तथा सम्पूर्ण जीव जन्तु कर्म में रत रहता है।
आदिनम्‌ आजीवनं च जन्तुः कर्मरतः।
रुद्र के वर्णन में भी उसका सभी स्वरूप प्रकट किया है।
रुद्रस्यापि वर्णनायां तस्य सर्वस्वरूपता प्रकटिता।
वैसे ही सातवें मन्त्र में कहा गया है असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
तथा हि सप्तममन्त्रे असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
शरीरादि में आत्मभावना तथा विपरीतभावना होती है।
शरीरादौ आत्मत्वभावना विपरीतभावना।
सङ्कल्पविकल्पात्मक अन्तःकरण चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा निकलकर के घटादिविषय देश की और जाकर के घटादिविषयाकार के द्वारा जब परिणमित होता है तब वह परिणामविशेष वेदान्त वृत्ति कहलाती हे।
सङ्कल्पविकल्पात्मकम्‌ अन्तःकरणं चक्षुरादिभिः इन्द्रियैः निर्गत्य घटादिविषयदेशं प्रति गत्वा घटादिविषयाकारेण यदा परिणमते तदा स परिणामविशेषः वेदान्ते वृत्तिरुच्यते।
थोड़ी सी शक्ति वाले मनुष्य का एक साथ ऊपर और नीचे होना सम्भव नहीं है।
क्षुद्रशक्तिमतः ससीमस्य मानवस्य युगपत्‌ ऊर्ध्वम्‌ अधः च अवस्थानं न सम्भवम्‌।
स्वरितः यह प्रथमान्त होने से इसका ही विधायक है।
स्वरितः इत्यस्य प्रथमान्तत्वाद्‌ अस्यैव विधायकत्वम्‌।
योगीयों के प्रत्याहार की सिद्धि होने पर इन्द्रियाँ उनके वशीभूत हो जाती हैं।
योगिनः प्रत्याहारसिद्धौ इन्द्रियाणि तस्य परमवश्यानि भवन्ति।
होता हि यज्ञ का आवाहन कर्त्ता है।
होता हि यज्ञस्य आह्वानकर्त्ता।
प्रसङ्ग के अनुसार ही उन अलङऱकारों का प्रयोग किया जाता है।
प्रसङ्गानुसारम्‌ एव तेन अलङ्काराणां व्यवहारः क्रियते।
ब्रह्म सत्य है तथा जगत्‌ मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म के अलावा और कुछ भी नहीं यह अद्वैत का प्रतिपाद्य विषय है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर इति भवति अद्वैतस्य मुख्यं प्रतिपाद्यम्‌।
तत्पुरुष यह सप्तम्यन्त पद है।
तत्पुरुषे इति सप्तम्यन्तं पदम्‌।
जैसे भ्रान्तिकाल में ही रज्जु में प्रतीत सर्प की सत्ता होती है।
यथा भ्रान्तिकाले एव रज्जौ प्रतीतस्य सर्पस्य सत्ता।
और अन्यों के मत से पाणिनि के सूत्र विचित्र होते हैं इसको बताने के लिए यहाँ कार शब्द का ग्रहण किया है।
अन्येषां च मतेन पाणिनेः सूत्रं विचित्रं भवति इति ज्ञापनार्थम्‌ अत्र कारशब्दस्य ग्रहणं कृतम्‌।
इससे ही ज्ञात होता है कि महाभाष्य काल में इस संहिता की विशिष्ट ख्याति थी।
अनेन एव ज्ञातो भवति यद्‌ महाभाष्यकाले अस्याः संहितायाः विशिष्टा ख्यातिः आसीद्‌ इति।
और जो देखते है।
यश्च विपश्यति।
कर्ष धातु को और आकार युक्त धातु को यह अर्थ है।
कर्षधातोः आकारयुक्तस्य धातोः च इत्यर्थः।
दूसरी जगह कठ-तैत्तरीय-मैत्रायण शाखा के ब्राह्मण उदय के बाद में ही होम करें ऐसा विधान हेै।
अपरत्र कठ-तैत्तिरीय-मैत्रायणशाखानां ब्राह्मणाः उदयात्‌ परमेव होमं कुर्युः।
जिसमे सामवेद प्रतिष्ठित है।
यस्मिन्‌ साम सामानि प्रतिष्ठितानि।
इसके बाद “ आद्गुणः'' सूत्र से अकार का और उकार के स्थान पर एकार एकादेश होने पर निष्पन्न नीलोत्पलशब्द का एकदेशविकृत न्याय से प्रातिपदिकत्व होने पर “परवाल्लिंङ्ग द्वन्दतत्पुरुषयोः'' इस सूत्र से नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान से इसके बाद सु प्रत्यय होने पर सु का अम्‌ होने पर विभक्ति कार्य होने पर नीलोत्पलम्‌ रूप सिद्ध होता है।
ततः "आदू गुणः" इति सूत्रेण अकारस्य उकारस्य च स्थाने एकारे एकादेशे निष्पन्नस्य नीलोत्पलशब्दस्य एकदेशविकृतन्यायेन प्रातिपदिकत्वात्‌ "परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः" इति सूत्रेण नपुंसके लिङ्गे वर्तमानात्‌ ततः सौ, सोरमि विभक्तिकार्य नीलोत्पलम्‌ इति रूपं सिद्धम्‌ ।
अतः यहाँ उदात्त स्वरो का ही समावेश दिखाई देता है।
अतः अत्र उदत्तस्वराणामेव समावेशः दृश्यते।
अर्थ और उदाहरण के साथ उनकी व्याख्या कीजिये?
अर्थोदाहरणैः सह तानि व्याख्यात।
स्वरित स्वर का विधान है।
स्वरितस्वरः विधीयते।
अतः इस सूत्र का अर्थ होता है - यत शब्द से परे ही शब्द से परे तु शब्द से परे तिङन्त को छन्द विषय में अनुदात्त नहीं होता है।
अतः सूत्रस्य अस्य अर्थः भवति- यच्छब्दात्‌ परं हिशब्दात्‌ परं तुशब्दात्‌ परं तिङन्तं छन्दसि विषये अनुदात्तं न भवति इति।
और ये अनुदात्त है।
एते च अनुदात्ताः सन्ति।
नारदीयशिक्षा- यह शिक्षा ग्रन्थ सामवेद से सम्बद्ध है।
नारदीयशिक्षा- अयं शिक्षाग्रन्थः सामवेदेन सम्बद्धः अस्ति।
तब तक संचित कर्म प्रारब्धत्व के रूप में परिणित होते जाते है।
तावत्‌ संचितं प्रारब्धत्वेन परिणमते।
मनोगत भावों को प्रकट करने के लिए क्या आवश्यक होते हैं?
मनोगतभावानां प्रकाशाय के आवश्यकाः भवन्ति?
बहुमास्य यहाँ पर पूर्वपद को प्रकृति स्वर होने का विधान बह्वन्यतरस्याम्‌ इस सूत्र से है।
बहुमास्य इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं बह्वन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रेण विधीयते।
उसी प्रकार से ज्ञान होता है।
तथा ज्ञानम्‌।
भले ही ऋग्वेदीय विषय समन्वय तत्व रूप में था फिर भी आधुनिक काल में श्रीरामकृष्ण के द्वारा ही प्रत्यक्षानुभूति के द्वारा इसकी सत्यता प्रमाणित की गई है।
यद्यपि ऋग्वेदीया ऋषय एव समन्वयतत्त्वं निरुचुः, तथापि आधुनिककाले श्रीरामकृष्णदेवेन एव प्रत्यक्षानुभूतिद्वारा अस्य सत्यता प्रमाणिता।
तब वहाँ उपस्थित शिष्य के लिए गुरु करुणा के उपदेश देते हैं- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्‌ प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
तदा तथा उपस्थिते शिष्याय गुरुः उपदिशति परकरुणया- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्‌ प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
अक्षतः - क्षत्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर क्षतः यह रूप बना।
अक्षतः- क्षत्‌-धातोः क्तप्रत्यये क्षतः इति रूपम्‌।
कोई भी धर्म कुकर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का उपदेश नहीं देता है।
न हि कश्चित्‌ धर्मः कुकर्मणा ईश्वरावाप्तिम्‌ उपदिशति।
एक ही ईश्वर स्वयं बहुत प्रकार से प्रकाशित करता है यहाँ पर श्रुति का क्या प्रमाण है?
एक एव ईश्वरः आत्मानं बहुधा प्रकाशयति- इत्यत्र श्रुतिप्रमाणं किम्‌?
भारतीय ज्योतिष शास्त्र का यह आदि ग्रन्थ है।
भारतीयस्य ज्यौतिषशास्त्रस्य अयम्‌ आद्यः ग्रन्थः।
अविनाशीस्वरूप अनुभवरूप प्रज्ञा जिसकी होती है वह प्रज्ञ होता है तथा कुछ के मत में प्रज्ञ ही प्राज्ञ होता है।
अविनाशिस्वरूपानुभवरूपा प्रज्ञा यस्य भवति सः प्रज्ञः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः इति केषाञ्चित्‌ मतम्‌।
अणु मन से आद्यकर्मारम्भ के उपगम के कारण ऐसा भी नियम नहीं है की वह एक अनेकों के द्वारा आरम्भ होता है।
नापि अनेकमेवारभ्यते, नैकम्‌ इति नियमोऽस्ति, अणुमनसोः आद्यकर्मारम्भाभ्युपगमात्‌।
परमार्थतः उन दोनों में अभेद कथन के लिए लब्धूलब्धव्य भाव कहा गया है।
परमार्थतः तयोरभेदकथनाय लंब्धृलब्धव्यभावः कथितः।
उनमें अन्यतम सम्बन्ध है।
तेषु अन्यतमः सम्बन्धः।
नित्यादि कर्म चित्त के मल के नाशक होते हैं तथा चित्त की एकाग्रता को सम्पादित नहीं करते हैं।
नित्यादिकर्माणि चित्तमलं नाशयन्ति। चित्तैग्रतां न कुर्वन्ति।
इसलिए भ्रान्ति का बाध करने पर जीवत्व का भी बाध होता है।
अतः भ्रान्तिबाधे जीवत्वमपि बाध्यते।
वहाँ याग विषय पर अङ्क सहित विवेचना भी प्रस्तुत की है।
तत्र यागविषयकं साङ्कोपाङ्गम्‌ अपि प्रस्तूयते।
जीव को स्वयं का ज्ञान नहीं होता है।
जीवस्य स्वयं क इति ज्ञानं नास्ति।
विह्गऊर्ध्व को जहाँ जाते है, दिक्चक्र वाले पोत जहां जाते है, सब वह देखता है।
विहगाः ऊर्ध्वं यत्र यान्ति, दिक्चक्रवाले पोताः यत्र यान्ति, सर्वं स पश्यति।
विशिष्टरूप से बंधे हुए जलपात्र को नीचे की और मुख करके जल को खोलो।
विशिष्टरूपेण बद्धं जलपात्रम्‌ अधोमुखीकृत्य जलं पिन्वताम्‌ ।
अतः प्रकृत सूत्र से चादिगण में पढ़े हुए उत इस निपात के आदि में उकार को अनुदात्त करने का विधान है।
अतः प्रकृतसूत्रेण चादिगणे पठितस्य उत इति निपातस्य आदेः उकारस्य अनुदात्तत्वं विधीयते।
भक्ति के विषय में यह शाण्डिल्य सूत्र है “सा परानुरक्तिरीश्वरे” इस प्रकार से अविच्छिन्न तैलधारा के समान ध्येय ईश्वर के निरन्तर स्मरण के द्वारा बन्धनों का नाश हो जाता है।
भक्तिविषये शाण्डिलसूत्रं हि "सा परानुरक्तिरीश्वरे” इति। अविच्छिन्नतैलधारावत्‌ ध्येयस्य ईश्वरस्य निरन्तरं स्मरणेन हि बन्धनं नश्यति।
जिगीवांसः - जि-धातु से क्वसुन्प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में जिगीवांसः: रूप बना।
जिगीवांसः- जि-धातोः क्वसुन्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने जिगीवांसः इति रूपम्‌।
अकार के लुप्त होने पर जो अज्‌च्‌ धातु है उस अञ्च्‌ धातु के परे होने पर पूर्व का अन्त उदात्त होता है 'चौ' इस सूत्र का अर्थ है।
अकारः लुप्तः जातः एवं यः अञ्चधातुः तस्मिन्‌ अञ्चधातौ परे सति पूर्वस्य अन्तोदात्तः भवति इति 'चौ' इति सूत्रार्थः।
आकाश को सृजित करके तेज की सृष्टि करी यह भी विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ पर भी बहुत से विरोध हैं।
आकाशं सृष्ट्वा तेजः सृष्टि इति विकल्पोऽपि न सम्भवति इति सन्ति विरोधाः।
वहाँ प्रत्येक दर्शनों में अपने मत अनुसार वेद के प्रमाण को कैसे स्वीकार करें उसकी आलोचना किया है।
तत्र प्रत्येकं दर्शनेषु स्वमतानुसारं वेदस्य प्रामाण्यं कथम्‌ अङ्गीकृतं तत्‌ आलोचितं वर्तते।
संस्कृत व्याकरण में पाँच वृत्तियाँ होती हैं।
संस्कृतव्याकरणे पञ्च वृत्तयः सन्ति।
निरन्तर गमन करना।
सततगन्ता।
इस सूत्र से संज्ञा में ही दिशासंख्या वाचकों को सुबन्त के साथ समानाधिकरणतत्पुरुष समास होने का नियम है।
अनेन सूत्रेण संज्ञायामेव दिशासंख्यावाचकयोः सुबन्तेन सह समानाधिकरणतत्पुरुषसमासः इति नियम्यते।
दधतः - धाधातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।
दधतः - धाधातोः शतृप्रत्यये प्रथमाबहुवचने ।
3. छः प्रकार के लिङग कौन-कौन है?
३. षड्विधानि लिङ्गानि कानि?
पाणिनि पाण्डुपुत्र अर्जुन से परवर्त्ती सिद्ध होते है।
पाणिनिः पाण्डुपुत्राद्‌ अर्जुनात्‌ परवर्त्ती सिद्धो भवति।
वेदान्त वाक्यों को हम सामाजिक जीवन तथा व्यवहारिक जीवन में किस प्रकार से प्रयोग करें इसका पूर्ण रूप से वर्णन कर के उन्होंने इसे अपने जीवन में भी धारण किया।
वेदान्तवाक्यानि एव आश्रित्य समाजजीवने अस्माकं व्यवहारे च तानि कथं प्रयोक्तव्यानि, येन अस्माकम्‌ आत्मिकी वैषयिकी च समुन्नतिः स्यात्‌ इति भूयो भूयो दर्शितम्‌।
14. “तत्त्वमसि” इस महावाक्य में लक्षणा सम्भव है अथवा नहीं वेदान्तपरिभाषाकार के मतानुसार विचार उपस्थापित कोजिए।
१४. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये लक्षणा सम्भवति न वा इति वेदान्तपरिभाषाकारस्य मतानुसारेण विचारः उपस्थाप्यताम्‌?
अतः उगिदन्त प्रातिपदिक से पचत्‌ इससे उगितश्च सूत्र से ङीप्‌ प्रत्यय होता है।
अतः उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ पचत्‌ इत्यतः उगितश्च इति सूत्रेण ङीप्प्रत्ययःभवति।
तब वहाँ पर वैराग्य को धारण करना चाहिए।
तदा तत्र वैराग्यमापादनीयम्‌।
श्रवः इसका क्या अर्थ है?
श्रवः इत्यस्य कः अर्थः?
यहाँ पर छः ही मन्त्र है, और इसका विषय पूर्व से ही कम होने पर भी इस सूक्त का अत्यन्त महत्व है।
अत्र षड्‌ एव मन्त्राः सन्ति, किञ्च अस्य विषयस्यापूर्वत्वेन स्वल्पकायम्‌ अपि इदं सूक्तं अतीव माहात्म्यम्‌ बभर्ति।
वहाँ अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
तत्र अन्यं प्रमाणम्‌ न अपेक्ष्यते।
55. पदार्थ के अनतिवृत्ति में अव्ययीभाव समास का उदाहरण लिखो?
५५. पदार्थानतिवृत्तौ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं लिखत।
अतः वैदिक ज्ञान आज भी भ्रम रहित है।
अत एव वैदिकज्ञानम्‌ अद्यापि भ्रमरहितं वर्तते।
पूषा भी इसका भाई कहलाता हैं।
पूषा अपि अस्य भ्राता इत्युच्यते।
ध्यान दे: बाह्यप्रपञ्च के अनुभव के अभास से यह वह अन्तः प्रज्ञ भी होता है।
बाह्यप्रपञ्चानुभवाभावात्‌ स अन्तःप्रज्ञः भवति।
ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में श्रृंगार रस का उल्लेख प्राप्त होता है।
ऋग्वेदस्य अनेकेषु सूक्तेषु शृङ्गाररसस्य उल्लेखः प्राप्यते।
बेद की रक्षा के लिए व्याकरण अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
वेदस्य रक्षार्थं व्याकरणस्य अध्ययनम्‌ अत्यावश्यकम्‌।
वह मन सामान्य विशेषज्ञान का बोध कराता है, यह सिद्ध होता है।
तेन मनः सामान्यविशेषज्ञानजनकम्‌ इति सिद्ध्यति।
इस सूक्त में सम्पूर्ण रूप से दश मन्त्र है।
अस्मिन्‌ सूक्ते साकल्येन दश मन्त्राः सन्ति ।
तत्पुरुष पाठ में सामान्यतत्पुरुष विधायक आठ सूत्र उल्लेखित हैं।
तत्पुरुषपाठे सामान्यतत्पुरुषविधायकानि अष्टौ सूत्राणि समुल्लिखितानि।
सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का दसवाँ मन्त्र है।
सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य दशमो मन्त्रः।
उसके बाद यह समझाया जाता है कि अन्नमय आत्मा नहीं हो सकती है, अपितु उसके अन्तर्गत विद्यमान प्राणमय कोश ही आत्मा होती है फिर उसके बाद में इसका भी निरास करवाकर के यह कहा जाता है की प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं होती है अपितु वर्तमान मनोमय कोश ही आत्मा है।
तदुत्तरम्‌ अन्नमयः नात्मा भवितुमर्हति, तदन्तः विद्यमानः प्राणमयकोश एव आत्मा इति बोधयति। तदुत्तरं प्राणमयः अपि नात्मा इत्युक्त्वा तदन्तः वर्तमानः मनोमय आत्मा इति बोधयति।
कुछ अंश रूप में महाराष्ट्र प्रदेश और सम्पूर्ण रूप में आन्ध्र, कर्नाटक प्रदेश इस शाखा का अनुयायी है।
आंशिकरूपेण महाराष्ट्रप्रदेशीयाः समग्ररूपेण च अन्श्रद्रविडदेशीयाः अस्याः शाखायाः अनुयायिनः सन्ति।
सूत्र का अवतरण- प्रकार आदि शब्दों के दो बार कहने पर वहाँ दूसरे प्रकार आदि शब्द के अन्त स्वर को उदात्त होने का विधान करने के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।
सूत्रावतरणम्‌- प्रकारादि शब्दानां द्विरुक्तौ तत्र द्वितीयस्य प्रकारादिशब्दस्य अन्तस्य स्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण।
वहाँ पर यह दोनों दृष्टान्त हैं।
तत्रोभयत्र दृष्टान्तः।
उसका कर्ता आत्मवान कहलाता हैं ।
तस्य कर्ता आत्मविद्‌।
अर्थात अग्नि में डाली जाती है।
आहवनीये प्रक्षिप्यते।
यहाँ “पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन'' इस सूत्र से समानाधिकरणेन पद की अनुवृत्ति होती है।
अत्र "पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन" इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति पदम्‌ अनुवर्तते।
वह ही ही उत्पन्न होता है और वह ही उत्पन्न होगा।
सः एव उत्पन्नः भवति किञ्च स एव उत्पन्नः भविष्यति।