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थायस ने स्वाधीन, लेकिन निर्धन और मूर्तिपूजक मातापिता के घर जन्म लिया था। जब वह बहुत छोटीसी लड़की थी तो उसका बाप एक सराय का भटियारा था। उस सराय में परायः मल्लाह बहुत आते थे। बाल्यकाल की अशृंखल, किन्तु सजीव स्मृतियां उसके मन में अब भी संचित थीं। उसे अपने बाप की याद आती थी जो पैर पर पैर रखे अंगीठी के सामने बैठा रहता था। लम्बा, भारीभरकम, शान्त परकृति का मनुष्य था, उन फिर ऊनों की भांति जिनकी कीर्ति सड़क के नुक्कड़ों पर भाटों के मुख से नित्य अमर होती रहती थी। उसे अपनी दुर्बल माता की भी याद आती थी जो भूखी बिल्ली की भांति घर में चारों ओर चक्कर लगाती रहती थी। सारा घर उसके तीक्ष्ण कंठ स्वर में गूंजता और उसके उद्दीप्त नेत्रों की ज्योति से चमकता रहता था। पड़ोस वाले कहते थे, यह डायन है, रात को उल्लू बन जाती है और अपने परेमियों के पास उड़ जाती है। यह अफीमचियों की गप थी। थामस अपनी मां से भलीभांति परिचित थी और जानती थी कि वह जादूटोना नहीं करती। हां, उसे लोभ का रोग था और दिन की कमाई को रातभर गिनती रहती थी। असली पिता और लोभिनी माता थायस के लालनपालन की ओर विशेष ध्यान न देते थे। वह किसी जंगली पौधे के समान अपनी बा़ से ब़ती जाती थी। वह मतवाले मल्लाहों के कमरबन्द से एकएक करके पैसे निकालने में निपुण हो गयी। वह अपने अश्लील वाक्यों और बाजारी गीतों से उनका मनोरंजन करती थी, यद्यपि वह स्वयं इनका आशय न जानती थी। घर शराब की महक से भरा रहता था। जहांतहां शराब के चमड़े के पीपे रखे रहते थे और वह मल्लाहों की गोद में बैठती फिरती थी। तब मुंह में शराब का लसका लगाये वह पैसे लेकर घर से निकलती और एक बुयि से गुलगुले लेकर खाती। नित्यपरति एक ही अभिनय होता रहता था। मल्लाह अपनी जानजोखिम यात्राओं की कथा कहते, तब चौसर खेलते, देवताओं को गालियां देते और उन्मत्त होकर 'शराब, शराब, सबसे उत्तम शराब !' की रट लगाते। नित्यपरति रात को मल्लाहों के हुल्लड़ से बालिका की नींद उचट जाती थी। एकदूसरे को वे घोंघे फेंककर मारते जिससे मांस कट जाता था और भयंकर कोलाहल मचता था। कभी तलवारें भी निकल पड़ती थीं और रक्तपात हो जाता था। थायस को यह याद करके बहुत दुःख होता था कि बाल्यावस्था में यदि किसी को मुझसे स्नेह था तो वह सरल, सहृदय अहमद था। अहमद इस घर का हब्शी गुलाम था, तवे से भी ज्यादा काला, लेकिन बड़ा सज्जन, बहुत नेक जैसे रात की मीठी नींद। वह बहुधा थामस को घुटनों पर बैठा लेता और पुराने जमाने के तहखानों की अद्भुत कहानियां सुनाता जो धनलोलुप राजेमहाराजे बनवाते थे और बनवाकर शिल्पियों और कारीगरों का वध कर डालते थे कि किसी को बता न दें। कभीकभी ऐसे चतुर चोरों की कहानियां सुनाता जिन्होंने राजाओं की कन्या से विवाह किया और मीनार बनवाये। बालिका थायस के लिए अहमद बाप भी था, मां भी था, दाई था और कुत्ता भी था। वह अहमद के पीछेपीछे फिरा करती; जहां वह जाता, परछाईं की तरह साथ लगी रहती। अहमद भी उस पर जान देता था। बहुत रात को अपने पुआल के गद्दे पर सो
ने के बदले बैठा हुआ वह उसके लिए कागज के गुब्बारे और नौकाएं बनाया करता। अहमद के साथ उसके स्वामियों ने घोर निर्दयता का बर्ताव किया था। एक कान कटा हुआ था और देह पर कोड़ों के दागही-दाग थे। किन्तु उसके मुख पर नित्य सुखमय शान्ति खेला करती थी और कोई उससे न पूछता था कि इस आत्मा की शान्ति और हृदय के सन्टोष का स्त्रोत कहां था। वह बालक की तरह भोला था। काम करतेकरते थक जाता तो अपने भद्दे स्वर में धार्मिक भजन गाने लगता जिन्हें सुनकर बालिका कांप उठती और वही बातें स्वप्न में भी देखती। 'हमसे बात मेरी बेटी, तू कहां गयी थी और क्या देखा था ?' 'मैंने कफन और सफेद कपड़े देखे। स्वर्गदूत कबर पर बैठे हुए थे और मैंने परभु मसीह की ज्योति देखी। थायस उससे पूछती-'दादा, तुम कबर में बैठै हुए दूतों का भजन क्यों गाते हो।' अहमद जवाब देता-'मेरी आंखों की नन्ही पुतली, मैं स्वर्गदूतों के भजन इसलिए गाता हूं कि हमारे परभु मसीह स्वर्गलोक को उड़ गये हैं।' अहमद ईसाई था। उसकी यथोचित रीति से दीक्षा हो चुकी थी और ईसाइयों के समाज में उसका नाम भी थियोडोर परसिद्ध था। वह रातों को छिपकर अपने सोने के समय में उनकी संगीतों में शामिल हुआ करता था। उस समय ईसाई धर्म पर विपत्ति की घटाएं छाई हुई थीं। रूस के बादशाह की आज्ञा से ईसाइयों के गिरजे खोदकर फेंक दिये गये थे, पवित्र पुस्तकें जला डाली गयी थीं और पूजा की सामगिरयां लूट ली गयी थीं। ईसाइयों के सम्मानपद छीन लिये गये थे और चारों ओर उन्हें मौतही-मौत दिखाई देती थी। इस्कन्द्रिया में रहने वाले समस्त ईसाई समाज के लोग संकट में थे। जिसके विषय में ईसावलम्बी होने का जरा भी सन्देह होता, उसे तुरन्त कैद में डाल दिया जाता था। सारे देश में इन खबरों से हाहाकार मचा हुआ था कि स्याम, अरब, ईरान आदि स्थानो
ं में ईसाई बिशपों और वरतधारिणी कुमारियों को कोड़े मारे गये हैं, सूली दी गयी हैं और जंगल के जानवरों के समान डाल दिया गया है। इस दारुण विपत्ति के समय जब ऐसा निश्चय हो रहा था कि ईसाइयों का नाम निशान भी न रहेगा; एन्थोनी ने अपने एकान्तवास से निकलकर मानो मुरझाये हुए धान में पानी डाल दिया। एन्थोनी मिस्त्रनिवासी ईसाइयों का नेता, विद्वान्, सिद्धपुरुष था, जिसके अलौकिक कृत्यों की खबरें दूरदूर तक फैली हुई थीं। वहआत्मज्ञानी और तपस्वी था। उसने समस्त देश में भरमण करके ईसाई सम्परदाय मात्र को श्रद्घा और धमोर्त्साह से प्लावित कर दिया। विधर्मियों से गुप्त रहकर वह एक समय में ईसाइयों की समस्त सभाओं में पहुंच जाता था, और सभी में उस शक्ति और विचारशीलता का संचार कर देता था जो उसके रोमरोम में व्याप्त थी। गुलामों के साथ असाधारण कठोरता का व्यवहार किया गया था। इससे भयभीत होकर कितने ही धर्मविमुख हो गये, और अधिकांश जंगल को भाग गये। वहां या तो वे साधु हो जायेंगे या डाके मारकर निवार्ह करेंगे। लेकिन अहमद पूर्ववत इन सभाओं में सम्मिलित होता, कैदियों से भेंट करता, आहत पुरुषों का क्रियाकर्म करता और निर्भय होकर ईसाई धर्म की घोषणा करता था। परतिभाशाली एन्थोनी अहमद की यह दृ़ता और निश्चलता देखकर इतना परसन्न हुआ कि चलते समय उसे छाती से लगा लिया और बड़े परेम से आशीवार्द दिया। जब थायस सात वर्ष की हुई तो अहमद ने उसे ईश्वरचचार करनी शुरू की। उसकी कथा सत्य और असत्य का विचित्र मिश्रण लेकिन बाल्यहृदय के अनुकूल थी। ईश्वर फिरऊन की भांति स्वर्ग में, अपने हरम के खेमों और अपने बाग के वृक्षों की छांह में रहता है। वह बहुत पराचीन काल से वहां रहता है, और दुनिया से भी पुराना है। उसके केवल एक ही बेटा है, जिसका नाम परभु ईसू है। वह स्वर्ग के दूतों से और रमणी युवतियों से भी सुन्दर है। ईश्वर उसे हृदय से प्यार करता है। उसने एक दिन परभु मसीह से कहा-'मेरे भवन और हरम, मेरे छुहारे के वृक्षों और मीठे पानी की नदियों को छोड़कर पृथ्वी पर जाओ और दीनदुःखी पराणियों का कल्याण करो ! वहां तुझे छोटे बालक की भांति रहना होगा। वहां दुःख हो तेरा भोजन होगा और तुझे इतना रोना होगा कि तुझे आंसुओं से नदियां बह निकलें, जिनमें दीनदुःखी जन नहाकर अपनी थकन को भूल जाएं। जाओ प्यारे पुत्र !' परभु मसीह ने अपने पूज्य पिता की आज्ञा मान ली और आकर बेथलेहम नगर में अवतार लिया। वह खेतों और जंगलों में फिरते थे और अपने साथियों से कहते थे-मुबारक हैं वे लोग जो भूखे रहते हैं, क्योंकि मैं उन्हें अपने पिता की मेज पर खाना खिलाऊंगा। मुबारक हैं वे लोग जो प्यासे रहते हैं, क्योंकि वह स्वर्ग की निर्मल नदियों का जल पियेंगे और मुबारक हैं वे जो रोते हैं, क्योंकि मैं अपने दामन से उनके आंसू पोंछूंगा। यही कारण है कि दीनहीन पराणी उन्हें प्यार करते हैं और उन पर विश्वास करते हैं। लेकिन धनी लोग उनसे डरते हैं कि कहीं यह गरीबों को उनसे ज्यादा धनी न बना दें। उस समय क्लियोपेट्रा और सीजर
पृथ्वी पर सबसे बलवान थे। वे दोनों ही मसीह से जलते थे, इसीलिए पुजारियों और न्यायाधीशों को हुक्म दिया कि परभु मसीह को मार डालो। उनकी आज्ञा से लोगों ने एक सलीब खड़ी की और परभु को सूली पर च़ा दिया। किन्तु परभु मसीह ने कबर के द्वार को तोड़ डाला और फिर अपने पिता ईश्वर के पास चले गये। उसी समय से परभु मसीह के भक्त स्वर्ग को जाते हैं। ईश्वर परेम से उनका स्वागत करता है और उनसे कहता है-'आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं क्योंकि तुम मेरे बेटे को प्यार करते हो। हाथ धोकर मेज पर बैठ जाओ।' तब स्वर्ग अप्सराएं गाती हैं और जब तक मेहमान लोग भोजन करते हैं, नाच होता रहता है। उन्हें ईश्वर अपनी आंखों की ज्योति से अधिक प्यार करता है, क्योंकि वे उसके मेहमान होते हैं और उनके विश्राम के लिए अपने भवन के गलीचे और उनके स्वादन के लिए अपने बाग का अनार परदान करता है। अहमद इस परकार थायस से ईश्वर चचार करता था। वह विस्मित होकर कहती थी-'मुझे ईश्वर के बाग के अनार मिलें तो खूब खाऊं।' अहमद कहता था-'स्वर्ग के फल वही पराणी खा सकते हैं जो बपतिस्मा ले लेते हैं।' तब थायस ने बपतिस्मा लेने की आकांक्षा परकट की। परभु मसीह में उसकी भक्ति देखकर अहमद ने उसे और भी धर्मकथाएं सुनानी शुरू कीं। इस परकार एक वर्ष तक बीत गया। ईस्टर का शुभ सप्ताह आया और ईसाइयों ने धमोर्त्सव मनाने की तैयारी की। इसी सप्ताह में एक रात को थायस नींद से चौंकी तो देखा कि अहमद उसे गोद में उठा रहा है। उसकी आंखों में इस समय अद्भुत चमक थी। वह और दिनों की भांति फटे हुए पाजामे नहीं, बल्कि एक श्वेत लम्बा ीला चोगा पहने हुए था। उसके थायस को उसी चोगे में छिपा लिया और उसके कान में बोला-'आ, मेरी आंखों की पुतली, आ। और बपतिस्मा के पवित्र वस्त्र धारण कर।' वह लड़की को छाती से
लगाये हुए चला। थायस कुछ डरी, किन्तु उत्सुक भी थी। उसने सिर चोगे से बाहर निकाल लिया और अपने दोनों हाथ अहमद की मर्दन में डाल दिये। अहमद उसे लिये वेग से दौड़ा चला जाता था। वह एक तंग अंधेरी गली से होकर गुजरा; तब यहूदियों के मुहल्ले को पार किया, फिर एक कबिरस्तान के गिर्द में घूमते हुए एक खुले मैदान में पहुंचा जहां, ईसाई, धमार्हतों की लाशें सलीबों पर लटकी हुई थीं। थायस ने अपना सिर चोगे में छिपा लिया और फिर रास्ते भर उसे मुंह बाहर निकालने का साहस न हुआ। उसे शीघर ज्ञात हो गया कि हम लोग किसी तहखाने में चले जा रहे हैं। जब उसने फिर आंखें खोलीं तो अपने को एक तंग खोह में पाया। राल की मशालें जल रही थीं। खोह की दीवारों पर ईसाई सिद्ध महात्माओं के चित्र बने हुए थे जो मशालों के अस्थिर परकाश में चलतेफिरते, सजीव मालूम होते थे। उनके हाथों में खजूर की डालें थीं और उनके इर्दगिर्द मेमने, कबूतर, फाखते और अंगूर की बेलें चित्रित थीं। इन्हीं चित्रों में थायस ने ईसू को पहचाना, जिसके पैरों के पास फूलों का ेर लगा हुआ था। खोह के मध्य में, एक पत्थर के जलकुण्ड के पास, एक वृद्ध पुरुष लाल रंग का ीला कुरता पहने खड़ा था। यद्यपि उसके वस्त्र बहुमूल्य थे, पर वह अत्यन्त दीन और सरल जान पड़ता था। उसका नाम बिशप जीवन था, जिसे बादशाह ने देश से निकाल दिया था। अब वह भेड़ का ऊन कातकर अपना निवार्ह करता था। उसके समीप दो लड़के खड़े थे। निकट ही एक बुयि हब्शिन एक छोटासा सफेद कपड़ा लिये खड़ी थी। अहमद ने थायस को जमीन पर बैठा दिया और बिशप के सामने घुटनों के बल बैठकर बोला-'पूज्य पिता, यही वह छोटी लड़की है जिसे मैं पराणों से भी अधिक चाहता हूं। मैं उसे आपकी सेवा में लाया हूं कि आप अपने वचनानुसार, यदि इच्छा हो तो, उसे बपतिस्मा परदान कीजिए।' यह सुनकर बिशप ने हाथ फैलाया। उनकी उंगलियों के नाखून उखाड़ लिये गये थे क्योंकि आपत्ति के दिनों में वह राजाज्ञा की परवाह न करके अपने धर्म पर आऱु रहे थे। थायस डर गयी और अहमद की गोद में छिप गयी, किन्तु बिशप के इन स्नेहमय शब्दों ने उस आश्वस्त कर दिया-'पिरय पुत्री, डरो मत। अहमद तेरा धर्मपिता है जिसे हम लोग थियोडोरा कहते हैं, और यह वृद्घा स्त्री तेरी माता है जिसने अपने हाथों से तेरे लिए एक सफेद वस्त्र तैयार किया। इसका नाम नीतिदा है। यह इस जन्म में गुलाम है; पर स्वर्ग में यह परभु मसीह की परेयसी बनेगी।' तब उसने थायस से पूछा-'थायस, क्या तू ईश्वर पर, जो हम सबों का परम पिता है, उसके इकलौते पुत्र परभु मसीह पर जिसने हमारी मुक्ति के लिए पराण अर्पण किये, और मसीह के शिष्यों पर विश्वास करती हैं ?' हब्शी और हब्शिन ने एक स्वर से कहा-'हां।' तब बिशप के आदेश से नीतिदा ने थायस के कपड़े उतारे। वह नग्न हो गयी। उसके गले में केवल एक यन्त्र था। विशप ने उसे तीन बार जलकुण्ड में गोता दिया, और तब नीतिदा ने देह का पानी पोंछकर अपना सफेद वस्त्र पहना दिया। इस परकार वह बालिका ईसा शरण में आयी जो कितनी परीक्षाओं और परलो
भनों के बाद अमर जीवन पराप्त करने वाली थी। जब यह संस्कार समाप्त हो गया और सब लोग खोह के बाहर निकले तो अहमद ने बिशप से कहा-'पूज्य पिता, हमें आज आनन्द मनाना चाहिए; क्योंकि हमने एक आत्मा को परभु मसीह के चरणों पर समर्पित किया। आज्ञा हो तो हम आपके शुभस्थान पर चलें और शेष रात्रि उत्सव मनाने में काटें।' बिशप ने परसन्नता से इस परस्ताव को स्वीकार किया। लोग बिशप के घर आये। इसमें केवल एक कमरा था। दो चरखे रखे हुए थे और एक फटी हुई दरी बिछी थी। जब यह लोग अन्दर पहुंचे तो बिशप ने नीतिदा से कहा-'चूल्हा और तेल की बोतल लाओ। भोजन बनायें।' यह कहकर उसने कुछ मछलियां निकालीं, उन्हें तेल में भूना, तब सबके-सब फर्श पर बैठकर भोजन करने लगे। बिशप ने अपनी यन्त्रणाओं का वृत्तान्त कहा और ईसाइयों की विजय पर विश्वास परकट किया। उसकी भाषा बहुत ही पेचदार, अलंकृत, उलझी हुई थी। तत्त्व कम, शब्दाडम्बर बहुत था। थायस मंत्रमुग्ध-सी बैठी सुनती रही। भोजन समाप्त हो जाने का बिशप ने मेहमानों को थोड़ीसी शराब पिलाई। नशा च़ा तो वे बहकबहककर बातें करने लगे। एक क्षण के बाद अहमद और नीतिदा ने नाचना शुरू किया। यह परेतनृत्य था। दोनों हाथ हिलाहिलाकर कभी एकदूसरे की तरफ लपकते, कभी दूर हट जाते। जब सेवा होने में थोड़ी देर रह गयी तो अहमद ने थायस को फिर गोद में उठाया और घर चला आया। अन्य बालकों की भांति थायस भी आमोदपिरय थी। दिनभर वह गलियों में बालकों के साथ नाचतीगाती रहती थी। रात को घर आती तब भी वह गीत गाया करती, जिनका सिरपैर कुछ न होता। अब उसे अहमद जैसे शान्त, सीधेसीधे आदमी की अपेक्षा लड़केलड़कियों की संगति अधिक रुचिकर मालूम होती ! अहमद भी उसके साथ कम दिखाई देता। ईसाइयों पर अब बादशाह की क्रुर दृष्टि न थी, इसलिए वह अबाधरूप से धर्म संभाएं करने
लगे थे। धर्मनिष्ठ अहमद इन सभाओं में सम्मिलित होने से कभी न चूकता। उसका धमोर्त्साह दिनोंदिन ब़ने लगा। कभीकभी वह बाजार में ईसाइयों को जमा करके उन्हें आने वाले सुखों की शुभ सूचना देता। उसकी सूरत देखते ही शहर के भिखारी, मजदूर, गुलाम, जिनका कोई आश्रय न था, जो रातों में सड़क पर सोते थे, एकत्र हो जाते और वह उनसे कहता-'गुलामों के मुक्त होने के बदन निकट हैं, न्याय जल्द आने वाला है, धन के मतवाले चैन की नींद न सो सकेंगे। ईश्वर के राज्य में गुलामों को ताजा शराब और स्वादिष्ट फल खाने को मिलेंगे, और धनी लोग कुत्ते की भांति दुबके हुए मेज के नीचे बैठे रहेंगे और उनका जूठन खायेंगे।' यह शुभसन्देश शहर के कोनेकोने में गूंजने लगता और धनी स्वामियों को शंका होती कि कहीं उनके गुलाम उत्तेजित होकर बगावत न कर बैठें। थायस का पिता भी उससे जला करता था। वह कुत्सित भावों को गुप्त रखता। एक दिन चांदी का एक नमकदान जो देवताओं के यज्ञ के लिए अलग रखा हुआ था, चोरी हो गया। अहमद ही अपराधी ठहराया गया। अवश्य अपने स्वामी को हानि पहुंचाने और देवताओं का अपमान करने के लिए उसने यह अधर्म किया है ! चोरी को साबित करने के लिए कोई परमाण न था और अहमद पुकारपुकारकर कहता था-मुझ पर व्यर्थ ही यह दोषारोपण किया जाता है। तिस पर भी वह अदालत में खड़ा किया गया। थायस के पिता ने कहा-'यह कभी मन लगाकर काम नहीं करता।' न्यायाधीश ने उसे पराणदण्ड का हुक्म दे दिया। जब अहमद अदालत से चलने लगा तो न्यायधीश ने कहा-'तुमने अपने हाथों से अच्छी तरह काम नहीं लिया इसलिए अब यह सलीब में ठोंक दिये जायेंगे !' अहमद ने शान्तिपूर्वक फैसला सुना, दीनता से न्यायाधीश को परणाम किया और तब कारागार में बन्द कर दिया गया। उसके जीवन के केवल तीन दिन और थे और तीनों दिनों दिन यह कैदियों को उपदेश देता रहा। कहते हैं उसके उपदेशों का ऐसा असर पड़ा कि सारे कैदी और जेल के कर्मचारी मसीह की शरण में आ गये। यह उसके अविचल धमार्नुराग का फल था। चौथे दिन वह उसी स्थान पर पहुंचाया गया जहां से दो साल पहले, थायस को गोद में लिये वह बड़े आनन्द से निकला था। जब उसके हाथ सलीब पर ठोंक दिये गये, तो उसने 'उफ' तक न किया, और एक भी अपशब्द उसके मुंह से न निकला ! अन्त में बोला-'मैं प्यासा हूं ! 'वह स्वर्ग के दूत तुझे लेने को आ रहे हैं। उनका मुख कितना तेजस्वी है। वह अपने साथ फल और शराब लिये आते हैं। उनके परों से कैसी निर्मल, सुखद वायु चल रही है।' और यह कहतेकहते उसका पराणान्त हो गया। मरने पर भी उसका मुखमंडल आत्मोल्लास से उद्दीप्त हो रहा था। यहां तक कि वे सिपाही भी जो सलीब की रक्षा कर रहे थे, विस्मत हो गये। बिशप जीवन ने आकर शव का मृतकसंस्कार किया और ईसाई समुदाय ने महात्मा थियोडोर की कीर्ति को परमाज्ज्वल अक्षरों में अंकित किया। वह छोटी ही उमर में बादशाह के युवकों के साथ क्रीड़ा करने लगी। संध्या समय वह बू़े आदमियों के पीछे लग जाती और उनसे कुछन-कुछ ले मरती थी। इस भांति जो कुछ मिलता उससे मिठाइयां और
खिलौने मोल लेती। पर उसकी लोभिनी माता चाहती थी कि वह जो कुछ पाये वह मुझे दे। थायस इसे न मानती थी। इसलिए उसकी माता उसे मारापीटा करती थी। माता की मार से बचने के लिए वह बहुधा घर से भाग जाती और शहरपनाह की दीवार की दरारों में वन्य जन्तुओं के साथ छिपी रहती। एक दिन उसकी माता ने इतनी निर्दयता से उसे पीटा कि वह घर से भागी और शहर के फाटक के पास चुपचाप पड़ी सिसक रही थी कि एक बुयि उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह थोड़ी देर तक मुग्धभाव से उसकी ओर ताकती रही और तब बोली-'ओ मेरी गुलाब, मेरी गुलाब, मेरी फूलसी बच्ची ! धन्य है तेरा पिता जिसने तुझे पैदा किया और धन्य है तेरी माता जिसने तुझे पाला।' थायस चुपचाप बैठी जमीन की ओर देखती रही। उसकी आंखें लाल थीं, वह रो रही थी। बुयि ने फिर कहा-'मेरी आंखों की पुतली, मुन्नी, क्या तेरी माता तुझजैसी देवकन्या को पालपोसकर आनन्द से फूल नहीं जाती, और तेरा पिता तुझे देखकर गौरव से उन्मत्त नहीं हो जाता ?' थायस ने इस तरह भुनभुनाकर उत्तर दिया, मानो मन ही में कह रही है-मेरा बाप शराब से फूला हुआ पीपा है और माता रक्त चूसने वाली जोंक है। बुयि ने दायेंबायें देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा है, तब निस्संक होकर अत्यन्त मृदु कंठ से बोली-'अरे मेरी प्यारी आंखों की ज्योति, ओ मेरी खिली हुई गुलाब की कली, मेरे साथ चलो। क्यों इतना कष्ट सहती हो ? ऐसे मांबाप की झाड़ मारो। मेरे यहां तुम्हें नाचने और हंसने के सिवाय और कुछ न करना पड़ेगा। मैं तुम्हें शहद के रसगुल्ले खिलाऊंगी, और मेरा बेटा तुम्हें आंखों की पुतली बनाकर रखेगा। वह बड़ा सुन्दर सजीला जबान है, उसकी दा़ी पर अभी बाल भी नहीं निकले, गोरे रंग का कोमल स्वभाव का प्यारा लड़का है।' थायस ने कहा-'मैं शौक से तुम्हें साथ चलूंगी।' और उठकर बुयि के पीछ
े शहर के बाहर चली गयी। बुयि का नाम मीरा था। उसके पास कई लड़केलड़कियों की एक मंडली थी। उन्हें उसने नाचना, गाना, नकलें करना सिखाया था। इस मंडली को लेकर वह नगरनगर घूमती थी, और अमीरों के जलसों में उनका नाचगाना कराके अच्छा पुरस्कार लिया करती थी। उसकी चतुर आंखों ने देख लिया कि यह कोई साधारण लड़की नहीं है। उसका उठान कहे देता था कि आगे चलकर वह अत्यन्त रूपवती रमणी होगी। उसने उसे कोड़े मारकर संगीत और पिंगल की शिक्षा दी। जब सितार के तालों के साथ उसके पैर न उठते तो वह उसकी कोमल पिंडलियों में चमड़े के तस्में से मारती। उसका पुत्र जो हिजड़ा था, थायस से द्वेष रखता था, जो उसे स्त्री मात्र से था। पर वह नाचने में, नकल करने में, मनोगत भावों को संकेत, सैन, आकृति द्वारा व्यक्त करने में, परेम की घातों के दर्शाने में, अत्यन्त कुशल था। हिजड़ों में यह गुण परायः ईश्वरदत्त होते हैं। उसने थायस को यह विद्या सिखाई, खुशी से नहीं, बल्कि इसलिए कि इस तरकीब से वह जी भरकर थायस को गालियां दे सकता था। जब उसने देखा कि थायस नाचनेगाने में निपुण होती जाती है और रसिक लोग उसके नृत्यगान से जितने मुग्ध होते हैं उतना मेरे नृत्यकौशल से नहीं होते तो उसकी छाती पर सांप काटने लगा। वह उसके गालों को नोच लेता, उसके हाथपैर में चुटकियां काटता। पर उसकी जलन से थायस को लेशमात्र भी दुःख न होता था। निर्दय व्यवहार का उसे अभ्यास हो गया था। अन्तियोकस उस समय बहुत आबाद शहर था। मीरा जब इस शहर में आयी तो उसने रईसों से थायस की खूब परशंसा की। थायस का रूपलावण्य देखकर लोगों ने बड़े चाव से उसे अपनी रागरंग की मजलिसों में निमन्त्रित किया, और उसके नृत्यगान पर मोहित हो गये। शनैःशनैः यही उसका नित्य का काम हो गया! नृत्यगान समाप्त होने पर वह परायः सेठसाहूकारों के साथ नदी के किनारे, घने कुञ्जों में विहार करती। उस समय तक उसे परेम के मूल्य का ज्ञान न था, जो कोई बुलाता उसके पास जाती, मानो कोई जौहरी का लड़का धनराशि को कौड़ियों की भांति लुटा रहा हो। उसका एकएक कटाक्ष हृदय को कितना उद्विग्न कर देता है, उसका एकएक कर स्पर्श कितना रोमांचकारी होता है, यह उसके अज्ञात यौवन को विदित न था। थायस, यह मेरा परम सौभाग्य होता यदि तेरे अलकों में गुंथी हुई पुष्पमाला या तेरे कोमल शरीर का आभूषण, अथवा तेरे चरणों की पादुका मैं होता। यह मेरी परम लालसा है कि पादुका की भांति तेरे सुन्दर चरणों से कुचला जाता, मेरा परेमालिंगन तेरे सुकोमल शरीर का आभूषण और तेरी अलकराशि का पुष्प होता। सुन्दरी रमणी, मैं पराणों को हाथ में लिये तेरी भेंट करने को उत्सुक हो रहा हूं। मेरे साथ चल और हम दोनों परेम में मग्न होकर संसार को भूल जायें।' जब तक वह बोलता रहा, थायस उसकी ओर विस्मित होकर ताकती रही। उसे ज्ञात हुआ कि उसका रूप मनोहर है। अकस्मात उसे अपने माथे पर ठंडा पसीना बहता हुआ जान पड़ा। वह हरी घास की भांति आर्द्र हो गयी। उसके सिर में चक्कर आने लगे, आंखों के सामने मेघघटासी उठती हुई जान पड़ी।
युवक ने फिर वही परेमाकांक्षा परकट की, लेकिन थायस ने फिर इनकार किया। उसके आतुर नेत्र, उसकी परेमयाचना बस निष्फल हुई, और जब उसने अधीर होकर उसे अपनी गोद में ले लिया और बलात खींच ले जाना चाहा तो उसने निष्ठुरता से उसे हटा दिया। तब वह उसके सामने बैठकर रोने लगा। पर उसके हृदय में एक नवीन, अज्ञात और अलक्षित चैतन्यता उदित हो गयी थी। वह अब भी दुरागरह करती रही। मेहमानों ने सुना तो बोले-'यह कैसी पगली है ? लोलस कुलीन, रूपवान, धनी है, और यह नाचने वाली युवती उसका अपमान करती हैं !' लोलस का रात घर लौटा तो परेममद तो मतवाला हो रहा था। परातःकाल वह फिर थायस के घर आया, तो उसका मुख विवर्ण और आंखें लाल थीं। उसने थायस के द्वार पर फूलों की माला च़ाई। लेकिन थायस भयभीत और अशान्त थी, और लोलस से मुंह छिपाती रहती थी। फिर भी लोलस की स्मृति एक क्षण के लिए भी उसकी आंखों से न उतरती। उसे वेदना होती थी पर वह इसका कारण न जानती थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैं इतनी खिन्न और अन्यमनस्क क्यों हो गयी हूं। यह अन्य सब परेमियों से दूर भागती थी। उनसे उसे घृणा होती थी। उसे दिन का परकाश अच्छा न लगता, सारे दिन अकेले बिछावन पर पड़ी, तकिये में मुंह छिपाये रोया करती। लोलस कई बार किसीन-किसी युक्ति से उसके पास पहुंचा, पर उसका परेमागरह, रोनाधोना, एक भी उसे न पिघला सका। उसके सामने वह ताक न सकती, केवल यही कहती-'नहीं, नहीं।' लेकिन एक पक्ष के बाद उसकी जिद्द जाती रही। उसे ज्ञात हुआ कि मैं लोलस के परेमपाश में फंस गयी हूं। वह उसके घर गयी और उसके साथ रहने लगी। अब उनके आनन्द की सीमा न थी। दिन भर एकदूसरे से आंखें मिलाये बैठे परेमलाप किया करते। संध्या को नदी के नीरव निर्जन तट पर हाथमें-हाथ डाले टहलते। कभीकभी अरुणोदय के समय उठकर पहाड़ियों पर सम्
बुल के फूल बटोरने चले जाते। उनकी थाली एक थी। प्याला एक था, मेज एक थी। लोलस उसके मुंह के अंगूर निकालकर अपने मुंह में खा जाता। तब मीरा लोलस के पास आकर रोनेपीटने लगी कि मेरी थायस को छोड़ दो। वह मेरी बेटी है, मेरी आंखों की पुतली ! मैंने इसी उदर से उसे निकाल, इस गोद में उसका लालनपालन किया और अब तू उसे मेरी गोद से छीन लेना चाहता है। लोलस ने उसे परचुर धन देकर विदा किया, लेकिन जब वह धनतृष्णा से लोलुप होकर फिर आयी तो लोलस ने उसे कैद करा दिया। न्यायाधिकारियों को ज्ञात हुआ कि वह कुटनी है, भोली लड़कियों को बहका ले जाना ही उसका उद्यम है तो उसे पराणदण्ड दे दिया और वह जंगली जानवरों के सामने फेंक दी गई। लोलस अपनी अखंड, सम्पूर्ण कामना से थायस को प्यार करता था। उसकी परेम कल्पना ने विराट रूप धारण कर लिया था, जिससे उसकी किशोर चेतना सशंक हो जाती थी। थायस अन्तःकरण से कहती-'मैंने तुम्हारे सिवाय और किसी से परेम नहीं किया।' लोलस जवाब देता-'तुम संसार में अद्वितीय हो।' दोनों पर छः महीने तक यह नशा सवार रहा। अन्त में टूट गया। थायस को ऐसा जान पड़ता कि मेरा हृदय शून्य और निर्जन है। वहां से कोई चीज गायब हो गयी है। लोलस उसकी दृष्टि में कुछ और मालूम होता था। वह सोचती-मुझमें सहसा यह अन्तर क्यों हो गया ? यह क्या बात है कि लोलस अब और मनुष्यों कासा हो गया है, अपनासा नहीं रहा ? मुझे क्या हो गया है ? यह दशा उसे असह्य परतीत होने लगी। अखण्ड परेम के आस्वादन के बाद अब यह नीरस, शुष्क व्यापार उसकी तृष्णा को तृप्त न कर सका। वह अपने खोये हुए लोलस को किसी अन्य पराणी में खोजने की गुप्त इच्छा को हृदय में छिपाये हुए, लोलस के पास से चली गयी। उसने सोचा परेम रहने पर भी किसी पुरुष के साथ रहना। उस आदमी के साथ रहने से कहीं सुखकर है जिससे अब परेम नहीं रहा। वह फिर नगर के विषयभोगियों के साथ उन धमोर्त्सवों में जाने लगी जहां वस्त्रहीन युवतियां मन्दिरों में नृत्य किया करती थीं, या जहां वेश्याओं के गोलके-गोल नदी में तैरा करते थे। वह उस विलासपिरय और रंगीले नगर के रागरंग में दिल खोलकर भाग लेने लगी। वह नित्य रंगशालाओं में आती जहां चतुर गवैये और नर्तक देशदेशान्तरों से आकर अपने करतब दिखाते थे और उत्तेजना के भूखे दर्शकवृन्द वाहवाह की ध्वनि से आसमान सिर पर उठा लेते थे। थायस गायकों, अभिनेताओं, विशेषतः उन स्त्रियों के चालाल को बड़े ध्यान से देखा करती थी जो दुःखान्त नाटकों में मनुष्य से परेम करने वाली देवियों या देवताओं से परेम करने वाली स्त्रियों का अभिनय करती थीं। शीघर ही उसे वह लटके मालूम हो गये, जिनके द्वारा वह पात्राएं दर्शकों का मन हर लेती थीं, और उसने सोचा, क्या मैं जो उन सबों से रूपवती हूं, ऐसा ही अभिनय करके दर्शकों को परसन्न नहीं कर सकती? वह रंगशाला व्यवस्थापक के पास गयी और उससे कहा कि मुझे भी इस नाट्यमंडली में सम्मिलित कर लीजिए। उसके सौन्दर्य ने उसकी पूर्वशिक्षा के साथ मिलकर उसकी सिफारिश की। व्यवस्थापक ने उसकी परार्थना
स्वीकार कर ली। और वह पहली बार रंगमंच पर आयी। पहले दर्शकों ने उसका बहुत आशाजनक स्वागत न किया। एक तो वह इस काम में अभ्यस्त न थी, दूसरे उसकी परशंसा के पुल बांधकर जनता को पहले ही से उत्सुक न बनाया गया था। लेकिन कुछ दिनों तक गौण चरित्रों का पार्ट खेलने के बाद उसके यौवन ने वह हाथपांव निकाले कि सारा नगर लोटपोट हो गया। रंगशाला में कहीं तिल रखने भर की जगह न बचती। नगर के बड़ेबड़े हाकिम, रईस, अमीर, लोकमत के परभाव से रंगशाला में आने पर मजबूर हुए। शहर के चौकीदार, पल्लेदार, मेहतर, घाट के मजदूर, दिनदिन भर उपवास करते थे कि अपनी जगह सुरक्षित करा लें। कविजन उसकी परशंसा में कवित्त कहते। लम्बी दायिों वाले विज्ञानशास्त्री व्यायामशालाओं में उसकी निन्दा और उपेक्षा करते। जब उसका तामझाम सड़क पर से निकलता तो ईसाई पादरी मुंह फेर लेते थे। उसके द्वार की चौखट पुष्पमालाओं से की रहती थी। अपने परेमियों से उसे इतना अतुल धन मिलता कि उसे गिनना मुश्किल था। तराजू पर तौल लिया जाता था। कृपण बू़ों की संगरह की हुई समस्त सम्पत्ति उसके ऊपर कौड़ियों की भांति लुटाई जाती थी। पर उसे गर्व न था। ऐंठ न थी। देवताओं की कृपादृष्टि और जनता की परशंसाध्वनि से उसके हृदय को गौरवयुक्त आनन्द होता था। सबकी प्यारी बनकर वह अपने को प्यार करने लगी थी। कई वर्ष तक ऐन्टिओकवासियों के परेम और परशंसा का सुख उठाने के बाद उसके मन में परबल उत्कंठा हुई कि इस्कन्द्रिया चलूं और उस नगर में अपना ठाटबाट दिखाऊं, जहां बचपन में मैं नंगी और भूखी, दरिद्र और दुर्बल, सड़कों पर मारीमारी फिरती थी और गलियों की खाक छानती थी। इस्कन्द्रियां आंखें बिछाये उसकी राह देखता था। उसने बड़े हर्ष से उसका स्वागत किया और उस पर मोती बरसाये। वह क्रीड़ाभूमि में आती तो धूम मच जाती। प
रेमियों और विलासियों के मारे उसे सांस न मिलती, पर वह किसी को मुंह न लगाती। दूसरा, लोलस उसे जब न मिला तो उसने उसकी चिन्ता ही छोड़ दी। उस स्वर्गसुख की अब उसे आशा न थी। उसके अन्य परेमियों में तत्त्वज्ञानी निसियास भी था जो विरक्त होने का दावा करने पर भी उसके परेम का इच्छुक था। वह धनवान था पर अन्य धनपतियों की भांति अभिमानी और मन्दबुद्धि न था। उसके स्वभाव में विनय और सौहार्द की आभा झलकती थी, किन्तु उसका मधुरहास्य और मृदुकल्पनाएं उसे रिझाने में सफल न होतीं। उसे निसियास से परेम न था, कभीकभी उसके सुभाषितों से उसे चि होती थी। उसके शंकावाद से उसका चित्त व्यगर हो जाता था, क्योंकि निसियास की श्रद्घा किसी पर न थी और थायस की श्रद्घा सभी पर थी। वह ईश्वर पर, भूतपरेतों पर जादूटोने पर, जन्त्रमन्त्र पर पूरा विश्वास करती थी। उसकी भक्ति परभु मसीह पर भी थी, स्याम वालों की पुनीता देवी पर भी उसे विश्वास था कि रात को जब अमुक परेत गलियों में निकलता है तो कुतियां भूंकती हैं। मारण, उच्चाटन, वशीकरण के विधानों पर और शक्ति पर उसे अटल विश्वास था। उसका चित्त अज्ञात न लिए उत्सुक रहता था। वह देवताओं की मनौतियां करती थी और सदैव शुभाशाओं में मग्न रहती थी भविष्य से यह शंका रहती थी, फिर भी उसे जानना चाहती थी। उसके यहां, ओझे, सयाने, तांत्रिक, मन्त्र जगाने वाले, हाथ देखने वाले जमा रहते थे। वह उनके हाथों नित्य धोखा खाती पर सतर्क न होती थी। वह मौत से डरती थी और उससे सतर्क रहती थी। सुखभोग के समय भी उसे भय होता था कि कोई निर्दय कठोर हाथ उसका गला दबाने के लिए ब़ा आता है और वह चिल्ला उठती थी। निसियास कहता था-'पिरये, एक ही बात है, चाहे हम रुग्ण और जर्जर होकर महारात्रि की गोद में समा जायें, अथवा यहीं बैठे, आनन्दभोग करते, हंसतेखेलते, संसार से परस्थान कर जायें। जीवन का उद्देश्य सुखभोग है। आओ जीवन की बाहार लूटें। परेम से हमारा जीवन सफल हो जायेगा। इन्द्रियों द्वारा पराप्त ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। इसके सिवाय सब मिथ्या के लिए अपने जीवन सुख में क्यों बाधा डालें ?' थायस सरोष होकर उत्तर देती-'तुम जैसे मनुष्यों से भगवान बचाये, जिन्हें कोई आशा नहीं, कोई भय नहीं। मैं परकाश चाहती हूं, जिससे मेरा अन्तःकरण चमक उठे।' जीवन के रहस्य को समझने के लिए उसे दर्शनगरन्थों को पॄना शुरू किया, पर वह उसकी समझ में न आये। ज्योंज्यों बाल्यावस्था उससे दूर होती जाती थी, त्योंत्यों उसकी याद उसे विकल करती थी। उसे रातों को भेष बदलकर उन सड़कों, गलियों, चौराहों पर घूमना बहुत पिरय मालूम होता जहां उसका बचपन इतने दुःख से कटा था। उसे अपने मातापिता के मरने का दुःख होता था, इस कारण और भी कि वह उन्हें प्यार न कर सकी थी। जब किसी ईसाई पूजक से उसकी भेंट हो जाती तो उसे अपना बपतिस्मा याद आता और चित्त अशान्त हो जाता। एक रात को वह एक लम्बा लबादा ओ़े, सुन्दर केशों को एक काले टोप से छिपाये, शहर के बाहर विचर रही थी कि सहसा वह एक गिरजाघर के सामने पहुंच गयी। उस
े याद आया, मैंने इसे पहले भी देखा है। कुछ लोग अन्दर गा रहे थे और दीवार की दरारों से उज्ज्वल परकाशरेखाएं बाहर झांक रही थीं। इसमें कोई नवीन बात न थी, क्योंकि इधर लगभग बीस वर्षों से ईसाईधर्म में को विघ्नबाधा न थी, ईसाई लोग निरापद रूप से अपने धमोर्त्सव करते थे। लेकिन इन भजनों में इतनी अनुरक्ति, करुण स्वर्गध्वनि थी, जो मर्मस्थल में चुटकियां लेती हुई जान पड़ती थीं। थायस अन्तःकरण के वशीभूत होकर इस तरह द्वार, खोलकर भीतर घुस गयी मानो किसी ने उसे बुलाया है। वहां उसे बाल, वृद्ध, नरनारियों का एक बड़ा समूह एक समाधि के सामने सिजदा करता हुआ दिखाई दिया। यह कबर केवल पत्थर की एक ताबूत थी, जिस पर अंगूर के गुच्छों और बेलों के आकार बने हुए थे। पर उस पर लोगों की असीम श्रद्घा थी। वह खजूर की टहनियों और गुलाब की पुष्पमालाओं से की हुई थी। चारों तरफ दीपक जल रहे थे और उसके मलिन परकाश में लोबान, ऊद आदि का धुआं स्वर्गदूतों के वस्त्रों की तहोंसा दीखता था, और दीवार के चित्र स्वर्ग के दृश्यों केसे। कई श्वेत वस्त्रधारी पादरी कबर के पैरों पर पेट के बल पड़े हुए थे। उनके भजन दुःख के आनन्द को परकट करते थे और अपने शोकोल्लास में दुःख और सुख, हर्ष और शोक का ऐसा समावेश कर रहे थे कि थायस को उनके सुनने से जीवन के सुख और मृत्यु के भय, एक साथ ही किसी जलस्त्रोत की भांति अपनी सचिन्तस्नायुओं में बहते हुए जान पड़े। जब गाना बन्द हुआ तो भक्तजन उठे और एक कतार मंें कबर के पास जाकर उसे चूमा। यह सामान्य पराणी थे; जो मजूरी करके निवार्ह करते थे। क्या ही धीरेधीरे पग उठाते, आंखों में आंसू भरे, सिर झुकाये, वे आगे ब़ते और बारीबारी से कबर की परिक्रमा करते थे। स्त्रियों ने अपने बालकों को गोद में उठाकर कबर पर उनके होंठ रख दिये। थायस ने विस
्मित और चिन्तित होकर एक पादरी से पूछा-'पूज्य पिता, यह कैसा समारोह है ?' पादरी ने उत्तर दिया-'क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हम आज सन्त थियोडोर की जयन्ती मना रहे हैं ? उनका जीवन पवित्र था। उन्होंने अपने को धर्म की बलिवेदी पर च़ा दिया, और इसीलिए हम श्वेत वस्त्र पहनकर उनकी समाधि पर लाल गुलाब के फूल च़ाने आये हैं।' यह सुनते ही थायस घुटनों के बल बैठ गयी और जोर से रो पड़ी। अहमद की अर्धविस्मृत स्मृतियां जागरत हो गयीं। उस दीन, दुखी, अभागे पराणी की कीर्ति कितनी उज्ज्वल है ! उसके नाम पर दीपक जलते हैं, गुलाब की लपटें आती हैं, हवन के सुगन्धित धुएं उठते हैं, मीठे स्वरों का नाद होता है और पवित्र आत्माएं मस्तक झुकाती हैं। थायस ने सोचा-अपने जीवन में वह पुष्यात्मा था, पर अब वह पूज्य और उपास्य हो गया हैं ! वह अन्य पराणियों की अपेक्षा क्यों इतना श्रद्घास्पद है ? वह कौनसी अज्ञात वस्तु है जो धन और भोग से भी बहुमूल्य है ? वह आहिस्ता से उठी और उस सन्त की समाधि की ओर चली जिसने उसे गोद में खेलाया था। उसकी अपूर्व आंखों में भरे हुए अश्रुबिन्दु दीपक के आलोक में चमक रहे थे। तब वह सिर झुकाकर, दीनभाव से कबर के पास गयी और उस पर अपने अधरों से अपनी हार्दिक श्रद्घा अंकित कर दी-उन्हीं अधरों से जो अगणित तृष्णाओं का क्रीड़ाक्षेत्र थे ! जब वह घर आयी तो निसियास को बाल संवारे, वस्त्रों मंें सुगन्ध मले, कबा के बन्द खोले बैठे देखा। वह उसके इन्तजार में समय काटने के लिए एक नीतिगरंथ पॄ रहा था। उसे देखते ही वह बांहें खोले उसकी ब़ा और मृदुहास्य से बोला-'कहां गयी थीं, चंचला देवी ? तुम जानती हो तुम्हारे इन्तजार में बैठा हुआ, मैं इस नीतिगरंथ में क्या पॄ रहा था?' नीति के वाक्य और शुद्घाचरण के उपदेश ?' 'कदापि नहीं। गरंथ के पन्नों पर अक्षरों की जगह अगणित छोटीछोटी थायसें नृत्य कर रही थीं। उनमें से एक भी मेरी उंगली से बड़ी न थी, पर उनकी छवि अपार थी और सब एक ही थायस का परतिबिम्ब थीं। कोई तो रत्नजड़ित वस्त्र पहने अकड़ती हुई चलती थी, कोई श्वेत मेघसमूह के सदृश्य स्वच्छ आवरण धारण किये हुए थी; कोई ऐसी भी थीं जिनकी नग्नता हृदय में वासना का संचार करती थी। सबके पीछे दो, एक ही रंगरूप की थीं। इतनी अनुरूप कि उनमें भेद करना कठिन था। दोनों हाथमें-हाथ मिलाये हुए थीं, दोनों ही हंसती थीं। पहली कहती थी-मैं परेम हूं। दूसरी कहती थी-मैं नृत्य हूं।' यह कहकर निसियास ने थायस को अपने करपाश में खींच लिया। थायस की आंखें झुकी हुई थीं। निसियास को यह ज्ञान न हो सका कि उनमें कितना रोष भरा हुआ है। वह इसी भांति सूक्तियों की वर्षा करता रहा, इस बात से बेखबर कि थायस का ध्यान ही इधर नहीं है। वह कह रहा था-'जब मेरी आंखों के सामने यह शब्द आये-अपनी आत्मशुद्धि के मार्ग में कोई बाधा मत आने दो, तो मैंने पॄा 'थायस के अधरस्पर्श अग्नि से दाहक और मधु से मधुर हैं।' इसी भांति एक पण्डित दूसरे पण्डितों के विचारों को उलटपलट देता है; और यह तुम्हारा ही दोष है। यह सर्वथ
ा सत्य है कि जब तक हम वही हैं जो हैं, तब तक हम दूसरों के विचारों में अपने ही विचारों की झलक देखते रहेंगे।' वह अब भी इधर मुखातिब न हुई। उसकी आत्मा अभी तक हब्शी की कबर के सामने झुकी हुई थी। सहसा उसे आह भरते देखकर उसने उसकी गर्दन का चुम्बन कर लिया और बोला-'पिरये, संसार में सुख नहीं है जब तक हम संसार को भूल न जायें। आओ, हम संसार से छल करें, छल करके उससे सुख लें-परेम में सबकुछ भूल जायें।' लेकिन उसने उसे पीछे हटा दिया और व्यथित होकर बोली-'तुम परेम का मर्म नहीं जानते ! तुमने कभी किसी से परेम नहीं किया। मैं तुम्हें नहीं चाहती, जरा भी नहीं चाहती। यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे घृणा होती है। अभी चले जाओ, मुझे तुम्हारी सूरत से नफरत है। मुझे उन सब पराणियों से घृणा है, धनी है, आनन्दभोगी हैं। जाओ, जाओ। दया और परेम उन्हीं में है जो अभागे हैं। जब मैं छोटी थी तो मेरे यहां एक हब्शी था जिसने सलीब पर जान दी। वह सज्जन था, वह जीवन के रहस्यों को जानता था। तुम उसके चरण धोने योग्य भी नहीं हो। चले जाओ। तुम्हारा स्त्रियों कासा शृंगार मुझे एक आंख नहीं भाता। फिर मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।' यह कहतेकहते वह फर्श पर मुंह के बल गिर पड़ी और सारी रात रोकर काटी। उसने संकल्प किया कि मैं सन्त थियोडोर की भांति और दरिद्र दशा में जीवन व्यतीत करुंगी। दूसरे दिन वह फिर उन्हीं वासनाओं में लिप्त हो गयी जिनकी उसे चाट पड़ गयी थी। वह जानती थी कि उसकी रूपशोभा अभी पूरे तेज पर है, पर स्थायी नहीं इसीलिए इसके द्वारा जितना सुख और जितनी ख्याति पराप्त हो सकती थी उसे पराप्त करने के लिए वह अधीर हो उठी। थियेटर में वह पहले की अपेक्षा और देर तक बैठकर पुस्तकावलोकन किया करती। वह कवियों, मूर्तिकारों और चित्रकारों की कल्पनाओं को सजीव बना देती थी
, विद्वानों और तत्त्वज्ञानियों को उसकी गति, अगंविन्यास और उस पराकृतिक माधुर्य की झलक नजर आती थी जो समस्त संसार में व्यापक है और उनके विचार में ऐसी अर्पूव शोभा स्वयं एक पवित्र वस्तु थी। दीन, दरिद्र, मूर्ख लोग उसे एक स्वगीर्य पदार्थ समझते थे। कोई किसी रूप में उसकी उपासना करता था, कोई किसी रूप में। कोई उसे भोग्य समझता था, कोई स्तुत्य और कोई पूज्य। किन्तु इस परेम, भक्ति और श्रद्घा की पात्रा होकर भी वह दुःखी थी, मृत्यु की शंका उसे अब और भी अधिक होने लगी। किसी वस्तु से उसे इस शंका से निवृत्ति न होती। उसका विशाल भवन और उपवन भी, जिनकी शोभा अकथनीय थी और जो समस्त नगर में जनश्रुति बने हुए थे, उसे आश्वस्त करने में असफल थे। इस उपवन में ईरान और हिन्दुस्तान के वृक्ष थे, जिनके लाने और पालने में अपरिमित धन व्यय हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए एक निर्मल जल धारा बहायी गयी थी। समीप ही एक झील बनी हुई थी। जिसमें एक कुशल कलाकार के हाथों सजाये हुए स्तम्भचिह्नों और कृत्रिम पहाड़ियों तक तट पर की सुन्दर मूर्तियों का परतिबिम्ब दिखाई देता था। उपवन के मध्य में 'परियों का कुंज' था। यह नाम इसलिए पड़ा था कि उस भवन के द्वार पर तीन पूरे कद की स्त्रियों की मूर्तियां खड़ी थीं। वह सशंक होकर पीछे ताक रही थीं कि कोई देखता न हो। मूर्तिकार ने उनकी चितवनों द्वारा मूर्तियों में जान डाल दी थी। भवन में जो परकाश आता था वह पानी की पतली चादरों से छनकर मद्धिम और रंगीन हो जाता था। दीवारों पर भांतिभांति की झालरें, मालाएं और चित्र लटके हुए थे। बीच में एक हाथीदांत की परम मनोहर मूर्ति थी जो निसियास ने भेंट की थी। एक तिपाई पर एक काले ष्पााण की बकरी की मूर्ति थी, जिसकी आंखें नीलम की बनी हुई थीं। उसके थनों को घेरे हुए छः चीनी के बच्चे खड़े थे, लेकिन बकरी अपने फटे हुए खुर उठाकर ऊपर की पहाड़ी पर उचक जाना चाहती थी। फर्श पर ईरानी कालीनें बिछी हुई थीं, मसनदों पर कैथे के बने हुए सुनहरे बेलबूटे थे। सोने के धूपदान से सुगन्धित धुएं उठ रहे थे, और बड़ेबड़े चीनी गमलों में फूलों से लदे हुए पौधे सजाये हुए थे। सिरे पर, ऊदी छाया में, एक बड़े हिन्दुस्तानी कछुए के सुनहरे नख चमक रहे थे जो पेट के बल उलट दिया गया था। यही थायस का शयनागार था। इसी कछुए के पेट पर लेटी हुई वह इस सुगन्ध और सजावट और सुषमा का आनन्द उठाती थी, मित्रों से बातचीत करती थी और या तो अभिनयकला का मनन करती थी, या बीते हुए दिनों का। तीसरा पहर था। थायस परियों के कुंज में शयन कर रही थी। उसने आईने में अपने सौन्दर्य की अवनति के परथम चिह्न देखे थे, और उसे इस विचार से पीड़ा हो रही थी कि झुर्रियों और श्वेत बालों का आक्रमण होने वाला है उसने इस विचार से अपने को आश्वासन देने की विफल चेष्टा की कि मैं जड़ीबूटियों के हवन करके मंत्रों द्वारा अपने वर्ण की कोमलता को फिर से पराप्त कर लूंगी। उसके कानों में इन शब्दों की निर्दय ध्वनि आयी-'थायस, तू बुयि हो जायेगी !' भय से उसके माथे पर ठण्डाठण्ड
ा पसीना आ गया। तब उसने पुनः अपने को संभालकर आईने में देखा और उसे ज्ञात हुआ कि मैं अब भी परम सुन्दरी और परेयसी बनने के योग्य हूं। उसने पुलकित मन से मुस्कराकर मन में कहा-आज भी इस्कन्द्रिया में काई ऐसी रमणी नहीं है जो अंगों की चपलता और लचक में मुझसे टक्कर ले सके। मेरी बांहों की शोभा अब भी हृदय को खींच सकती है, यथार्थ में यही परेम का पाश है ! वह इसी विचार में मग्न थी कि उसने एक अपरिचित मनुष्य को अपने सामने आते देखा। उसकी आंखों में ज्वाला थी, दा़ी ब़ी हुई थी और वस्त्र बहुमूल्य थे। उसके हाथ में आईना छूटकर गिर पड़ा और वह भय से चीख उठी। पापनाशी स्तम्भित हो गया। उसका अपूर्व सौन्दर्य देखकर उसने शुद्ध अन्तःकरण से परार्थना की-भगवान मुझे ऐसी शक्ति दीजिए कि इस स्त्री का मुख मुझे लुब्ध न करे, वरन तेरे इस दास की परतिज्ञा को और भी दृ़ करे। तब अपने को संभालकर वह बोला-'थायस, मैं एक दूर देश में रहता हूं, तेरे सौन्दर्य की परशंसा सुनकर तेरे पास आया हूं। मैंने सुना था तुमसे चतुर अभिनेत्री और तुमसे मुग्धकर स्त्री संसार में नहीं है। तुम्हारे परेमरहस्यों और तुम्हारे धन के विषय में जो कुछ कहा जाता है वह आश्चर्यजनक है, और उससे 'रोडोप' की कथा याद आती है, जिसकी कीर्ति को नील के मांझी नित्य गाया करते हैं। इसलिए मुझे भी तुम्हारे दर्शनों की अभिलाषा हुई और अब मैं देखता हूं कि परत्यक्ष सुनीसुनाई बातों से कहीं ब़कर है। जितना मशहूर है उससे तुम हजार गुना चतुर और मोहिनी हो। वास्तव में तुम्हारे सामने बिना मतवालों की भांति डगमगाये आना असम्भव है।' यह शब्द कृत्रिम थे, किन्तु योगी ने पवित्र भक्ति से परभावित होकर सच्चे जोश से उनका उच्चारण किया। थायस ने परसन्न होकर इस विचित्र पराणी की ओर ताका जिससे वह पहले भयभीत हो गयी थ
ी। उसके अभद्र और उद्दण्ड वेश ने उसे विस्मित कर दिया। उसे अब तक जितने मनुष्य मिले थे, यह उन सबों से निराला था। उसके मन में ऐसे अद्भुत पराणी के जीवनवृत्तान्त जानने की परबल उत्कंठा हुई। उसने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा-'महाशय, आप परेमपरदर्शन में बड़े कुशल मालूम होते हैं। होशियार रहियेगा कि मेरी चितबनें आपके हृदय के पार न हो जायें। मेरे परेम के मैदान में जरा संभलकर कदम रखियेगा।' पापनाशी बोला-'थामस, मुझे तुमसे अगाध परेम है। तुम मुझे जीवन और आत्मा से भी पिरय हो। तुम्हारे लिए मैंने अपना वन्यजीवन छोड़ा है, तुम्हारे लिए मेरे होंठों से, जिन्होंने मौनवरत धारण किया था, अपवित्र शब्द निकले हैं। तुम्हारे लिए मैंने वह देखा जो न देखना चाहिए था, वह सुना है जो मेरे लिए वर्जित था। तुम्हारे लिए मेरी आत्मा तड़प रही है, मेरा हृदय अधीर हो रहा है और जलस्त्रोत की भांति विचार की धाराएं परवाहित हो रही हैं। तुम्हारे लिए मैं अपने नंगे पैर सर्पों और बिच्छुओं पर रखते हुए भी नहीं हिचका हूं। अब तुम्हें मालूम हो गया होगा कि मुझे तुमसे कितना परेम है। लेकिन मेरा परेम उन मनुष्यों कासा नहीं है जो वासना की अग्नि से जलते हुए तुम्हारे पास जीवभक्षी व्याघरों की, और उन्मत्त सांड़ों की भांति दौड़े आते हैं। उनका वही परेम होता है जो सिंह को मृगशावक से। उनकी पाशविक कामलिप्सा तुम्हारी आत्मा को भी भस्मीभूत कर डालेगी। मेरा परेम पवित्र है, अनन्त है, स्थायी है। मैं तुमसे ईश्वर के नाम पर, सत्य के नाम पर परेम करता हूं। मेरा हृदय पतितोद्घार और ईश्वरीय दया के भाव से परिपूर्ण है। मैं तुम्हें फलों से की हुई शराब की मस्ती से और एक अल्परात्रि के सुखस्वप्न से कहीं उत्तम पदार्थों का वचन देने आया हूं। मैं तुम्हें महापरसाद और सुधारसपान का निमन्त्रण देने आया हूं। मैं तुम्हें उस आनन्द का सुखसंवाद सुनाने आया हूं जो नित्य, अमर, अखण्ड है। मृत्युलोक के पराणी यदि उसको देख लें तो आश्चर्य से भर जायें।' थायस ने कुटिल हास्य करके उत्तर दिया-'मित्र, यदि वह ऐसा अद्भुत परेम है तो तुरन्त दिखा दो। एक क्षण भी विलम्ब न करो। लम्बीलम्बी वक्तृताओं से मेरे सौन्दर्य का अपमान होगा। मैं आनन्द का स्वाद उठाने के लिए रो रही हूं। किन्तु जो मेरे दिल की बात पूछो, तो मुझे इस कोरी परशंसा के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा। वादे करना आसान है; उन्हें पूरा करना मुश्किल है। सभी मनष्यों में कोईन-कोई गुण विशेष होता है। ऐसा मालूम होता है कि तुम वाणी में निपुण हो। तुम एक अज्ञात परेम का वचन देते हो। मुझे यह व्यापार करते इतने दिन हो गये और उसका इतना अनुभव हो गया है कि अब उसमें किसी नवीनता की किसी रहस्य की आशा नहीं रही। इस विषय का ज्ञान परेमियों को दार्शनिकों से अधिक होता है।' 'थायस, दिल्लगी की बात नहीं है, मैं तुम्हारे लिए अछूता परेम लाया हूं।' 'मित्र, तुम बहुत देर में आये। मैं सभी परकार के परेमों का स्वाद ले चुकी हूं।' 'मैं जो परेम लाया हूं, वह उज्ज्वल है, श्रेय है! तुम्हें
जिस परेम का अनुभव हुआ है वह निंद्य और त्याज्य है।' थायस ने गर्व से गर्दन उठाकर कहा-'मित्र, तुम मुंहफट जान पड़ते हो। तुम्हें गृहस्वामिनी के परति मुख से ऐसे शब्द निकालने में जरा भी संकोच नहीं होता ? मेरी ओर आंख उठाकर देखो और तब बताओ कि मेरा स्वरूप निन्दित और पतित पराणियों ही कासा है। नहीं, मैं अपने कृत्यों पर लज्जित नहीं हूं। अन्य स्त्रियां भी, जिनका जीवन मेरे ही जैसा है, अपने को नीच और पतित नहीं समझतीं, यद्यपि, उनके पास न इतना धन है और न इतना रूप। सुख मेरे पैरों के नीचे आंखें बिछाये रहता है, इसे सारा जगत जानता है। मैं संसार के मुकुटधारियों को पैर की धूलि समझती हूं। उन सबों ने इन्हीं पैरों पर शीश नवाये हैं। आंखें उठाओ। मेरे पैरों की ओर देखो। लाखों पराणी उनका चुम्बन करने के लिए अपने पराण भेंट कर देंगे। मेरा डीलडौल बहुत बड़ा नहीं है, मेरे लिए पृथ्वी पर बहुत स्थान की जरूरत नहीं। जो लोग मुझे देवमन्दिर के शिखर पर से देखते हैं, उन्हें मैं बालू के कण के समान दीखती हूं, पर इस कण ने मनुष्यों में जितनी ईष्यार्, जितना द्वेष, जितनी निराशा, जितनी अभिलाषा और जितने पापों का संचार किया है उनके बोझ से अटल पर्वत भी दब जायेगा। जब मेरी कीर्ति समस्त संसार में परसारित हो रही है तो तुम्हारी लज्जा और निद्रा की बात करना पागलपन नहीं तो और क्या है ?' पापनाशी ने अविचलित भाव से उत्तर दिया-'सुन्दरी, यह तुम्हारी भूल है। मनुष्य जिस बात की सराहना करते हैं वह ईश्वर की दृष्टि में पाप है। हमने इतने भिन्नभिन्न देशों में जन्म लिया है कि यदि हमारी भाषा और विचार अनुरूप न हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूं कि मैं तुम्हारे पास से जाना नहीं चाहता। कौन मेरे मुख में ऐसे आग्नेय शब्दों
को परेरित करेगा जो तुम्हें मोम की भांति पिघला दें कि मेरी उंगलियां तुम्हें अपनी इच्छा के अनुसार रूप दे सकें ? ओ नारीरत्न ! यह कौनसी शक्ति है जो तुम्हें मेरे हाथों में सौंप देगी कि मेरे अन्तःकरण में निहित सद्परेरणा तुम्हारा पुनसरंस्कार करके तुम्हें ऐसा नया और परिष्कृत सौन्दर्य परदान करे कि तुम आनन्द से विह्वल हो पुकार उठो, मेरा फिर से नया संस्कार हुआ ? कौन मेरे हृदय में उस सुधास्त्रोत को परवाहित करेगा कि तुम उसमें नहाकर फिर अपनी मौलिक पवित्रता लाभ कर सको ? कौन मुझे मर्दन की निर्मल धारा में परिवर्तित कर देगा जिसकी लहरों का स्पर्श तुम्हें अनन्त सौन्दर्य से विभूषित कर दे ?' थायस का क्रोध शान्त हो गया। उसने सोचा-यह पुरुष अनन्त जीवन के रहस्यों में परिचित है, और जो कुछ वह कह सकता है उसमें ऋषिवाक्यों कीसी परतिभा है। यह अवश्य कोई कीमियागर है और ऐसे गुप्तमन्त्र जानता है जो जीर्णावस्था का निवारण कर सकते हैं। उसने अपनी देह को उसकी इच्छाओं को समर्पित करने का निश्चय कर लिया। वह एक सशंक पक्षी की भांति कई कदम पीछे हट गयी और अपने पलंग पट्टी पर बैठकर उसकी परतीक्षा करने लगी। उसकी आंखें झुकी हुई थीं और लम्बी पलकों की मलिन छाया कपालों पर पड़ रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि कोई बालक नदी के किनारे बैठा हुआ किसी विचार में मग्न है। किन्तु पापनाशी केवल उसकी ओर टकटकी लगाये ताकता रहा, अपनी जगह से जौ भर भी न हिला। उसके घुटने थरथरा रहे थे और मालूम होता था कि वे उसे संभाल न सकेंगे। उसका तालू सूख गया था, कानों में तीवर भनभनाहट की आवाज आने लगी। अकस्मात उसकी आंखों के सामने अन्धकार छा गया, मानो समस्त भवन मेघाच्छादित हो गया है। उसे ऐसा भाषित हुआ कि परभु मसीह ने इस स्त्री को छिपाने के निमित्त उसकी आंखों पर परदा डाल दिया है। इस गुप्त करावलम्ब से आश्वस्त और सशक्त होकर उसने ऐसे गम्भीर भाव से कहा जो किसी वृद्ध तपस्वी के यथायोग्य था-क्या तुम समझती हो कि तुम्हारा यह आत्महनन ईश्वर की निगाहों से छिपा हुआ है ?' उसने सिर हिलाकर कहा-'ईश्वर ? ईश्वर से कौन कहता है कि सदैव परियों के कुंज पर आंखें जमाये रखे ? यदि हमारे काम उसे नहीं भाते तो वह यहां से चला क्यों नहीं जाता ? लेकिन हमारे कर्म उसे बुरे लगते ही क्यों हैं ? उसी ने हमारी सृष्टि की है। जैसा उसने बनाया है वैसे ही हम हैं। जैसी वृत्तियां उसने हमें दी हैं उसी के अनुसार हम आचरण करते हैं ! फिर उसे हमसे रुष्ट होने का, अथवा विस्मित होने का क्या अधिकार है ? उसकी तरफ से लोग बहुतसी मनग़न्त बातें किया करते हैं और उसको ऐसेऐसे विचारों का श्रेय देते हैं जो उसके मन में कभी न थे। तुमको उसके मन की बातें जानने का दावा है। तुमको उसके चरित्र का यथार्थ ज्ञान है। तुम कौन हो कि उसके वकील बनकर मुझे ऐसीऐसी आशाएं दिलाते हो ?' पापनाशी ने मंगनी के बहुमूल्य वस्त्र उतारकर नीचे का मोटा कुरता दिखाते हुए कहा-'मैं धमार्श्रम का योगी हूं। मेरा नाम पापनाशी है। मैं उसी पवित्र तपोभूमि से आ रह
ा हूं। ईश्वर की आज्ञा से मैं एकान्तसेवन करता हूं। मैंने संसार से और संसार के पराणियों से मुंह मोड़ लिया था। इस पापमय संसार में निर्लिप्त रहना ही मेरा उद्दिष्ट मार्ग है। लेकिन तेरी मूर्ति मेरी शान्तिकुटीर में आकर मेरे सम्मुख खड़ी हुई और मैंने देखा कि तू पाप और वासना में लिप्त है, मृत्यु तुझे अपना गरास बनाने को खड़ी है। मेरी दया जागृत हो गयी और तेरा उद्घार करने के लिए आ उपस्थित हुआ हूं। मैं तुझे पुकारकर कहता हूं-थायस, उठ, अब समय नहीं है।' योगी के यह शब्द सुनकर थायस भय से थरथर कांपने लगी। उसका मुख श्रीहीन हो गया, वह केश छिटकाये, दोनों हाथ जोड़े रोती और विलाप करती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ी और बोली-'महात्मा जी, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए। आप यहां क्यों आये हैं ? आपकी क्या इच्छा है ? मेरा सर्वनाश न कीजिए। मैं जानता हूं कि तपोभूमि के ऋषिगण हम जैसी स्त्रियों से घृणा करते हैं, जिनका जन्म ही दूसरों को परसन्न रखने के लिए होता है। मुझे भय हो रहा है कि आप मुझसे घृणा करते हैं और मेरा सर्वनाश करने पर उद्यत हैं। कृपया यहां से सिधारिए। मैं आपकी शक्ति और सिद्धि के सामने सिर झुकाती हूं। लेकिन आपका मुझ पर कोप करना उचित नहीं है, क्योंकि मैं अन्य मनुष्यों की भांति आप लोगों की भिक्षावृत्ति और संयम की निन्दा नहीं करती। आप भी मेरे भोगविलास को पाप न समझिए। मैं रूपवती हूं और अभिनय करने में चतुर हूं। मेरा काबू न अपनी दशा पर है, और न अपनी परकृति पर। मैं जिस काम के योग्य बनायी गयी हूं वही करती हूं। मनुष्यों की मुग्ध करने ही के निमित्त मेरी सृष्टि हुई है। आप भी तो अभी कह रहे थे कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं। अपनी सिद्धियों से मेरा अनुपकार न कीजिए। ऐसा मन्त्र न चलाइए कि मेरा सौन्दर्य नष्ट हो जाय, या मैं
पत्थर तथा नमक की मूर्ति बन जाऊं। मुझे भयभीत न कीजिए। मेरे तो पहले ही से पराण सूखे हुए हैं। मुझे मौत का मुंह न दिखाइए, मुझे मौत से बहुत डर लगता है।' पापनाशी ने उसे उठने का इशारा किया और बोला-'बच्चा, डर मत। तेरे परति अपमान या घृणा का शब्द भी मेरे मुंह से न निकलेगा। मैं उस महान पुरुष की ओर से आया हूं, जो पापियों को गले लगाता था, वेश्याओं के घर भोजन करता था, हत्यारों से परेम करता था, पतितों को सान्त्वना देता था। मैं स्वयं पापमुक्त नहीं हूं कि दूसरों पर पत्थर फेंकूं। मैंने कितनी ही बार उस विभूति का दुरुपयोग किया है जो ईश्वर ने मुझे परदान की है। क्रोध ने मुझे यहां आने पर उत्साहित नहीं किया। मैं दया के वशीभूत होकर आया हूं। मैं निष्कपट भाव से परेम के शब्दों में तुझे आश्वासन दे सकता हूं, क्योंकि मेरा पवित्र धर्मस्नेह ही मुझे यहां लाया है। मेरे हृदय में वात्सल्य की अग्नि परज्वलित हो रही है और यदि तेरी आंखें जो विषय के स्थूल, अपवित्र दृश्यों के वशीभूत हो रही हैं, वस्तुओं को उनके आध्यात्मिक रूप में देखतीं तो तुझे विदित होता कि मैं उस जलती हुई झाड़ी का एक पल्लव हूं जो ईश्वर ने अपने परेम का परिचय देने के लिए मूसा को पर्वत पर दिखाई थी-जो समस्त संसार में व्याप्त है, और जो वस्तुओं को भस्म कर देने के बदले, जिस वस्तु में परवेश करती है उसे सदा के लिए निर्मल और सुगन्धमय बना देती है।' थायस ने आश्वस्त होकर कहा-'महात्मा जी, अब मुझे आप पर विश्वास हो गया है। मुझे आपसे किसी अनिष्ट या अमंगल की आशंका नहीं है। मैंने धमार्श्रम के तपस्वियों की बहुत चचार सुनी है। ऐण्तोनी और पॉल के विषय में बड़ी अद्भुत कथाएं सुनने में आयी हैं। आपके नाम से भी मैं अपरिचित नहीं हूं और मैंने लोगों को कहते सुना है कि यद्यपि आपकी उमर अभी कम है, आप धर्मनिष्ठा में उन तपस्वियों से भी श्रेष्ठ हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन ईश्वर आराधना में व्यतीत किया। यद्यपि मेरा अपसे परिचय न था, किन्तु आपको देखते ही मैं समझ गयी कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। बताइये, आप मुझे वह वस्तु परदान कर सकते हैं जो सारे संसार के सिद्ध और साधु, ओझे और सयाने, कापालिक और वैतालिक नहीं कर सके ? आपके पास मौत की दवा है ? आप मुझे अमर जीवन दे सकते हैं ? यही सांसारिक इच्छाओं का सप्तम स्वर्ग है।' पापनाशी ने उत्तर दिया-'कामिनी, अमर जीवन लाभ करना परत्येक पराणी की इच्छा के अधीन है। विषयवासनाओं को त्याग दे, जो तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहे हैं। उस शरीर को पिशाचों के पंजे से छुड़ा ले जिसे ईश्वर ने अपने मुंह के पानी से साना और अपने श्वास से जिलाया, अन्यथा परेत और पिशाच उसे बड़ी क्रुरता से जलायेंगे। नित्य के विलास से तेरे जीवन का स्त्रोत क्षीण हो गया है। आ, और एकान्त के पवित्र सागर में उसे फिर परवाहित कर दे। आ, और मरुभूमि में छिपे हुए सोतों का जल सेवन कर जिनका उफान स्वर्ग तक पहुंचता है। ओ चिन्ताओं में डूबी हुई आत्मा ! आ, अपनी इच्छित वस्तु को पराप्त कर ! जो आन
न्द की भूखी स्त्री ! आ, और सच्चे आनन्द का आस्वादन कर। दरिद्रता का, विराग का, त्याग कर, ईश्वर के चरणों में आत्मसमर्पण कर ! आ, ओ स्त्री, जो आज परभु मसीह की द्रोहिणी है, लेकिन कल उसको परेयसी होगी। आ, उसका दर्शन कर, उसे देखते ही तू पुकार उठेगी-मुझे परेमधन मिल गया !' थामस भविष्यचिन्तन में खोयी हुई थी। बोली-'महात्मा, अगर मैं जीवन के सुखों को त्याग दूं और कठिन तपस्या करुं तो क्या यह सत्य है कि मैं फिर जन्म लूंगी और मेरे सौन्दर्य को आंच न आयेगी ?' पापनाशी ने कहा-'थायस, मैं तेरे लिए अनन्तजीवन का सन्देश लाया हूं। विश्वास कर, मैं जो कुछ कहता हूं, सर्वथा सत्य है।' थायस-'मुझे उसकी सत्यता पर विश्वास क्योंकर आये ?' पापनाशी-'दाऊद और अन्य नबी उसकी साक्षी देंगे, तुझे अलौकिक दृश्य दिखाई देंगे, वह इसका समर्थन करेंगे।' थायस-'योगी जी, आपकी बातों से मुझे बहुत संष्तोा हो रहा है, क्योंकि वास्तव में मुझे इस संसार में सुख नहीं मिला। मैं किसी रानी से कम नहीं हूं, किन्तु फिर भी मेरी दुराशाओं और चिन्ताओं का अन्त नहीं है। मैं जीने से उकता गयी हूं। अन्य स्त्रियां मुझ पर ईष्यार करती हैं, पर मैं कभीकभी उस दुःख की मारी, पोपली बुयि पर ईष्यार करती हूं जो शहर के फाटक की छांह में बैठी तलाशे बेचा करती है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि गरीब ही सुखी, सज्जन और सच्चे होते हैं, और दीन, हीन, निष्परभ रहने में चित्त को बड़ी शान्ति मिलती है। आपने मेरी आत्मा में एक तूफानसा पैदा कर दिया है और जो नीचे दबी पड़ी थी उसे ऊपर कर दिया है। हां ! मैं किसका विश्वास करुं ? मेरे जीवन का क्या अन्त होगा-जीवन ही क्या है ?' पापनाशी ने उसे उठने का इशारा किया और बोला-'बच्चा, डर मत। तेरे परति अपमान या घृणा का शब्द भी मेरे मुंह से न निकलेगा
। मैं उस महान पुरुष की ओर से आया हूं, जो पापियों को गले लगाता था, वेश्याओं के घर भोजन करता था, हत्यारों से परेम करता था, पतितों को सान्त्वना देता था। मैं स्वयं पापमुक्त नहीं हूं कि दूसरों पर पत्थर फेंकूं। मैंने कितनी ही बार उस विभूति का दुरुपयोग किया है जो ईश्वर ने मुझे परदान की है। क्रोध ने मुझे यहां आने पर उत्साहित नहीं किया। मैं दया के वशीभूत होकर आया हूं। मैं निष्कपट भाव से परेम के शब्दों में तुझे आश्वासन दे सकता हूं, क्योंकि मेरा पवित्र धर्मस्नेह ही मुझे यहां लाया है। मेरे हृदय में वात्सल्य की अग्नि परज्वलित हो रही है और यदि तेरी आंखें जो विषय के स्थूल, अपवित्र दृश्यों के वशीभूत हो रही हैं, वस्तुओं को उनके आध्यात्मिक रूप में देखतीं तो तुझे विदित होता कि मैं उस जलती हुई झाड़ी का एक पल्लव हूं जो ईश्वर ने अपने परेम का परिचय देने के लिए मूसा को पर्वत पर दिखाई थी-जो समस्त संसार में व्याप्त है, और जो वस्तुओं को भस्म कर देने के बदले, जिस वस्तु में परवेश करती है उसे सदा के लिए निर्मल और सुगन्धमय बना देती है।' थायस ने आश्वस्त होकर कहा-'महात्मा जी, अब मुझे आप पर विश्वास हो गया है। मुझे आपसे किसी अनिष्ट या अमंगल की आशंका नहीं है। मैंने धमार्श्रम के तपस्वियों की बहुत चचार सुनी है। ऐण्तोनी और पॉल के विषय में बड़ी अद्भुत कथाएं सुनने में आयी हैं। आपके नाम से भी मैं अपरिचित नहीं हूं और मैंने लोगों को कहते सुना है कि यद्यपि आपकी उमर अभी कम है, आप धर्मनिष्ठा में उन तपस्वियों से भी श्रेष्ठ हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन ईश्वर आराधना में व्यतीत किया। यद्यपि मेरा अपसे परिचय न था, किन्तु आपको देखते ही मैं समझ गयी कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। बताइये, आप मुझे वह वस्तु परदान कर सकते हैं जो सारे संसार के सिद्ध और साधु, ओझे और सयाने, कापालिक और वैतालिक नहीं कर सके ? आपके पास मौत की दवा है ? आप मुझे अमर जीवन दे सकते हैं ? यही सांसारिक इच्छाओं का सप्तम स्वर्ग है।' पापनाशी ने उत्तर दिया-'कामिनी, अमर जीवन लाभ करना परत्येक पराणी की इच्छा के अधीन है। विषयवासनाओं को त्याग दे, जो तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहे हैं। उस शरीर को पिशाचों के पंजे से छुड़ा ले जिसे ईश्वर ने अपने मुंह के पानी से साना और अपने श्वास से जिलाया, अन्यथा परेत और पिशाच उसे बड़ी क्रुरता से जलायेंगे। नित्य के विलास से तेरे जीवन का स्त्रोत क्षीण हो गया है। आ, और एकान्त के पवित्र सागर में उसे फिर परवाहित कर दे। आ, और मरुभूमि में छिपे हुए सोतों का जल सेवन कर जिनका उफान स्वर्ग तक पहुंचता है। ओ चिन्ताओं में डूबी हुई आत्मा ! आ, अपनी इच्छित वस्तु को पराप्त कर ! जो आनन्द की भूखी स्त्री ! आ, और सच्चे आनन्द का आस्वादन कर। दरिद्रता का, विराग का, त्याग कर, ईश्वर के चरणों में आत्मसमर्पण कर ! आ, ओ स्त्री, जो आज परभु मसीह की द्रोहिणी है, लेकिन कल उसको परेयसी होगी। आ, उसका दर्शन कर, उसे देखते ही तू पुकार उठेगी-मुझे परेमधन मिल गया !'
थामस भविष्यचिन्तन में खोयी हुई थी। बोली-'महात्मा, अगर मैं जीवन के सुखों को त्याग दूं और कठिन तपस्या करुं तो क्या यह सत्य है कि मैं फिर जन्म लूंगी और मेरे सौन्दर्य को आंच न आयेगी ?' पापनाशी ने कहा-'थायस, मैं तेरे लिए अनन्तजीवन का सन्देश लाया हूं। विश्वास कर, मैं जो कुछ कहता हूं, सर्वथा सत्य है।' थायस-'मुझे उसकी सत्यता पर विश्वास क्योंकर आये ?' पापनाशी-'दाऊद और अन्य नबी उसकी साक्षी देंगे, तुझे अलौकिक दृश्य दिखाई देंगे, वह इसका समर्थन करेंगे।' थायस-'योगी जी, आपकी बातों से मुझे बहुत संष्तोा हो रहा है, क्योंकि वास्तव में मुझे इस संसार में सुख नहीं मिला। मैं किसी रानी से कम नहीं हूं, किन्तु फिर भी मेरी दुराशाओं और चिन्ताओं का अन्त नहीं है। मैं जीने से उकता गयी हूं। अन्य स्त्रियां मुझ पर ईष्यार करती हैं, पर मैं कभीकभी उस दुःख की मारी, पोपली बुयि पर ईष्यार करती हूं जो शहर के फाटक की छांह में बैठी तलाशे बेचा करती है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि गरीब ही सुखी, सज्जन और सच्चे होते हैं, और दीन, हीन, निष्परभ रहने में चित्त को बड़ी शान्ति मिलती है। आपने मेरी आत्मा में एक तूफानसा पैदा कर दिया है और जो नीचे दबी पड़ी थी उसे ऊपर कर दिया है। हां ! मैं किसका विश्वास करुं ? मेरे जीवन का क्या अन्त होगा-जीवन ही क्या है ?' वह यह बातें कर रही थी कि पापनाशी के मुख पर तेज छा गया, सारा मुखमंडल आदि ज्योति से चमक उठा, उसके मुंह से यह परतिभाशाली वाक्य निकले-'कामिनी, सुन, मैंने जब इस घर में कदम रखा तो मैं अकेला न था। मेरे साथ कोई और भी था और वह अब भी मेरे बगल में खड़ा है। तू अभी उसे नहीं देख सकती, क्योंकि तेरी आंखों में इतनी शक्ति नहीं है। लेकिन शीघर ही स्वगीर्य परतिभा से तू उसे आलोकित देखेगी और तेरे
मुंह से आपही-आप निकल पड़ेगा-यही मेरा आराध्य देव है। तूने अभी उसकी आलौकिक शक्ति देखी ! अगर उसने मेरी आंखों के सामने अपने दयालु हाथ न फैला दिये होते तो अब तक मैं तेरे साथ पापाचरण कर चुका होता; क्योंकि स्वतः मैं अत्यन्त दुर्बल और पापी हूं। लेकिन उसने हम दोनों की रक्षा की। वह जितना ही शक्तिशाली है उतना ही दयालु है और उसका नाम है मुक्तिदाता। दाऊद और अन्य नबियों ने उसके आने की खबर दी थी, चरवाहों और ज्योतिषियों ने हिंडोले में उसके सामने शीश झुकाया था। फरीसियों ने उसे सलीब पर च़ाया, फिर वह उठकर स्वर्ग को चला गया। तुझे मृत्यु से इतना सशंक देखकर वह स्वयं तेरे घर आया है कि तुझे मृत्यु से बचा ले। परभु मसीह ! क्या इस समय तुम यहां उपस्थित नहीं हो, उसी रूप में जो तुमने गैलिली के निवासियों को दिखाया था। कितना विचित्र समय था बैतुलहम के बालक तारागण को हाथ में लेकर खेलते थे जो उस समय धरती के निकट ही स्थित थे। परभु मसीह, क्या यह सत्य नहीं है कि तुम इस समय यहां उपस्थित हो और मैं तुम्हारी पवित्र देह को परत्यक्ष देख रहा हूं ? क्या तेरी दयालु कोमल मुखारबिन्द यहां नहीं है ? और क्या वह आंसू जो तेरे गालों पर बह रहे हैं, परत्यक्ष आंसू नहीं हैं ? हां, ईश्वरीय न्याय का कर्त्ता उन मोतियों के लिए हाथ रोपे खड़ा है और उन्हीं मोतियों से थायस की आत्मा की मुक्ति होगी। परभु मसीह, क्या तू बोलने के लिए होंठ नहीं खोले हुए है ? बोल, मैं सुन रहा हूं ! और थायस, सुलक्षण थायस सुन, परभु मसीह तुझसे क्या कह रहे हैं-ऐ मेरी भटकी हुई मेषसुन्दरी, मैं बहुत दिनों से तेरी खोज में हूं। अन्त में मैं तुझे पा गया। अब फिर मेरे पास से न भागना। आ, मैं तेरा हाथ पकड़ लूं और अपने कन्धों पर बिठाकर स्वर्ग के बाड़े में ले चलूं। आ मेरी थायस, मेरी पिरयतमा, आ ! और मेरे साथ रो।' यह कहतेकहते पापनाशी भक्ति से विह्वल होकर जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आंखों से आत्मोल्लास की ज्योतिरेखाएं निकलने लगीं। और थायस को उसके चेहरे पर जीतेजागते मसीह का स्वरूप दिखाई दिया। वह करुण क्रंदन करती हुई बोली-'ओ मेरी बीती हुई बाल्यावस्था, ओ मेरे दयालु पिता अहमद ! ओ सन्त थियोडोर, मैं क्यों न तेरी गोद में उसी समय मर गयी जब तू अरुणोदय के समय मुझे अपनी चादर में लपेटे लिये आता था और मेरे शरीर से वपतिस्मा के पवित्र जल की बूंदें टपक रही थीं।' पापनाशी यह सुनकर चौंक पड़ा मानो कोई अलौकिक घटना हो गयी है और दोनों हाथ फैलाये हुए थायस की ओर यह कहते हुए ब़ा-'भगवान्, तेरी महिमा अपार है। क्या तू बपतिस्मा के जल से प्लावित हो चुकी है ? हे परमपिता, भक्तवत्सल परभु, ओ बुद्धि के अगाध सागर ! अब मुझे मालूम हुआ कि वह कौनसी शक्ति थी जो मुझे तेरे पास खींचकर लायी। अब मुझे ज्ञात हुआ कि वह कौनसा रहस्य था जिसने तुझे मेरी दृष्टि में इतना सुन्दर, इतना चित्ताकर्षक बना दिया था। अब मुझे मालूम हुआ कि मैं तेरे परेमपाश में क्यों इस भांति जकड़ गया था कि अपना शान्तिवास छोड़ने पर विवश हुआ
। इसी बपतिस्माजल की महिमा थी जिसने मुझे ईश्वर के द्वार को छुड़ाकर मुझे खोजने के लिए इस विषाक्त वायु से भरे हुए संसार में आने पर बाध्य किया जहां मायामोह में फंसे हुए लोग अपना कलुषित जीवन व्यतीत करते हैं। उस पवित्र जल की एक बूंद-केवल एक ही बूंद मेरे मुख पर छिड़क दी गयी है जिसमें तूने स्नान किया था। आ, मेरी प्यारी बहिन, आ, और अपने भाई के गले लग जा जिसका हृदय तेरा अभिवादन करने के लिए तड़प रहा है।' यह कहकर पापनाशी ने बारांगना के सुन्दर ललाट को अपने होंठों से स्पर्श किया। इसके बाद वह चुप हो गया कि ईश्वर स्वयं मधुर, सांत्वनापरद शब्दों में थायस को अपनी दयालुता का विश्वास दिलाये। और 'परियों के रमणीक कुंज' में थायस की सिसकियों के सिवा, जो जलधारा की कलकल ध्वनि से मिल गयी थीं, और कुछ न सुनाई दिया। वह इसी भांति देर तक रोती रही। अश्रुपरवाह को रोकने का परयत्न उसने न किया। यहां तक कि उसके हब्शी गुलाम सुन्दर वस्त्र; फूलों के हार और भांतिभांति के इत्र लिये आ पहुंचे। उसने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा-'अरे रोने का समय बिल्कुल नहीं रहा। आंसुओं से आंखें लाल हो जाती हैं, और उनमें चित्त को विकल करने वाला पुष्प विकास नहीं रहता, चेहरे का रंग फीका पड़ जाता है, वर्ण की कोमलता नष्ट हो जाती है। मुझे आज कई रसिक मित्रों के साथ भोजन करना है। मैं चाहती हूं कि मेरी मुखचन्द्र सोलहों कला से चमके, क्योंकि वहां कई ऐसी स्त्रियां आयेंगी जो मेरे मुख पर चिन्ता या ग्लानि के चिह्न को तुरन्त भांप जायेंगी और मन में परसन्न होंगी कि अब इनका सौन्दर्य थोड़े ही दिनों का और मेहमान है, नायिका अब परौ़ा हुआ चाहती है। ये गुलाम मेरा शृंगार करने आये हैं। पूज्य पिता आप कृपया दूसरे कमरे में जा बैठिए और इन दोनों को अपना काम करने दीजिए।
यह अपने काम में बड़े परवीण और कुशल हैं। मैं उन्हें यथेष्ट पुरस्कार देती हूं। वह जो सोने की अंगूठियां पहने हैं और जिनके मोती केसे दांत चमक रहे हैं, उसे मैंने परधानमन्त्री की पत्नी से लिया है।' पापनाशी की पहले तो यह इच्छा हुई कि थायस को इस भोज में सम्मिलित होने से यथाशक्ति रोके। पर पुनः विचार किया तो विदित हुआ कि यह उतावली का समय नहीं है। वर्षों का जमा हुआ मनोमालिन्य एक रगड़ से नहीं दूर हो सकता। रोग का मूलनाश शनैःशनैः, क्रमक्रम से ही होगा। इसलिए उसने धमोर्त्साह के बदले बुद्धिमत्ता से काम लेने का निश्चय किया और पूछा-वाह किनकिन मनुष्यों से भेंट होगी ? उसने उत्तर दिया-'पहले तो वयोवृद्ध कोटा से भेंट होगी जो यहां के जलसेना के सेनापति हैं। उन्हीं ने यह दावत दी है। निसियास और अन्य दार्शनिक भी आयेंगे जिन्हें किसी विषय की मीमांसा करने ही में सबसे अधिक आनन्द पराप्त होता है। इनके अतिरिक्त कविसमाजभूषण कलिक्रान्त, और देवमन्दिर के अध्यक्ष भी आयेंगे। कई युवक होंगे जिनको घोड़े निकालने ही में परम आनन्द आता है और कई स्त्रियां मिलेंगी जिनके विषय में इसके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे युवतियां हैं।' पापनाशी ने ऐसी उत्सुकता से जाने की सम्मति दी मानो उसे आकाशवाणी हुई है। बोला-'तो अवश्य जाओ थायस, अवश्य जाओ। मैं तुम्हें सहर्ष आज्ञा देता हूं। लेकिन मैं तेरा साथ न छोडूंगा। मैं भी इस दावत में तुम्हारे साथ चलूंगा। इतना जानता हूं कि कहां बोलना और कहां चुप रहना चाहिए। मेरे साथ रहने से तुम्हें कोई असुविधा अथवा झेंप न होगी।' दोनों गुलाम अभी उसको आभूषण पहना ही रहे थे कि थायस खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली-'वह धमार्श्रम के एक तपस्वी को मेरे परेमियों में देखकर कहेंगे ?'
गिरीश लाहौर का रहनेवाला है, विद्यार्थी है, युवा है और युवकों की साधारण भावुकता से भी सम्पन्न है। और इन सबके अतिरिक्त वह धनिक नहीं है। तो भी ऐसा है कि उसे कभी पहाड़ जाने के लिए खीस के बहाने घर से रुपये मँगा कर जोड़ने नहीं पड़ते, बिना बहाने ही मिल जाते हैं। हाँ, तो गिरीश ने निश्चय किया है कि उसमें साहित्यिक प्रतिभा है और उसी को पनपने का अवसर देने के लिए वह यहाँ आया है। अनुभव से जानता है कि जो लोग पहाड़ों में जाते हैं, वे कुछ भी देखकर नहीं आते, कुछ देखने आते भी नहीं। उनसे कोई पूछे कि अमुक स्थान में क्या देखा या अमुक स्थान का जीवन कैसा है, तो केवल इतना ही बता पाते हैं कि वहाँ ठंड बहुत है, या बर्फ़ का दृश्य बहुत सुन्दर है या वहाँ घोड़े की सवारी का मज़ा आता है! बहुत हुआ तो कोई यह बता देगा कि वहाँ चीड़-वृक्षों में हवा चलती है तो उसका स्वर ऐसा होता है या कि वहाँ किसी जल-प्रपात को देखकर जीवन की नश्वरता का या अजस्रता का, अथवा प्रेम की अचल एकरूपता का, या अस्थायित्व का, या अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ऐसी ही किसी बात का स्मरण हो आता है... पर, क्या यह सब वहाँ का जीवन है? क्या यही दर्शनीय है, और बस? क्या वहाँ के वासी चीड़ के वृक्ष खाकर जीते हैं या जल प्रवाह पहनते हैं, या बर्फ से प्रणय करते हैं, या घोड़ों पर रहते हैं? गिरीश इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर पाने और उस उत्तर को शब्दबद्ध करने यहाँ आया है। उसका विश्वास है कि वह यहाँ के जीवन की सत्यता देखकर जाएगा और लिखेगा। वह उस दिन का स्वप्न देख रहा है, जब उसकी रचनाएँ प्रकाशित होंगी और साहित्य-क्षेत्र में तहलका मच जाएगा, लोग कहेंगे कि न-जाने इसने कहाँ कैसे यह सब देख लिया, जो लोग इतने वर्षों में भी नहीं देख पाये। यह सब उसे एक दिन लाहौर में बैठे-बैठे सूझा था। और उसने तभी तैयारी कर ली थी और दो-तीन सप्ताह के लिए डलहौज़ी चला आया था। यहाँ आकर उसने अपना सामान इत्यादि एक होटल में रखा और खाना खाकर घूमने-पहाड़ी जीवन देखने-निकल पड़ा। किन्तु उसने देखा, वह जीवन वैसा नहीं है जो स्वयं उछल-उछल कर आँखों के आगे आये, जैसा कि आजकल की सभ्यता का, आत्म-विज्ञापन का जीवन होता है। जब वह शाम को होटल लौटा, तब उसने देखा, उसका मस्तिष्क उससे भी अधिक शून्य है, जैसा वह लाहौर में था! क्योंकि गिरीश उन चित्रों और दृश्यों की ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं था जो और लोग - 'साधारण लोग' - देखते हैं। वह अपने कमरे में बैठ कर सोचने लगा कि कहाँ जाकर वह पहाड़ी जीवन का असली रूप देखे; किन्तु न जाने क्यों उसका मन इस विचार में भी नहीं लगा, भागने लगा। उसे न जाने क्यों एकाएक अपनी एक बाल्य-सखी और दूर के रिश्ते की बहिन करुणा का ध्यान आया, जो सदा पहाड़ पर जाने के लिए तरसा करती है, जो कहती रहती है कि पहाड़ का जीवन कितना स्वच्छन्द होगा, कितना निर्मल, कितना स्वतःसिद्ध - जैसे कि आनन्दातिरेक से अनायास गाया हुआ शब्दहीन आलाप! वह सोचने लगा कि क्या सचमुच पहाड़ी जीवन ऐसा ही होता है, या यह उसकी भ
ावुक बहिन का इच्छा-स्वप्न है? काफ़ी देर तक ऐसी बातें सोच चुकने पर जब उसे एकाएक विचार आया कि वह पहाड़ी जीवन का पता लगाना चाहता है, न कि करुणा की प्रकृति पर विचार करना, तब वह खीझ कर उठ बैठा। फिर उसने निश्चय किया कि कल वह जाकर बाज़ार में बैठेगा और वहाँ पहाड़ी लोगों को देखेगा - नहीं, वहाँ क्यों, वह मोटर के अड्डे पर जाएगा, जहाँ सैकड़ों पहाड़ी कुली आते हैं। वहीं उनका सच्चा रूप देखने को मिलेगा। उनके वास्तविक जीवन की झलक तो केवल तब देखने में आती है, जब मानव किसी आर्थिक दबाव का अनुभव करता है। गिरीश एक मोटर कम्पनी के दफ़्तर में बैठा है, उसके आस-पास और भी लोग हैं, जो आनेवाली लारियों की प्रतीक्षा में हैं-कुछ तो अपने मित्र या सम्बन्धियों की अगवानी के लिए और कुछ होटलों के एजेन्ट इत्यादि। बाहर कोई सौ-डेढ़ सौ कुली, जिनमें कुछ कश्मीरी हैं बैठे, खड़े या चल-फिर रहे हैं। कोई सिगरेट पी रहा है, कोई गुड़गुड़ी; कोई तम्बाकू चबा रहा है; कोई अपने जूते उतार कर हाथ में लिये उनकी परीक्षा में तन्मय हो रहा है; कोई एक रस्सी का टुकड़ा अपनी उँगली पर ऐसे लपेट और खोल रहा है, मानो वही जगन्नियन्ता की सबसे बड़ी उलझन हो और वह उसे सुलझा रहा हो; कोई हँस रहा है; कोई शरारत-भरी आँखों से किसी दूसरे की जेब की ओर देख रहा है, जो किसी अज्ञात वस्तु के विस्तार से फूल रही है; कोई एक शून्य थकान-भरी दृष्टि से देख रहा है - न-जाने किस ओर; कोई अपने आरक्त नेत्र मोटर कम्पनी के साइनबोर्ड पर गड़ाये हुए है; और एक-आध बूढ़ा, भीड़ से अलग खड़ा, अन्धों की विशेषतापूर्ण, उत्सुक और अभिप्राय-भरी दृष्टि से (यदि अन्धी भी दृष्टि हो सकती है तो) देख रहा है अपने आगे के सभी लोगों की ओर, यानी किसी की ओर नहीं... पर गिरीश को जान पड़ता है और ठीक जान पड़ता है
कि इस प्रकार अपने विभिन्न तात्कालिक धन्धों में निरत और व्यस्त जान पड़नेवाले इन व्यक्तियों की वास्तविक दृष्टि, वास्तविक प्रतीक्षा, किसी और ही ओर लगी हुई है। इन लोगों के सामान्य शारीरिक उद्योग से कुचले हुए शरीरों के भीतर छिपी हुई है भूखे भेड़िये की-सी प्रमादपूर्ण और अन्वेषण तत्परता, जो लारियों के आते ही फूट पड़ेगी। इससे हटकर गिरीश की दृष्टि दूसरे व्यक्ति की ओर गयी। दो-तीन तो वहीं के (एजेंसी के काम करने वाले) थे, उन्हें गिरीश छोड़ गया। एक और था, खूब मोटा-सा आदमी, धोती और डबल-ब्रेस्थ कोट पहने, किसी तीखे सेंट की सौरभ में डूबा हुआ, ऊपर के ओठ पर तितली के परों-सी मूँछ मानो चिपकाये, और आँखों में एक उद्दंडता, एक बेशर्म औद्धत्य लिए हुए। इस व्यक्ति को दूसरे लोग 'सेठ साहब' कहकर सम्बोधन कर रहे थे। इस ग्रुप का तीसरा व्यक्ति वर्णन से परे था। वह दुबला और साँवला था, इसके अतिरिक्त उसका कुछ वर्णन यदि हो सकता था, तो यही कि उसकी आयु का, उसके घर का और उसकी जात-पाँत का कुछ अनुमान नहीं हो सकता था - यह उन व्यक्तियों में से था, जो बहुत घूमते-फिरते हैं, और जहाँ जाते हैं, वहाँ अपने व्यक्तित्व का थोड़ा-सा अंश खोकर वहाँ के थोड़े-से ऐब ले लेते हैं; तब तक, जबकि अन्त में सर्वथा व्यक्तित्वहीन किन्तु सब अवस्थाओं के ऐबों से पूर्ण परिचित नहीं हो जाते। ऐसे व्यक्ति पहाड़ों में और अन्य स्थानों में, जहाँ लोग बसते नहीं, केवल आते-जाते हैं, अक्सर देखने में आते हैं। इसी घटना को देखते-देखते उपर्युक्त बात छिड़ी थी, क्योंकि पेटियों का मालिक तेज़ होता जा रहा था और सब ओर यही प्रतीक्षा थी कि घोड़ेवाला या तो किसी प्रकार का बोझ लादता है, चाहे उतने पत्थर डाल कर ही बोझ को एक-सा करता है, या फिर पेटीवाले से पिटता है। कुली भी इसी दृश्य को देखने की उत्कंठा से उधर घिरे आ रहे थे। कुछ औरतें भी पास आकर देख रहीं थीं। सेठ साहब ने फिर आत्मतुष्ट दृष्टि से सब ओर देखा और चुप हो गये। गिरीश एक नये क्षीण-से कौतूहल से उस भीड़ की ओर देखने लगा, जो बाहर जुट रही थी। सोचने लगा कि इन लोगों में क्या सभी का जीवन एक-सा ही है - दिन-भर टें-टें, चें-चें करना, घोड़े हाँकना और शाम को खा-पीकर सो रहना, या ग़लौज कर लेना? एकाएक उसकी दृष्टि अटक गयी - बैंगनी रंग के एक रूमाल के नीचे एक स्त्री-मुख पर। एक स्त्री-मुख में जड़ी हुई आँखों पर। जो भीड़-सी इकट्ठी होकर सेठ की बात सुन रही थी - सुन नहीं रही थी, कानों से उसी भाँति बीन रही थी, जिस भाँति किसी धनिक की थाली में गिरी हुई जूठन को कुत्ते बीन कर खाते हैं -उसी भीड़ के स्त्री-अंश में से एक स्त्री कुछ आगे बढ़कर खड़ी थी एकाएक जड़ित हुई गति की अवस्था में, एक पैर कुछ आगे बढ़ा हुआ, शरीर सहसा रुकने के कारण कुछ पीछे खिंचा हुआ-सा, एक हाथ उठा हुआ माथे पर टिककर प्रकाश से आँखों पर ओट करता हुआ, ताकि आँखें अच्छी तरह देख सकें। गिरीश ने बड़े यत्न से अपनी आँखें उन आँखों से हटायीं और उस स्त्री का सम्पूर्णत्व देखने लगा। उ
सकी वेश-भूषा बिलकुल साधारण थी - सिर पर कस कर बाँधा हुआ बैंगनी रंग का रूमाल, कानों में चाँदी के झुमके, गले में एक लम्बा सफ़ेद कुरता (जो कभी सफेद था, अब नहीं है), जिसके ऊपर एक मनकों का हार, उसके नीचे मटियाले रंग की छींट का तंग पैजामा। किन्तु उसे देखकर ध्यान उस वेश की साधारणता की ओर नहीं, बल्कि उससे वेष्टित व्यक्तित्व की असाधारणता की ओर आकृष्ट होता था। यद्यपि उसमें असाधारण क्या था? वह कोई विशेष सुन्दर नहीं थी, उसमें कुछ विशेष नहीं था, सिवा उन आँखों की उस स्थिरता के-वह इतनी तीखी और कठोर थीं कि निर्लज्ज तक जान पड़ती थीं, जैसे किसी संसारी अनुभव-प्राप्त पुरुष की। किसी असाधारण वस्तु के देखने से जो एक हल्का-सा, शारीरिक खिंचाव-सा होता है, उसमें शायद शरीर की और इन्द्रियों की अनुभूति-शक्ति बढ़ जाती है, या शायद कोई अन्य अमानवीय इन्द्रिय काम करने लग जाती है। किसी ऐसी ही क्रिया के कारण गिरीश को मालूम हुआ कि उसके सामने की भीड़ के वातावरण में कुछ परिवर्तन हो गया है। उसने जाना कि कोई व्यक्ति भद्दे अभिप्राय से उस स्त्री की ओर देख रहा है, उसे हाथ से थोड़ा-सा हिलाकर सेठ साहब को इंगित करके कह रहा है, "हाँ, हाँ वह अमीर है... और-वैसा है..." उसने जाना कि स्त्री का ध्यान एकाएक टूट गया है वह कुछ सहम कर पीछे हट रही है। वह उस समय तक वैसी ही खड़ी थी। गिरीश ने देखा, अपनी साधारण आँखों से देखा कि उस स्त्री के चिबुक पर एक छोटा-सा हल्के-नीले रंग का, गोदा हुआ बिन्दु है। इसके साथ ही उसकी वह विस्तृत हुई अनुभूति-शक्ति भी सकुच कर अपनी साधारण अवस्था में आ गयी। वह स्त्री पीछे हट गयी; हट कर पास खड़े एक और पहाड़ी को देखकर उससे धीरे-धीरे कुछ कहने लगी, जिसे गिरीश नहीं सुन पाया। उस पहाड़ी से बात करते समय भी वह देख रही थी
सेठ साहब की ओर ही। जब उसकी बात सुनकर उस पहाड़ी ने प्रश्न-भरी दृष्टि से मोटर-कम्पनी के दफ़्तर के भीतर देखा, तब उसने हाथ उठाकर सेठ साहब की ओर इशारा किया। वह स्त्री घबराकर घूम गयी और उस पहाड़ी के साथ, जिससे उसने कुछ कहा था, जल्दी से भीड़ में से निकलकर अदृश्य हो गयी। गिरीश की स्मृति में उसका तो कुछ रहा नहीं, रहा केवल उसकी पीठ पर लदी हुई कोयले की धूल से काली डांडी का एक धूमिल चित्र; किन्तु मन में उससे सम्बद्ध अनेकों विचार उठने लगे। पूछने लगे कि वह अभिनय क्या था, भाँपने लगे कि उन दीप्त स्थिर आँखों का रहस्य उन्हें ज्ञात हो। होगा, होगा... होता ही होगा... यही देखने, यही जानने तो वह यहाँ आया है, यही तो यहाँ के जीवन का छिपा हुआ रहस्य है, जो सतह के पास ही रहता है; किन्तु देखने में नहीं आता। वह इसी को उघाड़ कर रखेगा और अपना नाम अमर कर जाएगा। और उसका ध्यान फिर गया करुणा की ओर। वह और करुणा बाल्यसखा थे; किन्तु पिछले दिनों धीरे-धीरे न जाने क्यों और कैसे अलग-अलग हो गये थे-वैसे ही, जैसे सभी लड़के-लड़कियाँ एकाएक वयःसन्धि के काल में हो जाते हैं-परस्पर रूखे, उदासीन, एक-दूसरे को न समझ सकनेवाले, विचार-विनिमय में असमर्थ। आज गिरीश यह भी नहीं कह सकता कि वर्तमान संसार के प्रति करुणा के भाव में क्या हैं, वह संसार को क्या समझती है और उससे क्या आशा करती है? वह सुखी भी है या नहीं, इसका उत्तर भी गिरीश नहीं दे सकता, यद्यपि करुणा से जितना परिचय उसका है, उतना शायद ही किसी का होगा। यह क्यों है? ऐसा क्यों है कि वह करुणा के विचारों की यदि कोई बात जानता है, तो यही कि करुणा पहाड़ों को चाहती है, उनमें रहने की इच्छुक है, उनसे स्वतन्त्रता की और सुख की आशा करती है, और यह भी इसलिए कि एक बार चोरी से उसने करुणा के लिखे हुए कुछ पन्ने पढ़े थे। इसीलिए कि हम अपनी आँखें खुली रखकर भी अपने घर में ही कुछ नहीं देखते-देख नहीं पाते। हममें से कितने हैं जो अपने घर में ही अपने भाई-बहिनों के विचार जानते हैं, समझते हैं या जानने-समझने की चेष्टा भी करते हैं? गिरीश सोचने लगा, मैं यहाँ क्यों आया हूँ? क्या यह अधिक उचित नहीं है कि घर जाकर पहले अपने निकटतम लोगों का जीवन समझूँ, फिर उसी का आश्रय लेकर यहाँ के जीवन का अध्ययन करूँ? क्योंकि प्रत्येक वस्तु को कसा तो किसी कसौटी पर ही जा सकता है, और उसके पास कसौटी तो कोई है ही नहीं। नहीं, है क्यों नहीं? वह क्या इतने दिन तक आँखें बन्द ही किये रहा, क्या उसने संसार ही नहीं देखा, वह समझ सकता है और विचार कर सकता है, उसमें इतना विवेक है कि वह पहाड़ी जीवन को देखे, उसका सत्य अलग करके जाँच सके। और वह देखेगा, अवश्य देखेगा। करुणा का क्या है, वह तो घर में है ही, उसे किसी भी दिन जाकर गिरीश समझ सकता है। स्त्रियों को समझना कौन बड़ी बात है? और फिर करुणा को वह इतने दिनों से जानता है, वह कुछ छिपाएगी थोड़े ही! और फिर, यह जो आज अभिनय देखा है, वह समझे बिना कैसे जाया जाय? यह मन से निकल नहीं सकता, जब तक उसक
ा उत्तर न पा लिया जाए। और गिरीश समझता है कि वह ठीक पथ पर चल रहा है, उससे यह रहस्य छिपा नहीं करेगा, स्वयं भी खुलेगा और पहाड़ी जीवन की सत्यता भी दिखा जाएगा। एक सप्ताह के-पहाड़ में आये हुए यात्रियों के-से जीवन के निरर्थक एक सप्ताह के बाद। गिरीश डलहौज़ी से सैर करने निकलकर, चम्बे के रास्ते पर चल पड़ा था और लक्कड़मंडी में एक चीड़ की छाया में बैठा हुआ था। पास एक छोटी कापी, कुछ खुले काग़ज़ और फ़ाउंटेनपेन रखा हुआ था, हाथ में एक पत्र के दो-चार पन्ने थे, जिन्हें वह अभी कोई पाँचवीं-छठी बार पढ़ चुका था। गिरीश होटल से यहाँ आया था कि एकान्त में बैठ कर कुछ विचार करेगा, कुछ लिखेगा, लिखने के लिए कुछ सुलझा कर मैटर रखेगा, पर साथ ही वह ताज़ी डाक में आए हुए पत्र भी ले आया था कि यहीं चलकर पढ़ूँगा और यदि जवाब भी देना होगा, तो वहीं लिख दूँगा। इन पत्रों में एक करुणा का भी था, जिसे उसने अभी पढ़ा है और जिसने उसके लिखने के विचारों को बिलकुल बिखेर दिया है। यह नहीं कि गिरीश कुछ सोच ही न रहा हो; किन्तु वे विचार हैं उलझे हुए, पागलपन से भरे, अशान्ति को ओर बढ़ानेवाले। वह सोच रहा है कि मैंने क्यों करुणा को पत्र लिखा? जो हमारा बाल्य-सख्य टूट-सा गया था, उसे क्यों भावुकता के आवेश में आकर जमाने की चेष्टा की? क्योंकि यह आज की करुणा नहीं है, वह करुणा भी नहीं, जो पहाड़ी जीवन की स्वच्छन्दता के लिए तरसती थी। यह तो एक नयी कठोर, अत्यन्त अकरुण किन्तु जीवन से छलकती हुई करुणा है जिसे उसके पत्र ने जगा दिया है और जिसे अब कुछ लिख नहीं सकता, क्योंकि जिस आग्नेय तल पर करुणा का पत्र लिखा गया है, उस तल पर वह कैसे पहुँच सकता है, यद्यपि करुणा ने उसे ऐसे पत्र लिखा है, जैसे वह कोई बड़ा कवि, या पहुँचा हुआ फिलासफर हो-उस पत्र में से इतना व
िश्वास, इतनी श्रद्धा टपकती है। गिरीश फिर एक बार उस अंश को पढ़ने लगा - "आपने पूछा है, मेरे जीवन में क्यों यह परिवर्तन आ गया है, क्यों मैं ऐसी अशान्त-सी रहती हूँ? आप पूछते हैं; पर मैं आपको न लिखूँगी, तो किसको लिखूँगी? यहाँ के लोगों को जिन्हें इतना भी पता नहीं कि शान्ति क्या होती है? "मैं तो पूरा लिख भी नहीं सकती, थोड़ा-सा ही लिखती हूँ। गिरीश को याद आया कि उसने अपनी कौन-सी कहानी में किस स्थान पर यह लिखा था। वह सोचने लगा, मैंने अपनी बुद्धि से जो लिखा था केवल प्रभाव के लिए, उसे सच समझने वाले, उसका यथातथ्य अनुभव करनेवाले भी संसार में हैं। इस विचार से वह एकाएक सहम-सा गया, वैसे-ही, जैसे कोई शिकारी पहले बन्दूक चलाये और फिर उसकी घातक शक्ति का प्रमाण पाकर एकाएक सहम जाये। और वह पढ़ने लगा-'इस देश में स्त्री होकर जन्म लेना मृत्यु-यन्त्रणा से भी बढ़ कर ही है। मृत्यु तो यन्त्रणाओं से छुटकारा दे देती हैं; किन्तु यह जन्म स्वयं समस्त यन्त्रणाओं का मूल है। आप इसे गौरव समझें या साहस; किन्तु उन्हें जीना पड़ता है। और वे कहीं से तनिक-सी सहानुभूति पा लें, तो उसके दाता के हाथ मानो बिक जाती हैं, बाज़ारू कुत्ते की भाँति वे अपना यह अधिकार भी नहीं समझतीं कि उन्हें सहानुभूति मिले! इस प्रकार वे कब कितना धोखा खाती हैं, पतन की ओर कैसे बढ़ती जाती हैं, समझ नहीं पातीं। समझें कैसे? निचाई का अनुभव वे कर सकते हैं, जिन्होंने कभी ऊपर उठ कर देखा हो; पर हम स्त्रियाँ तो सदा से ही दलित हैं! गिरीश को ऐसा जान पड़ा, कोई उसके भीतर कहने को हो रहा है कि मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो कुछ जानता नहीं, कुछ देख ही नहीं सकता; किन्तु उसके अहंकार ने इसे दबा दिया। वह आगे पढ़ने लगा-परमात्मन्! हमें क्या हुआ है, जो हम मरने के योग्य होकर भी मरती नहीं, अहंकार में डूबी हुई हैं; ज़ंजीरों में जकड़ी जाने में ही अपना स्वातन्त्र्य समझती हैं? गिरीश ने पत्र लपेट कर जेब में डाल लिया और सोचने लगा, मुझमें क्यों लोगों को श्रद्धा है, क्यों वे मुझसे आशाएँ करते हैं? यदि मैं कुछ न कर सका तो? यह उत्तरदायित्व मेरे सिर पर क्यों लादा जा रहा है? एकाएक वह खीझ उठा। यों मैं विवश किया जा रहा हूँ कि किसी एक दिशा में अग्रसर होऊँ, क्यों न अपनी स्वच्छन्द प्रगतियों का अनुसरण करूँ? कला तो किसी बाह्य प्रेरणा से चलती नहीं, वह तो स्वयं प्रमुख प्रेरक है। वह सोचने लगा, यह दासत्व क्या एक बाह्य बन्धन है, या अन्तःशक्ति की एक निष्क्रिय परमुखापेक्षी अवस्था? आदमी केवल बँध जाने से ही दास नहीं हो जाता। दासता तो एक आत्मगत भावना है। तभी तो जो दास हो जाते हैं, वे स्वाधीनता पाकर उसका उपभोग नहीं कर सकते, न कभी उसकी इच्छा ही करते हैं। उसे एक घटना याद आयी, जो उसी दिन की घटी थी, और जैसी यहाँ नित्य सैकड़ों बार घटती हैं। उसने उसे एकाएक ग्लानि से भरा दिया था। वह कुछ सोचता हुआ चला आ रहा था, इधर ही लक्कड़मंडी की ओर। एका-एक उसने सुना कि एक बालक उसे देखकर, पथ की एक ओर खड़ा होकर क
ह रहा है, "सलाम, साहब!" गिरीश को यह कुछ अच्छा-सा लगा। उसने कुछ मुस्करा कर उत्तर दिया, "सलाम।" तब बालक ने एक दीन स्वर में, जो सर्वथा स्वाभाविक नहीं था, बालकों की स्वाभाविक नक़ल करने की शक्ति से प्रेरित था, कहा "बक्शीश,साहब!" गिरीश को एकाएक ध्यान आया, यह सलाम उसे नहीं, उसके सिर पर के टोप को किया गया था और वह भी एक पैसे की आशा में। वह सोचने लगा, यह है दासत्व की पराकाष्ठा, जहाँ पर किसी टोप को देख कर उसके आगे झुकना और झुकने के पुरस्कार-रूप में कुछ पाने की आशा करना एक अनैच्छिक क्रिया हो गयी है, और वह भी बच्चे-बच्चे में अभिभूत; और इतनी सामान्य कि लोगों का ध्यान ही इसके गूढ़ अभिप्राय की ओर नहीं जाता। वे सलाम ले लेते हैं और चले जाते हैं, और स्वयं हैट पहने रहते हैं। इन विचारों की उग्रता से शायद गिरीश का मन थक गया। वह चीड़ के वृक्ष के सहारे लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा। "बाबू, बहुत बोलो मत! चुपचाप चले जाओ! नहीं तो अच्छा न होगा।" कहकर पहाड़ी नीचे बस्ती की ओर देखने लगा, मानो सहायता के लिए पुकारेगा। सेठ साहब भी यह देख कर कुछ ठंडे पड़ गये, भुनभुनाते हुए लौट पड़े। थोड़ी देर में वह गिरीश की आँखों से ओझल हो गये। गिरीश इस घटना पर विचार करने लगा - उसकी समझ में न आया कि वह पहाड़ी क्यों इतनी बदगुमानी से उत्तर दे रहा था, सेठ ने कोई बात तो ऐसी नहीं कही थी। शायद सदा दबते रहने से ये पहाड़ी ऐसे हो गये हैं कि मौका लगते ही अपना बदला निकालते हैं! गिरीश चाहता था कि वह पहाड़ियों के प्रति न्याय करे और इसलिए वह प्रत्येक बात में उनके पक्ष को पुष्ट करने के लिए युक्तियाँ खोजा करता था। इसीलिए अब भी उसने यही निश्चय किया कि ये पहाड़ी हम लोगों से डरने लग गये हैं, और उसी डर से लज्जित होकर कभी-कभी दिलेर बन जाते हैं
-एक दिखावटी दिलेरी से। किन्तु आज शायद पहाड़ियों ने निश्चय किया था कि अपने जीवन की समस्त पहेलियाँ एक साथ उसके आगे बिखरा देंगे; उसे ललकारेंगे कि वह उन्हें सुलझा सकता हो तो सुलझाये। वह अभी इसी समस्या पर विचार कर रहा था कि उसने फिर सेठ साहब का स्वर सुना, अब की बार अपने बहुत निकट और धीमा, मानो कुछ गुपचुप बात कहने का यत्न कर रहे हों। वे किसी स्त्री से बात कर रहे थे, क्योंकि बीच-बीच में कभी एक-आध शब्द किसी स्त्रीकंठ का निकला हुआ भी सुन पड़ता था। वह बात इतनी गोपनीय नहीं थी - उसका गोपन हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह संसार की सबसे पुरानी बात, सबसे महत्त्वपूर्ण बात - और जो शक्ति का मूल्य समझते हैं, उनके लिए सबसे गौरव की बात थी; पर जिस प्रकार कला बेची जाकर केवल एक व्यावसायिक निपुणता रह जाती है, जिसका स्वामी स्वयं उसे व्यावसायिक गुण समझकर उसे स्वीकार करने में अपनी हेठी समझता है, उसी प्रकार शक्ति भी बेची जाकर एक लज्जाजनक वस्तु हो जाती है, और हम उसे छिपाते हैं, उसका चोरी से उपयोग करते हैं कि वह लज्जा दीख न पड़े, हमें और अधिक लज्जित न करे। गिरीश ने सुना, सब सुना। एक सौदा हुआ था, जिसमें क्रेता अत्यन्त उत्सुक था, विक्रेता पहले असहमत, किन्तु अन्त में एक लम्बी साँस के साथ अपना विकल्प छोड़कर विक्रय के लिए तत्पर हो गया था; विनिमय का दिन और समय भी निश्चित हो गया था। वह स्त्री यहीं लक्कड़मंडी में रहती है, समय पर आ जाएगी, विशेष देख-भाल की आवश्यकता है, क्योंकि यह गाँव काफ़ी बदनाम हो चुका है, और यहाँ की स्त्रियों पर, यहाँ आने-जाने वालों पर भी, कड़ी निगाह रखी जाने लगी है; पर वह आएगी अवश्य, वादा जो किया है। और गिरीश के मन ने अपनी ओर से जोड़ दिया - "पैसे जो लिये हैं...' क्योंकि उसने अपने रुपयों की-कई-एक रुपयों की-खन-खन भी सुनी थी। गिरीश का सिर झुक गया, दम घुटने-सा लगा। यह है पहाड़ी जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य जिसे देखने वह आया है, जिसके बूते वह संसार में यशःप्रार्थी होगा, यह, यह - यह, जिसके लिए शब्द नहीं मिलते! सामने वह खड़ी है। उसी दिन वाली स्त्री, वही बैंगनी रंग का रूमाल सिर पर बँधा हुआ, वही कुरता, वही लाल छींट का पैजामा, वही हार, वही झुमके, वही गोदने का बिन्दु-चिह्न और वही आँखें, जो चौंककर उसे देख रही थीं, निर्भीकता से उसकी दृष्टि का सामना कर रही थीं। और वह शायद यह बता देने में समर्थ भी हुआ। उस स्त्री की दृष्टि क्षण-भर के लिए काँपकर झुक भी गयी। किन्तु उसके बाद ही उसने सिर उठाया, एक अवज्ञा-भरी दर्प-भरी मुद्रा में लाकर हिलाया, जिससे उसके बालों की लट रूमाल के नियन्त्रण से निकल कर, हिलकर मानो बोली - "मैं क्या परवाह करती हूँ!" और फिर वह अवमानना-भरी हँसी-हँसकर चली; किन्तु पाँच-सात क़दम जाकर उसने गर्दन घुमाकर देखा, क्षण-भर ग्रीवा फेरे हुए ही पीड़ित-सी खड़ी रही, फिर चली गयी, अब मानो कुछ शान्त, कुछ सन्दिग्ध, कुछ आहत, कुछ उद्विग्न। और गिरीश भी एकाएक आवेग में उठा और काग़ज़ उठाकर नीचे की ओर चल पड़ा।
उसे मानो अपने सब प्रश्नों के उत्तर मिल गये थे; कितने कठोर उत्तर! सब समस्याओं का समाधान मिल गया था, कैसा उपहास-भरा समाधान! वह कुछ ही दूर गया था कि सेठ साहब मिल गये; कुछ चौंके, कुछ झेंप-से गये। गिरीश को उस स्त्री के प्रति इतनी ग्लानि हो रही थी कि उसे यह ध्यान ही न आया कि सेठ साहब भी किसी सम्बन्ध में दोषी हो सकते हैं; वह उनके साथ हो लिया और बातचीत चलाने का ढोंग करने लगा। किन्तु इसमें स्वयं अपने को ही असमर्थ पाकर, वह क्षमा माँग कर आगे निकल गया और फिर विचार-सागर में उतराने लगा, उस आघात को मिटाने का यत्न करने लगा, जो उस स्त्री की अवज्ञापूर्ण हँसी ने उसके हृदय पर किया था। वह सोचने लगा - "हम क्यों एक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं, विशेषतया जब कि वह पवित्रता एक कृत्रिम बन्धन है? हम एक ओर तो मानते हैं, कि कृत्रिम बन्धन सब प्रकार के पतन के मूल हैं, दूसरी ओर हम यह भी मानते हैं कि पवित्रता, व्रत-निष्ठा एक मानसिक या आध्यात्मिक तथ्य है, शारीरिक नहीं; तब फिर क्यों हम एक नकारात्मक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं कि उसके न होने पर किसी व्यक्ति को नरक का पात्र समझने लग जाते हैं? और विशेषतया स्त्री को? "क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उस शारीरिक नियन्त्रण को उतना महत्त्व न दे; जो कर्मों को करे, जिन्हें हम वर्जित समझते हैं, किन्तु पापभावना से नहीं, केवल इसीलिए कि वह उन्हें इतना महत्त्व नहीं देता, इसीलिए कि वह इतनी छोटी-सी बात के लिए अपनी स्वाभाविक प्रगति को दबाना नहीं चाहता? यदि कोई ऐसा हो तो हम उसे कैसे दोषी ठहराएँ, यह जानते हुए कि पाप वह नहीं है जो बिना पाप-भावना के किया जाए? एकाएक गिरीश की विचारधारा रुकी। उसने देखा कि वह भावुकता के आवेश में किधर बहा जा रहा है... किस अकर्मण्य
विशृँखलता की ओर, जो उदारता की आड़ में फैल रही है। उसने अपनी ग़लती जानी कि जिस विषय की वह आलोचना कर रहा है उसका उद्भव उन भावनाओं से नहीं हुआ था, जो वह उन्हें दे रहा है, बल्कि केवल रुपये के लालच के लिए यानी रुपये के लिए इन पहाड़ियों का आचार और चरित्र बिकाऊ है। पर यह धोखा है! ऐसे तर्क से केवल पतन ही पतन हो सकता है। उन्नति नियम के बिना, एक निष्ठा के बिना, नहीं होती। इस तथ्य पर पहुँचकर गिरीश ने अपने विचार स्थिर कर लिए और फिर उससे आगे पहाड़ी जीवन की उन रहस्यमयी घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वह करुणा के पत्र के बारे में ही सोचने लगा-करुणा अवश्य दुखी है, नहीं तो इतना उद्वेग-भरा पत्र नहीं लिख सकती थी - विशेषतया इसा अवस्था में, जबकि उसने अनेक दिनों से करुणा से कोई व्यवहार नहीं रखा। पर क्या करुणा का दुख, उसकी यन्त्रणा और-हाँ, उसे अखरने वाला वह दासत्व भी इस पहाड़ी जीवन से अच्छा नहीं है, इसी पहाड़ी जीवन से, जिसमें करुणा अपने सुख-स्वप्नों का चरम उत्कर्ष देखती है? गिरीश ने जाना, उसमें यदि प्रतिभा है, लेखन-शक्ति है, तो वह यहाँ पहाड़ों में वृद्धिगत न होगी; यह उसका क्षेत्र नहीं; वह यहाँ रहकर उस स्वप्न को साकार नहीं बना सकता, जो वह कुछ दिन पहले देख रहा था। यहाँ, जहाँ के जीवन में प्रतिभा का आहार बिलकुल नहीं मिलता, जहाँ चरित्र घुटकर मर जाता है, और जीती हैं केवल लिप्साएँ, उग्र पाप-भावनाएँ, जहाँ के जीवन का सार है ग़रीबी, कायरता, दम्भ और व्यभिचार, जहाँ प्रत्येक वस्तु एक धातु के टुकड़े पर निछावर होती है, जहाँ लोग पर्वतों के मुख को काला कर रहे हैं अपने ओछे, छिछोरे, पतित, निरर्थक जीवन से! इससे वह दासत्व ही अच्छा, वह भीड़-भड़क्का, वह रोग, पीलापन और घुलती हुई मृत्यु। करुणा रोती है तो उसे रोने दो, वह यदि बलि है तो हमारी सभ्यता की, जिसे बनाए रखना हमारा कर्त्तव्य है और जिसमें मेरी प्रतिभा का एकमात्र आधार है। और यह निश्चय करके गिरीश होटल पहुँचा। वहाँ उसने अपना सामान बाँधा और सायंकाल ही को लौट गया वहीं जहाँ से आया था - अपने संसार के सभ्य जीवन में, जो पहाड़ी जीवन की सभ्यताओं में उलझा हुआ नहीं है, यद्यपि उसमें भीड़ है, और रोग हैं, और घुला मारनेवाली मृत्यु है और है करुणा का रोदन, जिसे कोई सुनता ही नहीं। और पहाड़ों में यह नित्य ही होता है, शायद दिन में कई बार होता है। नीचे के समतल प्रदेशों से अपनी सभ्यता और शान्ति-रूपी घातक औषधियों द्वारा जीवित रहनेवाले लोग आते हैं - पहाड़ों पर अपने निर्बल हृदय और निर्बलतम पाचनशक्तियाँ लेकर, और लौट जाते हैं भन्नाते हुए मस्तिष्क और मतली से आक्रान्त उदर लेकर। क्योंकि ये पर्वत-ये मूक, विराट्, अभिमानी और लापरवाह पर्वत-अपना रहस्य खोले नहीं फिरते, अपना हृदय उघाड़कर दिखाते नहीं फिरते, उन्हें वही देख और खोज पाता है, जो उनकी खोज़ में निरत रहता है, जो उनके लिए अनवरत यत्न करने की क्षमता रखता है, और जो इतना सहिष्णु होता है कि उन्हें देखकर चौंधिया नहीं जाता,
अन्धा नहीं हो जाता। पहाड़ कुछ कहते नहीं, उनके जिह्वा है ही नहीं। उनकी कहानी की सत्यता फिर भी न कही जाती, वैसी ही रह जाती, केवल पढ़ने की क्षमता रखनेवाले उसे पढ़ते और समझते और पर्वतों से प्रेम करते। क्योंकि वह है ही अकथ्य, जैसे सभी गहरी बातें अकथ्य होती हैं - गहरा प्रेम, गहरी वेदना, गहरा सौन्दर्य, गहरा आह्लाद, गहरी भूख। जब एक पहाड़ी घोड़ा न लादने पर पिटता है, और फिर संन्यासी होकर लापता हो जाता है, तब पहाड़ उसकी उस गहरी आत्मग्लानि का चित्र नहीं खींचते जिसके कारण वह ऐसा करने को बाध्य होता है, जिसके कारण वह अपने कुटुम्बियों, अपने बाल-बच्चों का ध्यान भुलाकर, अपने व्यक्तित्व को इसलिए कुचल डालता है कि उस व्यक्तिगत जीवन में केवल परमुखापेक्षा, झुकना, प्रपीड़न और दासत्व की प्रतारणा है; वे चुप ही रह जाते हैं। और जब उसी पहाड़ी की लड़की, अपने पिता को पीटने वाले के मुख से दर्प और आत्मश्लाघा-भरे शब्दों में वही कहानी सुनती है, तब वे किसी से उसके व्यथा भरे जड़-विस्मय का रहस्य कहने नहीं जाते; जब कोई पहाड़ी, यह समझकर कि लोग उनके घर आते हैं केवल उनकी स्त्रियों को भ्रष्ट करने, उनके भोलेपन से और उनकी नैसर्गिकता से लाभ उठाकर उन्हें पतित और बदनाम करने, उन लोगों के प्रति उपेक्षा का बर्ताव करता है, तब पर्वत किसी देखनेवाले को उस उपेक्षा का कारण नहीं बताते फिरते। जब एक पहाड़ी कन्या अपने शत्रु, अपने पिता के घातक से एक दिन और समय नियत करती है, ताकि वह उससे बदला लेने का उचित उपाय सोच सके, तब वे पर्वत उस कन्या के किसी आलोचक को सत्य का निदर्शन कराने नहीं जाते, उसकी मानसिक प्रगति समझाने की चेष्टा नहीं करते; और अन्त में, जब कोई उनके विषय में अत्यन्त अनुचित, अन्यायपूर्ण भावना लेकर, उनकी विशाल स्वच्छन्दता और शक्
तिमत्ता को छोड़कर लौट जाता है अपने घिरे हुए, बँधे हुए, कलुषित, मारक, चूहेदान जैसे संसार में, तब वे उसे वापस भी नहीं बुलाते। वे उसी भव्य, विराट्, उपेक्षा-पूर्ण कठोर मुस्कराहट से निश्चल आकाश की ओर देखा करते हैं।
नीति के उपदेश यही सिखाते हैं कि त्रिवर्ग की उन्नति करनी चाहिए, जिससे मोक्ष की प्राति सुकर हो जाय । त्रिवर्ग से तात्पर्य धर्म, अर्थ और काम तीनों से है। प्राचीन समय में भारत की सम्पत्ति सभी देशों के लिए स्पृहणीय थी । काम, अर्थात् व्यवहार तो भारत से ही और देशों ने सीखा है। सुखोपभोग की सामग्री भारत में कितनी विपुल थी, इसका पता प्राचीन काव्यों को पढ़ने से बड़ी आसानी से लग जाता है । यह सच होते हुए भी भारतीय सभ्यता में इतनी विशेषता अवश्य है कि यहाँ धर्म को सभी पुरुषार्थों में प्रधान स्थान दिया गया है । धर्म का आत्मा से सीधा सम्बन्ध है । उससे आत्मा वलवान् होता है। जब कभी व्यवहार में धर्म के साथ अर्थ-काम का संघर्ष उपस्थित होता है, जब कभी प्रश्न खड़ा होता है कि या तो धर्म को अपना लो या अर्थ को । ऐसे समय में हम सदा धर्म को ही अपनाते हैं, यही हमारे शास्त्रकारों का उपदेश है कि - परित्यजेदर्थ कामौ च स्यातां धर्मवर्जितो । अर्थात्, धर्म से विरुद्ध अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए । इस विषय का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन धर्मशास्त्रकारों ने किया है । भगवान् मनु कहते हैं कि - अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः । द्रव्योपार्जन और अपनी उन्नति का सम्पादन अवश्य ही मानव-मात्र का कर्त्तव्य है, परन्तु वह द्रव्योपार्जन या आत्मोन्नति ऐसी हो, जिससे किसी से द्रोह न हो । दूसरों को धक्का मारकर उपार्जन करना ठीक नहीं । प्रश्न होता है कि किसी भी अर्थोपार्जन या उन्नति में परद्रोह तो अवश्य होगा । मान लिया जाय कि किसी मनुष्य को कोई अच्छा पद मिला, तो क्या उसका यह उपार्जन विना द्रोह किये हो गया ? नहीं । उसी के साथ जो दूसरे लोग उस पद के इच्छुक थे, उनको हटाने के कारण द्रोह तो हो ही गया । तब अद्रोह से उपार्जन कैसे सम्भव है । इसी सूक्ष्म बात को ध्यान में रखकर मनु भगवान् ने साथ ही कह दिया था कि 'अल्पद्रोहेण वा पुनः', अर्थात् यदि द्रोह अपरिहार्य हो, तो वह बहुत कम रूप में लिया जाय । जैसे पद प्राप्त होने पर जो द्रोह औरों से होता है, वह साक्षात् अपकार करने से नहीं, अपि तु दूसरों के द्वारा हुआ है । इसलिए यह अल्पद्रोह है । कारण वहाँ द्रोह लक्ष्य नहीं था, अपनी उन्नति ही लक्ष्य था । इस प्रकार का द्रोह उपार्जन में लक्ष्य है। परन्तु साक्षात् द्रोह नहीं करना चाहिए । जैसे, शिकायतों और आरोपो के द्वारा दूसरे को पदच्युत करवाकर फिर स्वयं उस स्थान को लेना । इस प्रकार का उपार्जन धर्म-विरुद्ध है । यह नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, धार्मिक नेताओं ने सर्वदा हमें सचेत किया है कि हम कभी प्रधान को, अर्थात् धर्म को न भूलें । धर्म का ही दूसरा नाम है कर्त्तव्य । कर्त्तव्य और धर्म में भेद नहीं । कर्तव्य निष्ठा ही भारतीय संस्कृति की प्रधान वस्तु है । कर्त्तव्य में आलस्य, प्रमादादि को स्थान नहीं । इस प्रकार, धर्म और उससे अविरुद्ध अर्थ और काम का आचरण करने से मोक्ष नाम का परम पुरुपार्थ अपने आप सिद्ध हो जाता है । शरीर ग्रहण करता है । यद
ि भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य पुनर्जन्मवाद है, तो भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत आनेवाले बौद्ध, जैन, सिक्ख, आर्यसमाज, ब्राह्मसमाज आदि जितने सम्प्रदाय हैं, वे सभी इस पुनर्जन्मवाद को अवश्य स्वीकार करते हैं। इस प्रकार, आचार और विचार ये, दो जो संस्कृति के पहलू हैं, उनमें विचारांश में भारतीयों का ऐक्य स्थापित हैं। शरीर के अतिरिक्त आत्मा है। जिस प्रकार शरीर के प्रति भोजनाच्छादनादि हमारे अनेक कर्त्तव्य हैं, उसी प्रकार आत्मा के प्रति भी हमारे कुछ कर्त्तव्य हैं । इस प्रकार के अध्यात्म पर अवलम्बित व्यवहार ही आचारांश में भारतीयों की एकता को प्रतिष्ठित करते हैं। प्राचीन समय में भी भारत । प्राचीन समय में भी भारत में अध्यात्म-दृष्टि प्रधान रही है । आत्मा को उन्नत वनानेवाले आचरणों को ही धर्म कहा जाता है। आजकल शिक्षित लोग धर्म से चौंकते हैं। बहुत से लोग धर्म को एक हौवा समझते हैं । परन्तु खेद है कि ये धर्म के स्वरूप पर ध्यान नहीं देते। धर्म न तो कोई हौवा है और न कोई चौंकानेवाली चीज है, न वह अवनति के मार्ग में ढकेलनेवाली कोई वस्तु है। धर्म उसी का नाम है, जो उन्नति की ओर ले जाय । धर्म का लक्षण करते हुए कणाद ने स्पष्ट कर दिया है कि - -'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसः सिद्धिः स धर्मः', अर्थात् जो क्रमशः उन्नत करता हुआ चरम उन्नति तक ले जाय, वही धर्म है । वह उन्नति न केवल संसार की ही है, परन्तु उसके साथ-साथ आत्मा की चरम उन्नति है, अर्थात् मोक्ष भी धर्म के द्वारा ही होता है। आजकल यन्त्र-युग में नये-नये यन्त्रों का आविष्कार ही उन्नति की ओर अग्रसर होना है। किन्तु विचार कीजिए कि ये सव यन्त्रों को कौन बनाता है। मनुष्य की कल्पना शक्ति ही इन यन्त्रों को जन्म देनेवाली है। यह कल्पना-शक्ति किस यन्त्र से प्रादुर्भूत होती
है, इसका ज्ञान भारतीय संस्कृति में मुख्य माना गया था । यन्त्रों को जन्म देनेवाली कल्पना शक्ति के उद्भावक मन, बुद्धि और सब-के-सव चैतन्यप्रद आत्मा का विचार आध्यात्मिकवाद है । भारतीय संस्कृति के नेता यही कहते हैं कि जो अपने-आपका परिष्कार वा सुधार न कर सका, वह अन्य वस्तुओं का निर्माता होने पर महत्त्वशाली नहीं कहा जा सकता। इसलिए, आध्यात्मिकवाद की यहाँ की संस्कृति में प्रधानता हो गई है । कुछ लोग आक्षेप करते हैं कि अध्यात्मवाद के अनुयायियों ने धर्म के आगे अर्थ और काम को गिरा दिया। वे केवल धर्म-ही-धर्म को पकड़े रहे, और देश की अनेक प्रकार की उन्नति में बाधक सिद्ध हुए। परन्तु भारतीय संस्कृति के विचारकों को यह अच्छी तरह मालूम है कि हमारे यहाँ अर्थ और काम से विमुख होने का कहीं विधान नहीं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों हमारे यहाँ पुरुपार्थ माने गये हैं । पुरुषार्थ का मतलब है, जो पुरुषों के द्वारा चाहने योग्य हों, अथवा मनुष्य के चार लक्ष्य हैं । 'पुरुपैरर्थ्यते', यह व्युत्पत्ति उपर्युक्त अर्थ को सिद्ध करती है। उनमें अर्थ और काम का ही सामान रूप से समावेश है, तब अर्थ और काम की उपेक्षा का आरोप कैसे माननीय हो सकता है । यह बात भी नहीं है कि भारत में कभी अर्थ, काम की उन्नति हुई ही नही । धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थात् व्यवहार शास्त्र और । - कलाशास्त्र तीनों भारत में पूर्णतया उन्नत थे । प्राचीन इतिहास इसका साक्षी है । सभी होता है, जो पानी के साथ चने भी खिलाता है; क्योंकि वह अधिक लोगों का अधिक हित सम्पादन करता है । परन्तु, विवेक-दृष्टि कभी उसे धर्मात्मा नहीं कहेगी; क्योंकि उसका उद्देश्य लोगों को लाभ पहुॅचाने का नहीं । भारतीय दृष्टि में वही धर्मात्मा है, जिसने पहले प्याऊ खोला; क्योंकि वह निःस्वार्थ भावना से पिपासा- निवृत्ति के लिए जल पिलाता है। उसके कार्य में किसी प्रकार की दुरभिसन्धि नहीं । दूसरा उदाहरण लीजिए । अमेरिका में जब सर्वप्रथम ट्रामगाड़ी चलने को थी, तब लोग बड़े उत्सुक थे । कम्पनी ने भी पूरी तैयारी कर ली थी । परन्तु फिर भी महीनों बीत गये । सरकारी आज्ञा मिलने में देर हो रही थी । ज्यादा देर होती देख कम्पनी के डाइरेक्टर ने सरकारी ऑफिसर को तगड़ी-सी रिश्वत दे दी । फलतः, ट्राम चालू करने का आर्डर शीघ्र प्राप्त हो गया और शीघ्र ट्रामगाड़ी के चलने से जनता को आराम हो गया । पाश्चात्य परिभाषा के अनुसार उस प्रकार रिश्वत देना धर्म होना चाहिए; क्योंकि वह अधिकांश मनुष्यों के लाभ के लिए कार्य था । परन्तु, परिणाम उसका उल्टा हुआ । वहाँ के हाईकोर्ट में उस रिश्वत लेने पर केस चला और अभियोग प्रमाणित होने पर देने और लेनेवालों को दण्ड भोगना पड़ा । इसलिए, हमारी संस्कृति के अनुसार धर्म के सम्बन्ध में ऐसी बातें नहीं चल सकतीं । आध्यात्मिक दृष्टि से ही विचार होगा। अमुक कार्य के करने में अमुक मनुष्य का उद्देश्य क्या है, और उस कार्य का परिणाम क्या है । यदि उद्देश्य और परिणाम बुरा है
, तो अच्छा काम भी अधर्म ही ठहरेगा और उद्देश्य एवं परिणाम अनुचित न रहने से बुरे काम भी अच्छे हो जायेंगे । किसी भी कार्य में कर्त्ता की नीयत जाने विना धर्म का निर्णय नहीं हो सकता । इसके लिए भी आध्यात्मिकता की ओर आना होगा । यों धर्म और कर्त्तव्य के निर्णय में आध्यात्मिकता की ही कमी हुई, तब भारत की ओर ही सबकी दृष्टि केन्द्रित होती है। भारत सर्वदा से आध्यात्मिक दृष्टि को सर्वोपरि मानता आया है। उपनिषद् की एक आख्यायिका है, याज्ञवल्क्य जब वृद्ध हुए, तब घर छोड़ वन में एकान्तवास करते हुए ब्रह्म-चिन्तन की इच्छा हुई । उनकी दो पत्नियाँ थी - मैत्रेयी और कात्यायनी । उन्होंने वन में जाने के पहले अपनी कुछ सम्पत्ति थी, उसको दोनों पलियों में विभक्त कर देना चाहा। उन्होंने मैत्रेयी को बुलाया और उसे समझाया कि मै अपनी जो कुछ सम्पत्ति है, उसको तुम दोनों में बाँट देना चाहता हूँ । मैत्रेयी तो आर्य ललना थी । ऋषि की सम्पत्ति क्या हो सकती है। कमण्डलु, मृगचर्म, कौपीन, कुटिया, यही तो ऋषियों के आश्रम में होता था । परन्तु मैत्रेयी ने कहा भगवन् ! यदि आप मुझे वह सारी पृथ्वी दे दें, जो रत्नों, सुवणों और समस्त धन-धान्यादि से लदी हुई हो, उसको प्राप्त करके तो मैं अमर हो जाऊँगी न ? याज्ञवल्क्य ने कहा - सम्पत्ति से कोई मनुष्य अमर तो नहीं हो सकता । हॉ, जिस प्रकार धनवानों का जीवन बीतता है, सैकड़ों नौकर रखते हैं, तरह-तरह के वस्त्र पहन सकते हैं, सब प्रकार के स्वादिष्ठ भोजन प्राप्त हो सकते हैं, उस प्रकार सुख से जीवन व्यतीत हो सकता है। परन्तु सम्पत्ति से अमरता तो नहीं मिल सकती । इस पर मैत्रेयी ने कहा - जिसको लेकर अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूँगी । जिसकी खोज में आप घर को छोड़कर वन में जा रहे हैं, अपने उस लाभ में आप
हमें भी मोक्ष को ही यह संस्कृति परम पुरुषार्थ कहती है। वह मोक्ष क्या है ? आत्मा को स्वतंत्र बना देना ही मोक्ष है । कर्त्तव्य का आचरण करते-करते मन, बुद्धि और शरीर पवित्र हो जाते हैं। इस प्रकार के पवित्र मन और बुद्धि में आत्मा की स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। वह आत्मा हमें कहीं बाहर से लेने नहीं जाना पड़ेगा, वह तो सबके पास है। परन्तु मन और बुद्धि अपवित्र होने से उसे ग्रहण नहीं कर पाती । जब कर्त्तव्याचरण द्वारा मन, बुद्धि पवित्र हो जाती है, तब आत्मा का दर्शन होना सुगम हो जाता है । इसीको मोक्ष कहते हैं । अव प्रश्न यह उठता है कि यह संसार तो प्रश्नों और समस्याओं का जंगल है। यह कैसे पहचाना जाय कि अमुक कर्त्तव्य है, और अमुक धर्म है, जहाँ कार्यों की शृङ्खला सामने खड़ी है। बहुत से कार्य कर्त्तव्य-कोटि में आते हैं, बहुत-से त्याज्य हैं । सामान्य मानव बुद्धि यह कैसे समझे कि यह करना चाहिए, और यह छोड़ना चाहिए ? इस प्रश्न के अनेक समाधान भारतीय ग्रन्थों में मिलते हैं। अनेक ऐसी पहचान निश्चित की गई है । कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करनेवाले पाश्चात्य आधिभौतिकवादी पहले उन कार्यों को कर्त्तव्य-कोटि में रखते थे, जो सत्र मनुष्यों को लाभ पहुँचानेवाले हों । ऐसी परिभाषा बना लेने पर उनके सामने जब यह प्रश्न आया कि कोई कार्य ऐसा नहीं, जो सभी मनुष्यों को लाभ ही लाभ पहुँचाता है। किसी-न-किसी को किसी कार्य में हानि भी अवश्य होगी। चोरी को अपराध घोषित करना शायद चोरों को नागवार गुजरेगा । रोगियों की संख्या में कमी होना डॉक्टरों की रोजी छीनना होगा । भ्रातृ-भाव और वन्धुत्व की वृद्धि और द्वेष का अभाव होने से वकीलों की जीविका का प्रश्न आ जायगा । शायद कोई वकील यह नहीं चाहता होगा कि मेरे मुवकिल आपस का झगड़ा भूल जायँ । ऐसी ही स्थिति में अच्छा-से-अच्छा माना जानेवाला कार्य भी कर्त्तव्य और धर्म न हो सकेगा; क्योंकि पाश्चात्य विद्वानों की पूर्व परिभाषा के अनुसार वह सब लोगों का हित सम्पादन नहीं करता। इस प्रश्न के सामने आने पर पश्चिमी विद्वानों ने अपनी परिभाषा बदल दी । उन्होंने कहा कि धर्म वह है, जो अधिकांश मनुष्यों को अधिक लाभ पहुँचानेवाला हो । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने गीतारहस्य ग्रन्थ में इस प्रकार के समस्त पाश्चात्य मतों को सामने रखकर उनकी आलोचना प्रस्तुत करके यह सिद्ध कर दिया है कि धर्म-अधर्म या कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय भौतिक दृष्टि से कथमपि सम्भव नहीं । उसके निर्णय के लिए तो आध्यात्मिक दृष्टि को ही अपनाना होगा । भौतिक परिभाषा में उन्होंने अनेक दृष्टान्तों से दोष दिखाये हैं । मान लीजिए कि गर्मी में तृपार्त्त जनों की प्यास बुझाने के लिए किसी ने प्याऊ लगाया। लोग उसके प्याऊ पर आते हैं और सुखादु शीतल जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं । उसके प्याऊ पर जल पीनेवालों की भीड़ देखकर सामनेवाले दूकानदार वनिये ने भी एक प्याऊ खोल दिया, जो पानी के साथ चने भी खिलाता है। वनिये का उद्देश्य लोगों को जल से तृ
प्त करना नहीं है, अपि तु अपना व्यापार चमकाना है। ज्यादा भीड़ बढ़ने पर लोग उसकी दूकान पर बैठकर खरीददारी भी करते हैं। अब यदि पाश्चात्य दृष्टि से कर्त्तव्याकर्त्तव्य का या धर्माधर्म का विचार करें, तो बनिया ही धर्मात्मा सिद्ध भारतीय संस्कृति चच सकेगी। और, यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कर्त्तव्य-निष्ठा वर्णाश्रम व्यवस्था के आधार पर ही स्थित हो सकती है, अन्यथा कर्त्तव्य का ज्ञान ही किस आधार पर हो सकेगा ? वर्ण व्यवस्था ही अपने-अपने वर्ण के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य निश्चित करती है । जिस वर्ण का जो धर्म है, उसमें फल का कुछ भी विचार न करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को प्रवृत्त होना चाहिए । यही कर्त्तव्य-निष्ठा है। भारतीय संस्कृति के मुख्य ग्रन्थ भगवद्गीता में भी कर्त्तव्य बुद्धि को ही मुख्य माना गया है, और फल की अपेक्षा न कर कर्त्तव्य-पालन का नाम ही कर्मयोग रखा है। कर्मयोग एक बहुत उच्चकोटि की वस्तु है, जो क्या सामाजिक, क्या राजनीतिक, क्या धार्मिक सभी विषयों में अत्यन्त उपादेय सिद्ध होती है, किन्तु जब यह प्रश्न उठाया जाय कि फल की इच्छा न करें, तो किस कार्य में प्रवृत्ति करें ? क्योंकि, प्रवृत्ति का क्रम तो शास्त्रों में यही निर्धारित किया गया है कि पहले फल की इच्छा होती है, तब उसके साधन रूप से उपाय की इच्छा और उपाय की इच्छा से आत्मा में प्रयत्न होता है । प्रयत्न नाम की एक प्रेरणा उठती है और उस प्रेरणा से हाथ-पैर आदि इन्द्रियाँ प्रवृत्त होती हैं। यदि फलेच्छा ही न होगी, तो आगे का क्रम चलेगा ही कैसे ? और, प्रवृत्ति ही क्यों होगी ? तब इसका उत्तर यही हो सकता है कि जिसके लिए जो कर्म नियत है, उसमें उसे प्रवृत्त रहना चाहिए । 'नियतं कुरु कर्मलम्', यही भगवद्गीता का आदेश है । परन्तु किसके लिए क
ौन सा कर्म नियत है - इसका उत्तर तो वर्ण-व्यवस्था ही दे सकती है। उसमें ही भिन्न-भिन्न वर्णों के अपने-अपने कर्म नियत हैं, उनका अनुष्ठान विना फल की इच्छा के ही करते रहना चाहिए । यदि विना वर्ण व्यवस्था माने भी कर्त्तव्य-निष्ठा का कोई यह समाधान करे कि जगत् के लाभदायक कर्म फल की इच्छा विना ही करते रहना चाहिए अथवा आत्मा की आज्ञा जिन कर्मों के लिए मिले, वे कर्म करते रहना चाहिए, तो इन पक्षों में जो दोप आते हैं, उनका विवरण आरम्भ में ही दे दिया गया है कि सबका लाभदायक कोई भी कर्म हो नहीं सकता और किनको लाभ पहुँचाने का यत्न करें और किनकी हानि की उपेक्षा करें - इसका भी नियामक कुछ नहीं मिल सकता । आत्मा की आज्ञा भी भिन्न-भिन्न परिस्थिति में भिन्नभिन्न प्रकार की मिलती है। एक बार अनुचित कार्य करके जब आत्मा मलिन हो जाता है, तब वहाँ से अनुचित कार्यों की ही अनुमति मिलने लगती है। इससे आत्मा की आज्ञा पर भी निर्भर रहना बन नहीं सकता । सारांश यह है कि कर्मयोग-सिद्धान्त वर्णव्यवस्था के आधार पर ही बन सकता है और वह कर्मयोग - सिद्धान्त व्यवहार क्षेत्र से पार पाने का सबसे उत्तम साधन है । इसलिए, कर्त्तव्य निष्ठा वा कर्मयोग की सिद्धि के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था को भारतीय संस्कृति में प्रधान स्थान दिया गया है । वर्त्तमान में वर्ण-व्यवस्था पर बहुत आक्षेप होते हैं और इसी पर भारत की अवनति का बहुत-कुछ दायित्व रखा जाता है। इसे दूषित करनेवाले विद्वानों का कथन है कि वर्ण-व्यवस्था ने ही समाज मे आपस में फूट डाल दी । परस्पर ऊँच-नीच हिस्टेदार बनाइए । तब याज्ञवल्क्य ने उसको ज्ञानोपदेश देना प्रारम्भ किया। तालर्य यह कि प्राचीन काल में भारत की त्रियों में भी आत्मतत्व के सामने समस्त संसार की सम्पत्ति को भी तुच्छ समझने की भावना थी । आध्यात्मिकता का एक खरूप कर्त्तव्य-निष्ठा भी है। वह कर्तव्य-निष्ठा ही भारत की देन है। कर्त्तव्य-निष्ठा की शिक्षा गुरुओं द्वारा आश्रमों में दी जाती थी । वचनों में शक्ति भी इसी निठा से उत्पन्न होती है । कौन-सी वह शक्ति है, पुत्र से पिता की, शिष्य से गुरु की आज्ञा का पालन करा देती है। यह शक्ति कर्त्तव्य-निठा ही है। कर्तव्य-निष्ठा का तालये यह है कि किसी भी कार्य को इसलिए करना कि वह कर्त्तव्य है। इसलिए नहीं कि उसके करने से अच्छा फल मिलेगा । चाहे फल हो या नहीं, पिता और गुरु की आज्ञा का पालन करना ही होगा । आजकल अँगरेजी में इसे 'ड्यूटी' चन्द से कहा जाने लगा है। भारतीय चरित्रों में आप इस कर्त्तव्य-निठा के जगह-जगह दर्शन करेंगे। भारत का एक सुन्दर सन्दर्भ है। वन में क्षत्राणी द्रौपदी ने महाराज युधिष्ठिर को छेड़ दिया कि आप जो धर्म को इतना श्रेष्ठ कहा करते हैं, वह बात तो व्यवहार में ठीक नहीं जँचती । आप स्वयं इतने धर्मात्मा, यज्ञ, दान, व्रत पालन करनेवाले वा नियमों से रहनेवाले वन में भटकते हैं, और दम्न की प्रतिमृत्ति, निरन्तर पाप-कमों में लीन रहनेवाला दुर्योधन संसार-भर का ऐश्वर्य भोग रहा है । तत्र
क्या यह समझा जाय कि यदि वनों में भटकना हो, तो धर्म से ताल्लुक रखो और यदि उन्नति करना हो, तो छल-कपट, दम्म को अपनाओ । इसका बड़ा अच्छा उत्तर युधिष्ठिर ने दिया कि द्रौपदी ! तुमको यह किसने बहका दिया कि मैं फल की इच्छा से कर्म करता हूँ । यह सष्ट समझो कि मैं दान, यज्ञादि कर्म-फल की आकांक्षा से कभी नहीं करता । दान करना चाहिए, इसलिए दान करता हूँ-नाहं धर्मफलाकांक्षी राजपुत्रि चरामि भो । ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ।। यज्ञ करना चाहिए, इसलिए यज्ञ करता हूँ । इस उत्तर से स्पष्ट सिद्ध होता है कि भारत के महापुरुष कर्त्तव्य-निष्ठा से प्रेरित होकर ही कर्म किया करते थे । भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने भी कर्म करने की यही युक्ति अर्जुन को बताई है और इस प्रकार किया हुआ कर्म आत्मा को आवद्ध करनेवाला नहीं होता~यह लष्ट उपदेश किया है । सारांश यह है कि भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता पर अवलम्वित है और कर्म करने में कर्तव्य निष्ठा को इसमें मुख्य स्थान दिया गया है। यदि आध्यात्मिकता न रहे, तो समझ लेना होगा कि भारतीय संस्कृति का लोप हो चुका । अतः, भारतीय संस्कृति के रक्षकों को आध्यात्मिकता की ओर अवस्य ध्यान देना चाहिए। वर्त्तमान युग में जो एकमात्र पेट की चिन्ता ही संसार में सब कुछ बन गई है, वह भारतीय संस्कृति की सर्वथा विघातिनी है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल पेट भर लेना नहीं है । आत्मिक उन्नति ही मनुष्य-जीवन का मुख्य फल है । यही प्रवृत्ति जनता में फैलाने से संग्रह - शक्ति वाले ऊरु वा उदरस्थानीय वैश्य हैं और सेवा-शक्तिवाले पादस्थानीय शूद्र हैं। अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार ही शरीर में प्रकृति ने ऊच्चावच भाव से रखा है। प्रकृति का किसी के साथ पक्षपात नहीं । ज्ञान-शक्ति का ही यह प्रभाव है कि वह सबसे ऊँचे स्थ
ान में बैठती है। इसीलिए, प्रकृति ने शिर को सव अवयवों में ऊँचा स्थान दिया है । शिर सब अवयवों से सदा ऊँचा ही रहना चाहता है। यदि आप सब अंगों को एक सीध में लिटाना चाहें, तब भी एक तकिया लगाकर शिर को कुछ ऊँचा कर ही देना पड़ेगा । नहीं तो शरीर को चैन ही नहीं मिलेगा । यह ज्ञान शक्ति की ही महिमा है। इसी प्रकार प्रपंच में भी ज्ञान-शक्ति के कारण ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था द्वारा उच्च स्थान पाते हैं । अन्यान्य शक्तियाँ भी अपने-अपने प्रभावानुसार क्रम से सन्निविष्ट होती हैं। उसी के अनुसार तत्तत् शक्तिः प्रधान वर्णों का भी स्थान नियत किया गया है। इसमें राग-द्वेप की कोई भी बात नहीं है। शरीर के अवयवों में उच्च-नीच भाव का कभी झगड़ा नहीं होता, सदा सबका सहयोग रहता है। पैर यदि मार्ग में चलते हैं, तो उन्हें मार्ग बताने को आँख प्रस्तुत रहती है । यदि पैर ठोकर खाय, तो दोप आँख पर ही दिया जाता है। इसी प्रकार उदर में क्षुधा लगे, तो भोजन का सामान जुटाने को हाथ सदा प्रस्तुत रहते हैं और उदर मे भी कभी ऐसी प्रवृत्ति नहीं होती कि जो अन्न-पान मुझे मिल गया, वह मैं ही रखूँ और अवयवों के पालन में इसे क्यों लगाऊँ ? यदि कदाचिद् ऐसी प्रवृत्ति हो जाय, तो उदर भी रोगाक्रान्त होकर दुःखी होगा और अन्य अंग भी दुर्बल हो जायेंगे । आत्मा भी विकल हो जायगा । अतः, इससे सव अवयवों के परस्पर सहयोग से ही शरीर का और शरीर के अधिष्ठाता आत्मा का निर्वाह होता है। शरीर के अवयवों के अनुसार वर्ण व्यवस्था बतानेवाले शास्त्रों ने समाज को इसी प्रकार के सहयोग की आज्ञा दी है। अपनी-अपनी शक्ति लगाकर अपने अपने कार्यों द्वारा सत्र वर्ण समाज का हित करते रहें - इसीसे प्रपंच का अधिष्ठाता परमात्मा प्रसन्न रहता है । परस्पर राग-द्वेष का यहाँ कोई भी स्थान नहीं । कदाचित् यह प्रश्न हो कि जिन-जिन में उक्त प्रकार की शक्तियाँ देखी जायँ, उन्हें उन कार्यों में लगाया जाय, यह तो ठीक है, किन्तु केवल जन्मानुसार वर्ण व्यवस्था स्थिर रखना तो उचित नहीं हो सकता । ब्राह्मण वा क्षत्रिय के घर जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण वा क्षत्रिय क्यों हो जाय ? और अन्य वर्णों की अपेक्षा अपने को क्यों मानने लगे। इसका उत्तर है कि कारण के गुणों के अनुसार ही कार्य में गुण होते हैं यह भी विज्ञान-सिद्ध नियम है । काली मिट्टी से घड़ा बनाया जायगा, तो वह काला ही होगा । लाल धागों से कपड़ा बनाया जायगा, से तो लाल ही होगा। मीठे आम के बीज से जो वृक्ष बना है, उसके फल मीठे ही होंगे । इत्यादि प्रकृति-सिद्ध नियम सर्वत्र ही देखा जाता है । तब माता-पिता के रज-वीर्य में जैसी शक्तियाँ हैं, वे ही सन्तान में विकास पायेंगी । यदि कहीं इससे उल्टा देखा जाय, •तो समझना चाहिए कि आहार-विहार, रहन-सहन' आदि में कुछ व्यतिक्रम वा दोष हुआ है। उसका प्रतिकार करना चाहिए । विज्ञान- सिद्ध वर्ण व्यवस्था पर क्यों दोष दिया जाय । शिल्पियों में आज भी परीक्षा करके देखा जा सकता है कि एक बढ़ई का भाव पैदा कर दिया, और यही
सब अवनति की जड़ हुई। किन्तु, विचार करने पर यह आक्षेप निर्मूल ही सिद्ध होता है। वर्ण व्यवस्था कभी परस्पर विरोध वा आपस की फूट नहीं सिखाती । वेद-मन्त्रों से स्मृति पुराणादि तक जहाँ कहीं वर्ण-व्यवस्था का वर्णन है, वहाँ सर्वत्र सब वर्णों को एक शरीर का अंग माना गया है । ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् वाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत । ।। ( पुरुपसूक्त ) अर्थात्, विराट् पुरुष का ब्राह्मण मुख था, अर्थात् विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ था। क्षत्रिय उसके बाहु थे, वैश्य कटि वा उदर थे और विराट पुरुष के पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए थे। इसी वेद-मन्त्र का अनुवाद सव स्मृति पुराणों में है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक वंश के शरीर में जैसे प्रकृति के द्वारा चार भाग बनाये गये हैं शिर, वक्षःस्थल, उदर और पाद, वैसे ही परमात्मा का जो ब्रह्माण्ड रूप विराट शरीर है, उसमें भी चार भाग हैं। हमारे शरीर के प्रथम भाग शिर में ज्ञानशक्ति है । ज्ञान की इन्द्रियाँ आँख, कान, नाक आदि शिर में ही हैं, और वर्त्तमान विज्ञान भी यही कहता है कि शिर में ही ज्ञान-तन्तु रहते हैं, उनके अभिज्वलन से ही ज्ञान पैदा हुआ करता है। विचार का कार्य अधिक करनेवालों को शिर में ही पीड़ा होती है । द्वितीय भाग वक्षःस्थल में बल की शक्ति है । बल की इन्द्रियाँ, जिनसे बल का काम होता है, हाथ इसी अंग में आते हैं। और बल का कार्य अधिक करनेवाले को छाती में ही पीड़ा होती है। शरीर के तीसरे उदर-भाग में संग्रह और पालन की शक्ति है । बाहर से सब वस्तुओं को उदर ही लेता है और उनका विभाग करके आवश्यकतानुसार सत्र अंगों में भेज देता है। उनके ही द्वारा सब अंगों का पालन होता है । अन्न-पानादि बाहर से पहले उदर में भी पहुँचाये जाते
हैं और वहीं से विभक्त होकर सच अंगों का पोषण करते हैं । यहाँ तक कि मस्तक में वा पैर में भी पीड़ा हो, तो औषधि उदर में ही डाली जाती है। वही से वह शिर आदि में पहुँचकर पीड़ा शान्त करती है। चौथे भाग पाद में सेवा-शक्ति है । यह उक्त तीनों अंगों को अपने-अपने कार्य में सहायता देता है। देखने की इच्छा आँख को होती है। उसी को उत्तम दृश्य देखने से सुख मिलता है। मधुर गान सुनने की इच्छा कान को होती है, किन्तु दृश्य देखने वा गान सुनने के स्थानों में आँख वा कान को पैर ही पहुँचाते हैं। बल का कार्य करने के लिए और उदर-पोषण की सामग्री के लिए भी नियत स्थानों पैर ही ले जायेंगे । इन्हीं चारों शक्तियों के परस्पर सहयोग से सव काम चलता है, और सव अंगों के अपने-अपने कार्य में व्याप्त रहने पर आत्मा प्रसन्न रहता है। जैसे, हमारा यह व्यष्टि शरीर है, उसी प्रकार परमात्मा का शरीर यह सम्पूर्ण प्रपंच है। इसमें भी समष्टि रूप से चारों शक्तियाँ भिन्न-भिन्न अवयवों में वर्त्तमान हैं, और परस्पर सहयोग से कार्य करती हैं। जहाँ प्रधान रूप से ज्ञान-शक्ति है, वे प्रपंच-रूप परमात्मा के शिरःस्थानीय ब्राह्मण हैं। जहाँ चल-शक्ति है, वे वक्षःस्थल-रूप क्षत्रिय हैं। जैसा कि भारत के ग्रामों में जाट, गूजर, मीना, अहीर आदि बहुत-सी जातियाँ मिलती हैं । वे उन आगत जातियों के रूपान्तर हैं -- यह सम्भव है, किन्तु यहाँ के वर्णों में वे आगत जातियाँ सम्मिलित हो गई हों, यह सम्भव नहीं । भारत को सदा से वर्णव्यवस्था का पूर्ण आग्रह रहा है और वह व्यवस्था प्राकृतिक वा विज्ञानानुमोदित है । शरीर संगठन की दृष्टि से वर्ण-व्यवस्था का महत्त्व दिखाया गया। अब समाज-संगठन की दृष्टि से विचार किया जायगा । विद्या, बल, द्रव्य आदि सत्र शक्तियों में दुर्बल किसी समाज की संगठन द्वारा उन्नति करने को उसके नेता प्रस्तुत हों, तो सबसे पहले उनका ध्यान शिल्प की उन्नति की ओर जायगा । सब प्रकार के शिल्पों की उन्नति के विना देश या समाज उन्नत हो ही नहीं सकता । प्रथम महायुद्ध के अवसर पर देखा गया कि भारत में वस्त्रों की कमी जो हुई, सो तो हुई, किन्तु वस्त्रों को सीने के लिए सूई की भी कमी हो गई । सूई भी हमें दूसरे देशों से लेनी पड़ती थी । भला, ऐसा समाज सभ्यता की श्रेणी में आकर उन्नति की ओर कैसे पैर बढ़ा सकता है। अतएव, उसके अनन्तर हमारे नेताओं की दृष्टि शिल्प की उन्नति की ओर गई और उनके उद्योग और ईश्वर कृपा से आज भारत शिल्प में बहुत कुछ उन्नत हो गया है । अस्तु; प्राचीन भारत में भी इस बात पर पूरा ध्यान दिया गया था, और वर्ण व्यवस्था में प्रचुर संख्या में रहनेवाली शूद्र जाति के हाथ में शिल्प-चल दिया गया था । शिल्पैर्वा विविधैर्जीवेत् द्विजातिहितमाचरन् । ( याज्ञवल्क्य स्मृति) शूद्रों में भी भिन्न-भिन्न शिल्पों के लिए भिन्न जातियों का विभाग कर दिया गया था । किसी जाति को वस्त्र बनाने का व्यवसाय, किसी को सीने का, किसी को लकड़ी का, किसी को लोहे का, किसी जाति को सोने का, इस प्रकार
से भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न शिल्प बाँट दिये गये थे, जो आज भी चले आ रहे हैं। यह शिल्पबल शूद्र-बल है । शूद्रों के बुद्धि विकास से शिल्पों की उन्नति यहाँ पूर्ण मात्रा में हुई । ढाके की मलमल की बरावरी आज तक भी पाश्चात्य जगत् न कर सका । प्राचीन भारत के नेता ऋषि-महपियों का यह भी ध्यान था कि सब प्रकार के बलों की उन्नति समाज में की जाय, किन्तु उन बलों के दुरुपयोग से समाज को क्लेश न हो, इसका भी ध्यान रखा जाय । इसलिए, उन्होंने अपनी व्यवस्था में एक वल का नियन्त्रण दूसरे बल के द्वारा किया । नियन्त्रण निग्रह और अनुग्रह दोनों से होता है । हितैषिता भी हो और साथ ही दुरुपयोग से बचाया जाय, तभी ठीक नियंत्रण हो सकता है। इस दृष्टि से शूद्र बल का नियन्त्रण व्यापार-बल के द्वारा किया गया । वह व्यापार-वल वैश्य-वल है । और वर्ण-व्यवस्था में शूद्रों से ऊपर वैश्यों का स्थान है । शिल्पी को अपने शिल्प के अधिकाधिक प्रसार की इच्छा रहती है और वह प्रसार व्यापार-बल के द्वारा ही हो सकता है । एक ग्राम, नगर और देश के शिल्प को सैकड़ों-हजारों कोसों तक प्रचारित कर देना व्यापार-वल का ही काम है। इसलिए व्यापार-वल शिल्प-चल की सहायता भी करता है और आलस्यादि दुरुपयोग से उसे बचाता भी है । प्रसार की लालसा से शिल्पियों को
यह नहीं है कि ख्वाब सिर्फ निद्रावस्था में ही दिखाई देते हों, अपितु जाग्रतावस्था में भी उतनी ही सरलता से ख्वाब देखे जा सकते हैं । फर्क सिर्फ इतना होता है कि जाग्रतावस्था में हम अपनी इच्छानुसार ख्वाब देख सकते हैं जबकि निद्रावस्था में देखे जाने वाले ख्वाबों पर हमारा या हमारे मन का कोई नियंत्रण नहीं होता है । अंगूठी - विवाहित मनुष्य द्वारा ख्वाब में सोने की अंगूठी देखना द्रष्टा के व्यापार में उन्नति और सफलता का सूचक है । विवाहित स्त्री यही ख्वाब देखे तो उसे पुत्र पैदा होगा । यदि कोई कुंवारा यह देखे तो उसका विवाह मनचाही स्त्री से होगा । अण्डे - ख्वाब में अण्डे देखना या अण्डे खाना बहुत शुभ होता है । टूटे हुए अण्डे देखना झगड़े और मुकदमेबाजी की सूचना देता है । मुर्गी के अण्डों का ढेर देखना व्यापार में वृद्धि और लाभ का सूचक है । अर्थी - यदि ख्वाब में अर्थी देखे तो वह विवाह अथवा किसी समारोह में शामिल होगा । यदि वह अर्थी ले जाने वालों के साथ सम्मिलित हो तो उसे किसी बारात का निमंत्रण मिलेगा । अप्सरा - यदि कोई पुरुष ख्वाब में अप्सरा देखे तो उसे समस्त प्रकार का सुख और प्रसन्नताओं की प्राप्ति होगी । यदि कोई स्त्री यही ख्वाब देखे तो अच्छा शगुन है । कुंवारी कन्या यही ख्वाब देखे तो उसका शीघ्र ही विवाह होगा । आग के शोले देखना - जो व्यक्ति जलती हुई आग के शोले देखे उसे बहुत खुश होना चाहिए, अगर ख्वाब में आग का देखने वाला कुंवारा है तो जीवन साथी मन पसन्द मिलेगा, यदि सूखा पड़ा हो तो बरसात बहुत होने का संकेत है । आसमान देखना - ख्वाब में आसमान देखना बहुत अच्छा है । ऊँची पदवी प्राप्त हो, समाज में ऊँचा स्थान मिले, भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न हो, अगर आसमान पर स्वयं को उड़ता हुआ देखे तो यात्रा को अवसर मिले और जिस उद्देश्य से यात्रा हो उसमें पूर्ण सफलता मिले । आग जलाकर भोजन बनाना - यदि कोई चूल्हे या भट्टी की जलती आग में खाने का कोई सामान बनाते हुए देखे तो उसे बहुत प्रसन्न होना चाहिए । यदि वह व्यापारी है तो बहुत लाभ हो । नौकर है तो वेतन बढ़ जाए, अकारण खर्च न बढ़ेंगे और हर प्रकार का सन्तोष प्राप्त होगा । यदि आग जलाते हुये खवाब में कपड़ा जल जाए तो कई प्रकार के दुःख मिले, आंखों को किसी प्रकार की पीडा या रोग हो । अखरोट देखना - खूब बढ़िया भरपूर भोजन पाए । धन में लाभ और संतोष मिले । इमारत देखना - धनाढ्य बन जाए, नगर सेठों में नाम आए. इज्जत और सम्मान मिले । इकरार करते देखना - किसी को झूठी दिलासा न दे । सत्य वचन कहे तो खुशी हो । इश्तेहार पढ़ना - कुछ खो जाये, झूठे व्यापारी से हानि हो, कष्ट मिले । इम्तेहान पास करना - काम पूरा होगा, प्रेमिका मिले, यश और धन का लाभ । इत्र (इतर) लगाना - अच्छे कर्मों का पुण्य हो, मनचाही स्त्री से निकटता मिले, संसार में इज्जत मिले, ख्याति पाये । उल्लू देखना - किसी की मृत्यु का समाचार मिले, तबाही आए, सूखा पड़े या बाढ़ या भूचाल आये, दुःख का संकेत है यही हाल उजड़ा गाँव या खेत द
ेखने पर होगा । उबकाई लेना - बुरे कामों से घृणा हो । लोगों को सीधा मार्ग बताये । उस्तरा देखना - चिन्ता मुक्त हो, जेब कट जाए, बीमारी दूर हो । ऊबड़-खाबड़ रास्ता देखना - परेशानी उठाए लेकिन अन्त में सफलता पाये । ऊँचे वृक्ष देखना - उद्देश्य पूर्ति में देर लगेगी, इज्जत और मान प्राप्त हो । ऊन देखना - ऊन वाली भेड़ या ऊनी कपड़े या ऊन का ढेर देखे तो धन का लाभ हो, चिन्तायें मिटे, कई प्रकार का सुख भोगने को मिले । ऊँचे पहाड़ देखना - कठिनाई के बाद राहत पायेगा, कोई बड़ा कार्य करें । कब (लम्बा ढीला कुर्ता ) पहनना - विवाह हो जाए, खुशहाली हो । इज्जत और स्नेह प्राप्त हो । दुश्मन मित्र बन जायें, शुभ समाचार मिले। कत्ल करना (स्वयं को) - अच्छा सपना है, लेकिन बुरे कामों से बचें और धर्म कर्म की ओर ध्यान दें, बुरों की संगति से बचना आवश्यक है । कब्र खोदना - नव निर्माण करे, मकान बनाए, धन पाए, खुशहाल बने । कदम देखना - शान शौकत बढ़े । धन और विश्वास का पात्र मिले । स्त्री देखे तो पुत्र प्राप्त हो, दुःखी देखे तो दुःख मुक्त हो । मालदार देखे तो कोई सुन्दर स्त्री हाथ थामे जिसके साथ आनन्द मिले । बीमार देखे तो स्वस्थ हो जाए । कैंची देखना - प्रेमीजी, पत्नी या मित्र से आदवत हो, दुःख पहुंचे । काफिला देखना - यदि खुशहाल लोगों को आते देखे तो तबाही आए, जाते देखे तो मनोकामना सिद्ध होगी । यात्रा करनी पड़े और कष्ट के बाद राहत पाए । किला देखना - खुशी प्राप्त होगी । दुश्मन से सुरक्षित रहे, शान्ति और सुख का संदेह है । कहीं से शुभ संदेश मिले जिससे खुशी बढ़ जाए । कफन देखना - चिरायु हो । हर प्रकार की बीमारी से स्वास्थ्य लाभ होगा । कोई सगा सम्बन्धी बीमार हो तो अच्छा हो जाए । काबा शरीफ का दीदार करना - बहुत बड़ा ओहदा मिले या धन का
लाभ हो । अच्छे कार्य करके नामवर हो जाए । हर प्रकार का सुख मिले । कमंद देखना - बड़ा काम पड़े किन्तु सहयोगी मिले । सफलता और ऊँचा स्थान प्राप्त होगा । किसी प्रकार का सुख मिले । शुभ समाचार आए । कमल देखना - साधुसन्तों से ज्ञान की प्राप्ति हो । विद्या धन मिले । उत्तीर्ण हो, पत्नी सुन्दर मिले । प्रेमिका सुन्दर और बुद्धिमान मिले । कोयल देखना - प्रेम जाल में फंसकर दुःख पाय, लेकिन प्रेयसी से मिलन हो और सुख पाये । मुसीबत आए पर तुरन्त दूर हो जाए । धन मिले पर शीघ्र ही खर्च हो जाए । काला कुत्ता देखना - कार्य में सफलता होगी । बिगड़े काम बनेंगे । दुश्मन अपने आप दोस्त बन जायेंगे । कूड़े करकट का ढेर देखना - धन मिलेगा लेकिन बहुत कठिनाई के बाद, अभी तो बहुत दिन दुःख भोगने है । काले कपड़े पहिनना - नगर का कोई बड़ा आदमी संसार से विदा होगा, देखने वाले को राहत मिलेगी । खून पीना - हराम का माल खाए, बुराई करे किसी की हत्या करे और फिर पापों का प्रायश्चित करे बुरे काम को छोड़ दे । खाक (धूल-मिट्टी) की बारिश देखना - मुसीबतें टल जायें, धन मिले । दुश्मनी समाप्त हो जाए दुश्मन दोस्त बन जाये । खाना परोसना - सुख शांति का आगमन हो, शादी हो । पत्नी सुशील मिले । खिलौने देखना - सन्तान का जन्म हो, आँखों का सुख मिले । पत्नी राजी हो । खच्चर का दूध पीना - हर समय चिन्ता में उलझा रहे । कोई काम बनाये न बने । लज्जित और तुच्छ बना रहे । खजूर देखना - विद्या मिले, अच्छे कामों से मन को खुशी मिले । दीन का ज्ञान प्राप्त हो । खजूर की गुठली देखे तो रंज हो, यात्रा करनी पड़े । खजूर बटोरते देखे तो अच्छी बातें सुने, अच्छे काम करे । खजूर चीरकर गुठली निकालें तो मनोकामना पूर्ण हो, पुत्र प्राप्त हो । खूबानी देखना - बीमारी या दुःख सामने आए, किन्तु शीघ्र ही राहत हो । खसखस देखना - खसखस पोस्त के बीज को कहते हैं, देखे तो हलाल रोजी पाए, नेकी के काम करे और लोगों में सम्मान पाए, खुदा के सामने अच्छे बने । खेमा देखना - बादशाह अर्थात् सरकारी अधिकारियों, मंत्रियों की निकटता प्राप्त हो, प्रेमिका कुंवारी से काम सुख मिले, जायदाद खरीदे या पाये, काफी ख्याति अर्जित करे । खाल देखना - खाल हलाल जानवर की है जो रोजी खूब मिले, मुरदार हो तो दुःख और गुनाहों में फंसे, हिरण की खाल हो तो काम करे और बहुत नाम पाए, खाल शेर की हो तो शत्रु से विजय पाये । खाट देखना - मनहूस हैं, देखने वाले को खुदा को याद करना चाहिए यदि खाट पर बिछौना देखे तो शादी हो, आराम मिले, काम खराब मिले, इतना कि हरदम उसी में खोया रहे और सब कुछ बन जाए । बीमार पड़े । खेत देखना - विद्या और धन का लाभ हो, खुशहाली हो, घर भूरा पूरा रहे । खलिहान देखना - जो इरादा है वह पूरा हो जाये, कोई काम अटकेगा सम्मान मिले जमीन जायदाद से लाभ होगा मालिक या अधिकारी से दोस्ती जो खुशी का संकेत है । खुले किवाड़ देखना - हर काम जो करेगा उसमें सफलता, हर यात्रा सफल हर दुश्मन परास्त कोई चिन्ता न रहे बिगड़ी बन जायेगी खुशह
ाली आयेगी । आशा के विपरीत धन मिले, विपत्तियां दूर हो शोहरत और इज्जत मिले, व्यापार में लाभ हो, सरकारी दरबार में जाने का अवसर मिले । गधा देखना - प्रेम और स्नेह का चिन्ह है यदि लदा हुआ पाये तो बहुत लाभ हो हर तरह का सुख मिले । व्यापार में लाभ हो । गधे की सवारी करना - सरकारी दरबार में स्थान मिले, व्यापार में लाभ हो संकट टल जाये, कोई शुभ समाचार मिले । गुलाब देखना - ऊंचा स्थान मिले जनता में लोकप्रियता, व्यापार करे तो बहुत लाभ हो । शुभ समाचार मिले । दोस्तों से स्नेह और दुश्मनों से सन्धि पड़े, प्रेमिका से मिलन हो । गोश्त (कच्चा ) खाना - भाई से दुःख मिले, हराम का माल हाथ आए और वही दुःखों का कारण बने । गालियां देते देखना - देते हुये या सुनते हुये देखे तो बुरी बातों से बचे, बुरा काम करे और बदनामी पाये । गली देखना - यदि सुनसान है तो लाभ होगा । लोगों से भरी है तो मुहल्ले में किसी की मृत्यु हो, खुशहाली कठिनाई से जाएगी । गोबर देखना - कुबेर का धन मिले । खेती में अन्न उपजे, दूध घी की कमी न हो । शुभ समाचार आये । घोडा (काले रंग का) देखना - बड़ा स्थान पाएगा, नामबर होगा. सब जगह सम्मान होगा । घोड़ी देखना - कुंवारा हो तो शादी की तैयारी करे पत्नी सुन्दर मिलेगी । घी देखना - धन दौलत मिलेगी, तंगी नहीं रहेगी । घास देखना - लाभ ही लाभ होगा । खुशहाली आयेगी, कोई शुभ समाचार मिलें । घर (लोहे का ) देखना - बहुत शक्ति, धन, यश, सन्तान, पत्नी, प्रेमिका मित्र, सम्बन्धी हर प्रकार का सुख प्राप्त होगा । चाँद देखना - बादशाह (प्रधान या प्रधानमंत्री) बन जाये, पत्नी सुन्दर और सुघड़ मिले, कुबेर का धन प्राप्त हो । चाँदी गलाते हुए देखना - अपने ही लोगों से बैर हो, चिन्ताओं के संकट में घिर जाए और कई प्रकार का दुःख पाये । चादर द
ेखना - पत्नी वफादार और सुशील मिले । कोई बुरा करने की भूल हो जाय जिसके परिणामस्वरूप लज्जित होना पड़े । चक्की देखना - जनता में सम्मान पाए, लोगों को अच्छी सलाह दे, यात्रा सामने आए, सकुशल वापसी हो । चींटियां देखना - वह घर उजड़ जाए । रहने वाले कम हो जायें, दुःख हो संकट आए । जाम देखना - हर काम में सफलता होगी, बुद्धि बढ़ेगी और कई प्रकार की ऐसी विशेषताएं प्राप्त होगी जिनसे मनुष्य लोकप्रिय होता है । जेल देखना - जग हँसाई हो, बदनामी के काम करे, जेल से बाहर आता देखे तो उद्देश्य सफल होगा । जहाज देखना - क्रोध और अदावत से मुक्ति मिले, माल का व्यय बहुत हो किन्तु मन का संतोष रहे किसी प्रकार की चिन्ता हो वह दूर हो जाये । जल्लाद देखना - कोई बुरा काम करे, दुःख पाये, दुश्मन का भय रहे किन्तु आयु बढ़ेगी । जंग देखना - किसी पर लांछन न लगाये । पीठ पीछे बुराई न करे अन्यथा बड़ी मुसीबत खड़ी हो जायेगी और सपना देखने वाला ही नहीं सारा परिवार परेशान हो सकता है । जंगल देखना - कोई कष्ट चल रहा है वो शीघ्र दूर होगा, आराम और खुशी का सन्देश है । यदि जंगल में सूखे पेड़ है तो दुःख बीमारी का संकेत भी है । जालिम को देखना - बुरे काम में फंस जाए, दुःखों का सामना करना । बहुत दुःख पाये, दान करे, शुभ कार्य में मन लगाए । झाडू देखना - ख्वाब मनहूस है, परेशानी हो तंगी जाए, दान देना चाहिए । जलसा देखना - अगर जलसे में लोगों को प्रसन्न देखे तो सुख पाये यदि दुःखी देखे तो अपने किसी निकटवर्ती के विषय में अशुभ समाचार सुने । जंजीर हाथ में लेना - गुनाहों में फंस जाए, पकड़ा जाए या मुकदमा चले. सवारी होगी, दुःख झेलना होगा । किसी से प्रेम में कष्ट उठाए । जिन्दा व्यक्ति को मृत देखना - जिसे देखे उसकी आयु बढ़े, परेशानी दूर हो । खोये हुये के मिलने का समाचार मिले । किसी प्रकार का भी शुभ समाचार मिल सकता है । जहर खाना - लोगों में अकारण बुरा बनना होगा । बदनाम होना पड़ेगा. गलत कामों से बचें । अच्छे लोगों की संगति में बैठे । ठण्ड से ठिठुरना - अगर देखने वाला बहुत दिनों से दुःखी है तो उसे हर तरह का सुख शीघ्र ही मिलने वाला है । ठोकर मारना - बड़ा स्थान मिले । शत्रु पर विजय पाए । सुन्दर स्त्री मिले या फिर सन्तान की प्राप्ति हो । धन दौलत का सुख भी मिल सकता है । डोली सजाते देखना - मनोकामना पूरी हो । कोई ऊँचा स्थान मिले । विवाह हो या नेता चुना जाए । डिबिया देखना - मन की बात खुल जाने के कारण शर्मिन्दा होना पड़े कोई ऐसी बात हो जाए जिससे अकारण की उलझन हो । डाकिया देखना - शुभ सूचना आए, चिरायू हो, किसी बिछुड़े यार का पत्र कुशलता का आए । डलिया देखना - मनोकामना पूरी होगी, किसी ऐसे साधन से लाभ होगा जिसके विषय में कभी सोचा तक नहीं होगा । डाकू देखना - दुश्मन से डर है, कोशिश करो कि मामला बातचीत से तय हो जाए, कोई ऐसा मित्र भी दुश्मन हो सकता है, जिस पर बहुत भरोसा हो । बेटी बहिन जवान है तो शीघ्र विवाह का प्रयास करना चाहिए, अपनी पत्नी पर नजर रखना आवश्यक
है । ढाक का वृक्ष देखना - किसी साधु, सन्त, पीर, फकीर की संगत मिले, भोजन भरपूर मिले, मनोकामना सिद्ध होने का संकेत है । ढलता हुआ सूरज देखना - परेशानी और धन के विघटन की निशानी है, सूर्य अस्त होता देखे तो किसी की मौत का समाचार मिले । ताबूत देखना - अपना ताबूत, अर्थी या जनाजा देखने का फल यह है कि जिस काम को कर रहे है, उसमें पूर्ण सफलता, जिस दुश्मन से दुश्मनी चल रही है उस पर विजय होगी । तोशक (गद्दा ) देखना - विवाह हो । पत्नी कुंवारी से प्रेम और कामसुख । तुर्श (खट्टा मेदा) खाना - रंज और दुःख का सामना हो । चिन्ताएं घेरे रहे । परेशानी सामने आए । दान के शुभ कार्य करे तो कठिनाई दूर हो । तिलिस्म देखना - चिरायु हो, बड़े लोगों की संगति हो, दुश्मन नीचा देखें । कोई शुभ समाचार आए । थूकना किसी पर - जिस पर थूकेगा उस पर दुःख पहुंचे । यदि दुश्मन पर थूके तो दुश्मन परास्त हो, थूक जिस पर गिरे वह मर जाए या फिर अपमानित हो । दाँत (अपना) उखाड़ना - माल जमा हो, लोगों के साथ निर्दयता का व्यवहार करे । सावधान रहना चाहिए । कांटेदार दरख्त देखना - बीमारी और दुःख पाए परेशानियां भोगे, व्यापार शुरू करने का इरादा हो तो न करे घाटा होगा । दाँत कुरेदना - अपनों से दुश्मनी हो या कोई ऐसा काम करे जिसमें उसे अपनों बेगानों के सामने लज्जित होना पड़े । दाढ़ी देखना - हर तरफ इज्जत हो । समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त हो । लोग बात को मानें और पसन्द करे । दाढ़ी जितनी घनी देखेंगे उतनी ही इज्जत बढेगी । दुशाला देखना - किसी बड़े आदमी की बातों से खुशी हो, विद्या की प्राप्ति हो । विद्यार्थी देखे तो परीक्षा में उत्तीर्ण हो । दवाई पीना - बुरे काम त्याग दे और सीधा रास्ता अपनाए । पापों का प्रायश्चित करे अच्छा आदमी बन जाए । दरिया (नदी) देखना -
नेता या बड़े अधिकारी से दोस्ती का लाभ हो । धन बहुत हाथ आए, जिस व्यापार में हाथ लगाए घाटा न हो तो इरादा करे पूरा हो जाए, खुशी का समाचार मिले डूबता देखे तो हानि हो तैरना देखे तो सफलता पाए । दौलत देखना - पत्नी गर्भवती हो, किसी स्त्री से लाभ हो, सन्तान की प्राप्ति हो, व्यापार में लाभ हो, खुशी ही खुशी है । दलदल देखना - परेशानी हर प्रकार के होने का संकेत है । चिन्तायें घेरे रहेगी । देगची देखना - पवित्र स्त्री से निकटता पाए, धन मिले, शुभ समाचार मिले चूल्हा भी साथ में देखे तो बढ़िया घर बनवाए खाने की कभी तंगी न हो । धुआँ देखना - दुःख कष्ट, यातनायें मिले, शहर में दंगा फसाद हो, देश में युद्ध हो, मित्रों से बुराई हो, दान करे और शुभ कार्यों तथा अच्छी संगत में समय लगाएं । धोबी देखना - काम सफल होगा, बुरी आदतों का मैल जीवन से धुल जाएगा, चिंता की बात नहीं । धार्मिक ग्रन्थ देखना - विद्वान बने, इज्जत पाए, दीन दुखियों में भलाई हो, किसी प्रकार का दुःख न रहे । खुशहाल रहे । नाव देखना - कुंवारी से काम सुख प्राप्त हो । यदि स्त्री देखे तो पुरुष मनपसंद मिले और लाभ उठाए । हर प्रकार का सुख मिले । नान देखना - मित्रों से मिलन हो । धन और आराम का संकेत है चिरायु हो, बिगड़े काम बन जायेंगे । नशे में (स्वयं को) देखना - अमीरी और ऐश का संकेत है, इतना धन मिले कि अपने कर्त्तव्य को भूल जाए जैसे नशे में मनुष्य को कुछ याद नहीं रहता है । नमाज पढ़ते देखना - हर प्रकार के सांसारिक कष्टों से बचाव होगा. व्यापार में वृद्धि और दोस्तों की संख्या बढ़ेगी । दुश्मन घटेंगे, कोई कष्ट नहीं होगा । जीवन में खुशहाली आने का संकेत है । नदी / नाले में गिरते देखना - कई प्रकार के संकट घेर लें लेकिन अन्त में दुःख दूर हो और खुशहाली आए । दान देकर संकट दूर करें । नथनी देखना - पत्नी कुंवारी मिले । काम सुख मिले । वेश्यागमन न करे अन्यथा बदनाम होकर अपमानित होगा । नीम का पेड़ देखना - रोग कटेगा, प्रतिदिन सेवन करें, पुत्र शक्तिशाली पत्नी निरोग मिले । नीलम ( रत्न ) देखना - मनोकामना पूर्ण होगी । दुश्मन परास्त होंगे, प्रेमिका से मिलन होगा । पाँव देखना - जिसे देखे उसकी आयु बढ़े, परेशानी दूर हो । खोये हुए के मिलने का समाचार मिले । पालदार नौका देखना - शत्रु पर विजय प्राप्त हो । तीर कमान और अन्य हथियारों के विषय में भी यही फल विचारने वालों ने बताया है । पासा फेंकते देखना - मुकद्दर से संघर्ष हो रहा है, अभी थोड़ा समय है सफलता में । पंजा कटा देखना - कष्ट और दुःखों का संकेत है, किसी प्रकार की हानि का सामना करना पड़ सकता है । सावधान रहना चाहिए । पिस्तान (औरत की छाती) देखना - पत्नी मिले, सन्तान की प्राप्ति हो, हर प्रकार का सुख मिलने का संकेत है । पलंग देखना - दुनिया में झूठा बनकर अपमानित होगा, लोग विश्वास नहीं करेंगे, अत्यन्त नीच समझा जाएगा, सावधान रहे । फूल देखना - सपने में सफेद तथा रंगीन फूल दिखाई दे तो पुत्र की प्राप्ति हो, धन का लाभ हो, चैन
राहत मिले । फूल काले हो तो दुःख मिले । फूल के पास कंटीली झाड़ियां देखे तो मुसीबतों के बाद राहत मिले । फावड़ा देखना - कठिन परिश्रम के पश्चात् ही सुख मिलेगा । मेहनत की कमाई खायेगा और हर प्रकार की शान्ति रहेगी किन्तु धन की कमी रहेगी । फटे हुए कपड़े देखना - चिन्ताओं में घिर जाना पड़े । दुःख मिले, धन की हानि । यही हाल फटे पुराने जूते देखने का है । दान करें ईश्वर की उपासना करें । फकीर देखना - दुनिया और दीन में भलाई होगी । मनोकामना पूरी होगी । साधु सन्तों की संगति मिलेगी, जीवन सफल हो जाएगा । फर्श (बिछा हुआ) देखना - किसी की शादी या मृत्यु का समाचार मिले । सरकार दरबार में सम्मान पाए । बालू रेत देखना - अधिक देखे तो कम धन का लाभ, कम देखे तो अधिक धन का लाभ होता है । बालू को छानते देखे तो परेशानी हो लेकिन दुश्मन से मुक्ति माल का व्यय, अकारण राज्य पर संकट । बिच्छू देखना - दुश्मनों से कष्ट मिले, हानि पहुंचे, सावधान रहना आवश्यक है । बर्फ खाते देखना - दिल की खुशी हो, किसी तरह की चिन्ता हो तो दूर हो जाए, खुशी और समृद्धि मिले । बादाम देखना - धन, व्यापार और काम में उन्नति नौकरी में ऊँची पदवी मिले, हर तरह का सुख मिले, स्त्री चैन पाये । बरसात देखना - यदि तमाम बस्ती पर पानी बरसता देखे तो खुशहाली और सुख है । केवल अपने घर में देखे तो तबाही और दुःख होगा । बरसाती या छतरी लगाकर के चलता देखे तो दुःख दूर होंगे, सुख मिलेगा । बांसुरी देखना - मृत्यु निकट है या फिर बहुत दुःखदायी बीमारी का सामना करना होगा । दान दे शुभ कार्य करे । बाजू देखना - यदि कोई खुवाब देखे कि उसकी अपनी बांह कट गई है अपने भाई या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी की मृत्यु का समाचार है । भोजन की थाली देखना - ऐश और आराम का संकेत है, लेकिन कठिन मेहनत क
े पश्चात् । भिखारी देखना - कोई अच्छा कार्य करे, राहत होगी । भैंस देखना - धन भोजन की प्राप्ति । मिठाई खाना - सुख पाए, दोस्ती बढ़े, प्रेम और स्नेह पाए, प्रेमिका से मिलन हो पत्नी मन पसन्द पाए, बिगड़े काम बन जायेंगे । मछली देखना - एक या दो देखे तो सुन्दर हसीना से विवाह हो, बड़ी हो तो खूब धन पाए और छोटी हो तो गरीबी और तंगी का सामना करना पड़े । मुर्दा शरीर से आवाज सुनना - उस उद्देश्य की प्राप्ति होगी । जिसको पाने के बाद भी निराशा ही हाथ लगेगी, लाभ नहीं होगा, होगा तो काम न आएगा । मुर्दा उठाकर ले जाते हुए देखना - हराम का माल हाथ आए जिसका लाभ दूसरे उठायें । राहत नहीं मिलेगी । ऐसे माल के न मिलने की दुआ मांगे जो मुसीबतों में उलझा दे । मुर्दे को जिन्दा देखना - यदि वह वृद्ध हो तो ज्ञान प्राप्त करे, अच्छा काम करे । यदि वह सुन्दर और जवान है तो खुशहाली पाए । चिन्तायें समाप्त हों । मस्जिद देखना - यदि बनाते देखे तो मनोकामना पूरी हो, केवल देखे तो भी राहत हो । कहीं से शुभ समाचार होगा । मीट देखना - ज्ञान की वृद्धि, मनोकामना पूरी होगी जो इरादा है वह शीघ्र पूरा होगा । मिर्च खाना - लड़ाई हो लेकिन सुलह हो जाए, परीक्षा में उत्तीर्ण हो किसी की बात सहन न हो । मलाई खाना - धन का लाभ हो, बिना मेहनत दौलत मिले प्रेमिका से मिलन की आशा के विपरीत हो । खोया हुआ माल मिल जाये, जीवन में शान्ति और आराम मिले । मुरझाए फूल देखना - दुःख होगा, अशांति बढ़ेगी सन्तान की हानि । मोमबत्ती देखना - विद्वान बने खुशी पाये, पुत्र पाये, पत्नी सुन्दर से विवाह होगा । मुर्ग-मुसल्लम खाना - बहुत जल्दी उन्नति कारोबार की हो । धन का लाभ हो ख्याति पाये । मल-मूत्र देखना - लज्जा के काम करे । माहवारी के कपड़े, वीर्य के धब्बे देखे, तो भी ऐसा ही हो । जग हँसाई हो, पाप कमाये, दान दे, सज्जन पुरुषों की संगति करे तो काफी लाभ होगा । रेलगाड़ी देखना - यात्रा हो, कष्ट हो लेकिन अन्त में राहत मिले, कोई शुभ सन्देश मिलेगा, सावधानी की आवश्यकता है । रेलवे स्टेशन देखना - यात्रा होगी, लाभ होगा, सकुशल लौटना होगा, खुशी मिलेगी । रेडियो देखना - कोई लाभ न कोई हानि केवल समय का ध्यान आपको नहीं है इस मारे प्रगति नहीं कर रहे । रद्दी का ढेर देखना - धन काठ कबाड़ से प्राप्त हो, रोकड़ हाथ आये, व्यापार पुराने माल का शुभ है । लिबास मैला देखना - रंज परेशानी और बदहाली का संकेत है । ऐसे काम हो जिनसे लज्जित होना पड़े । लिबास साफ सफेद हो तो सुख हो । पीला छोड़कर किसी रंग का लिबास दरबार में पहुंचे हो । केवल पीले वस्त्र देखने पर तबाही, बरबादी और दुःख की सम्भावना है । लिंग (बड़ा) देखना - सन्तान खूब हो । स्त्री सुख प्राप्त हो । काम वासना बढ़ी रहे । शक्ति प्राप्त हो और वासना के नशे में चूर रहे । लिंग और योनी एक साथ देखने का फल यह है कि चिन्तायें घेर लें । यदि किसी से सम्बन्ध हो तो उससे राहत पाये । लगाम देखना - ईमानदारी और अच्छे काम करके लोकप्रिय हो जाएगा । लुहार देखना
- कड़ी मेहनत करनी होगी तब अपार सुख मिलेगा शक्ति बढ़ेगी, शत्रु नीचा देखेंगे, तेज और ख्याति बढ़ेगी । लोमड़ी देखना - मक्कार निकटवर्ती लोगों से हानि हो, पत्नी मनपसन्द न मिले । लंगूर देखना - मुसीबतों का अन्त होने का समय आ गया है यदि लंगूर पेड़ पर है तो देर लगेगी, धरती पर है तो शीघ्र सारी उलझनों का अन्त होगा । कहीं से आशा के विपरीत शुभ समाचार मिलेगा । लंगोटी देखना - आर्थिक कठिनाइयों का सामना रहे, परदेश जाना पडे तो भलाई की आशा है । वसीयत करना - समय कम है जितने नेक काम कर सकता हो कर ले । दान और खुदा से दुआ मांगे कि अन्त अच्छा हो । वकील देखना - कोई सहायक और मित्र बने जो उसे कठिनाइयों से निकाले मुकदमा चल जाए लेकिन विजय उसी की है । शराब देखना - हराम की कमाई से माल मिले, इज्जत खराब हो या दुश्मनी लडाई से कष्ट उठाने का संकट है । शरबत देखना - चिरायु हो, बीमार हो तो अच्छा हो जाए, परेशानी दूर हो, मित्रों से प्यार बढें रंज दूर हो । शतरंज देखना - वाहियात और व्यर्थ के कामों में समय बरबाद न करे यदि किसी से लड़ाई हो तो विजय पाये । सिलबट्टा देखना - सास ननद में कलह हो दुःख पाये अशांत रहे । सांप देखना - यदि सांप को मार दिया है या पकड़ लिया देखा है तो दुश्मन पर विजय मिले । आशा के विपरीत धन मिले । यदि साप से डर गया है तो दुश्मन से खतरा है, कोई मित्र ही शत्रु का रूप धारण कर सकता है । सांप को घर में देखे तो पत्नी से बेवफाई का डर है । सर्कस देखना - बहुत कठिनाई से दुनिया को खुश कर सकते हैं । सारंगी देखना - वेश्यागमन में समय, धन नष्ट करे । सीमा पार करना - विदेशी व्यापार से लाभ । सूअर देखना - बदमाशों और कमीनों का मुखिया बने, बेशर्म और कुकर्मी बनकर बदनाम हो । सुअर देखने वाला सावधान होकर ईश्वर की उपासना करे ।
सूर्य देखना - तेज बढ़े, ख्याति और धन की समृद्धि बढ़े, यशस्वी पुत्र प्राप्त हो । पत्नी का सुख मिले । सुलगती हुई आग देखना - दुःख बीमारी, दुश्मन से चिन्ता, शोक समाचार मिले । स्त्री की छाती से दूध टपकना - काम सुख मिले, पुत्र का जन्म हो, ससुराल से माल मिले । सीपी देखना - पानी में देखें तो हानि रेत पर पाये तो लाभ होगा । स्याही देखना - अपने कुल का मुखिया बने । टोले मुहल्ले के लोगों का अगुवा बने । सरकार में सम्मान प्राप्त हो । सायरन सुनना - भय से चिन्ता हो, शत्रु शक्तिशाली हो, लेकिन शीघ्र ही चिन्ता मुक्त हो । संदूक देखना - पत्नी या बांदी ऐसी मिले जिससे खूब सेवा मिले, दिल को चैन हो. खुशी का समाचार मिले आशा के विपरीत धन मिले ।
मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन हुई, उसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए। मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन ...Read Moreउसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए। कैदखाने से छूटने के बाद मियाँ आजाद को रिसाले में एक ओहदा मिल गया। मगर अब मुश्किल यह पड़ी कि आजाद के पास रुपए न थे। दस हजार रुपए के बगैर तैयारी मुश्किल। अजनबी आदमी, पराया मुल्क, इतने रुपयों ...Read Moreइंतजाम करना आसान न था। इस फिक्र में मियाँ आजाद कई दिन तक गोते खाते रहे। आखिर यही सोचा कि यहाँ कोई नौकरी कर लें और रुपए जमा हो जाने के बाद फौज में जायँ। मन मारे बैठे थे कि मीडा आ कर कुर्सी पर बैठ गई। जिस तपाक के साथ आजाद रोज पेश आया करते थे, उसका आज पता न था! चकरा कर बोली - उदास क्यों हो! मैं तो तुम्हें मुबारकबाद देने आई थी। यह उल्टी बात कैसी? जोगिन शहसवार से जान बचा कर भागी, तो रास्ते में एक वकील साहब मिले। उसे अकेले देखा, तो छेड़ने की सूझी। बोले - हुजूर को आदाब। आप इस अँधेरी रात में अकेले कहाँ जाती हैं? जोगिन - हमें न छे़ड़िए। वकील ...Read Moreशाहजादी हो? नवाबजादी हो? आखिर हो कौन? जोगिन - गरीबजादी हूँ। वकील - लेकिन आवारा। जोगिन - जैसा आप समझिए। वकील - मुझे डर लगता है कि तुम्हें अकेला पा कर कोई दिक न करे। मेरा मकान करीब है, वहीं चल कर आराम से रहो। जमाना भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही अलारक्खी जो इधर-उधर ठोकरें खाती-फिरती थी, जो जोगिन बनी हुई एक गाँव में पड़ी थी, आज सुरैया बेगम बनी हुई सरकस के तम
ाशे में बड़े ठाट से बैठी हुई है। ...Read Moreसब रुपए का खेल है। सुरैया बेगम - क्यों महरी, रोशनी काहे की है? न लैंप, न झाड़, न कँवल और सारा खेमा जगमगा रहा है। महरी - हुजूर, अक्ल काम नहीं करती, जादू का खेल है। बस, दो अंगारे जला दिए और दुनिया भर जगमगाने लगी। हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने ही दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं ...Read Moreमगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए। शाहजादा हुमायूँ फिर कई महीने तक नेपाल की तराई में शिकार खेल कर लौटे तो हुस्नआरा की महरी अब्बासी को बुलवा भेजा। अब्बासी ने शाहजादा के आने की खबर सुनी तो चमकती हुई आई। शाहजादे ने देखा तो फड़क ...Read Moreबोले - आइए, बी महरी साहबा हुस्नआरा बेगम का मिजाज तो अच्छा है? अब्बासी - हाँ, हुजूर! सुरैया बेगम ने आजाद मिरजा के कैद होने की खबर सुनी तो दिल पर बिजली सी गिर पड़ी। पहले तो यकीन न आया, मगर जब खबर सच्ची निकली तो हाय-हाय करने लगी। अब्बासी - हुजूर, कुछ समझ में नहीं आया। ...Read Moreउनके एक अजीज हैं। वह पैरवी करने वाले हैं। रुपए भी खर्च करेंगे। सुरैया बेगम - रुपया निगोड़ा क्या चीज है। तुम जा कर कहो कि जितने रुपयों की जरुरत हो, हमसे लें। अब्बासी आजाद मिरजा के चा
चा के पास जा कर बोली - बेगम साहब ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि रुपए की जरूरत हो तो हम हाजिर हैं। जितने रुपए कहिए, भेज दें। आजाद अपनी फौज के साथ एक मैदान में पड़े हुए थे कि एक सवार ने फौज में आ कर कहा - अभी बिगुल दो। दुश्मन सिर पर आ पहुँचा। बिगुल की आवाज सुनते ही अफसर, प्यादे, सवार सब चौंक ...Read Moreसवार ऐंठते हुए चले, प्यादे अकड़ते हुए बढ़े। एक बोला - मार लिया है। दूसरे ने कहा - भगा दिया है। मगर अभी तक किसी को मालूम नहीं कि दुश्मन कहाँ है। मुखबिर दौड़ाए गए तो पता चला कि रूस की फौज दरिया के उस पार पैर जमाए खड़ी है। दरिया पर पुल बनाया जा रहा है और अनोखी बात यह थी कि रूसी फौज के साथ एक लेडी, शहसवारों की तरह रान-पटरी जमाए, कमर से तलवार लटकाए, चेहरे पर नकाब से छिपाए, अजब शोखी और बाँकपन के साथ लड़ाई में शरीक होने के लिए आई है। उसके साथ दस जवान औरतें घोड़ों पर सवार चली आ रही हैं। मुखबिर ने इन औरतें की कुछ ऐसी तारीफ की कि लोग सुन कर दंग रह गए। दूसरे दिन आजाद का उस रूसी नाजनीन से मुकाबिला था। आजाद को रातभर नींद नहीं आई। सवेरे उठ कर बाहर आए तो देखा कि दोनों तरफ की फौजें आमने-सामने खड़ी हैं और दोनों तरफ से तोपें चल रही हैं। खोजी ...Read Moreसे एक ऊँचे दरख्त की शाख पर बैठे लड़ाई का रंग देख रहे थे और चिल्ला रहे थे, होशियार, होशियार! यारों, कुछ खबर भी है? हाय! इस वक्त अगर तोड़ेदार बंदूक होती तो परे के परे साफ कर देता। इतने में आजाद पाशा ने देखा कि रूसी फौज के सामने एक हसीना कमर में तलवार लटकाए, हाथ में नेजा लिए, घोड़े पर शान से बैठी सिपाहियों को आगे बढ़ने के लिए ललकार रही है। आजाद की उस पर निगाह पड़ी तो दिल में सोचे, खुदा इसे बुरी नजर से बचाए। यह तो इस काबिल है कि इसकी पूजा करे। यह, और मैदान जंग! हाय-हाय, ऐसा न हो कि उस पर किसी का हाथ पड़ जाय। गजब की चीज है यह हुस्न, इंसान लाख चाहता है, मगर दिल खिंच ही जाता है, तबीयत आ ही जाती है। शाम के वक्त हलकी-फुलकी और साफ-सुथरी छोलदारी में मिस क्लारिसा बनाव-चुनाव करके एक नाजुक आराम-कुर्सी पर बैठी थी। चाँदनी निखरी हुई थी, पेड़ और पत्ते दूध में नहाये हुए और हवा आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी! उधर मियाँ आजाद कैद ...Read Moreपड़े हुए हुस्नआरा को याद करके सिर धुनते थे कि एक आदमी ने आ कर कहा - चलिए, आपको मिस साहब बुलाती हैं। आजाद छोलदारी के करीब पहुँचे तो सोचने लगे, देखें यह किस तरह पेश आती है। मगर कहीं साइबेरिया भेज दिया तो बेमौत ही मर जाएँगे। अंदर जा कर सलाम किया और हाथ बाँध कर खड़े हो गए। क्लारिसा ने तीखी चितवन कर कहा - कहिए मिजाज ठंडा हुआ या नहीं? आजाद तो साइबेरिया की तरफ रवाना हुए, इधर खोजी ने दरख्त पर बैठे-बैठे अफीम की डिबिया निकाली। वहाँ पानी कहाँ? एक आदमी दरख्त के नीचे बैठा था। आपने उससे कहा - भाईजान, जरा पानी पिला दो। उसने ऊपर देखा, ...Read Moreएक बौना बैठा हुआ है। बोला - तुम कौन हो? दिल्लगी यह हुई कि वह फ्रांसीसी था। खोजी
उर्दू में बात करते थे, वह फ्रांसीसी में जवाब देता था। बड़ी बेगम का बाग परीखाना बना हुआ है। चारों बहनें रविशों में अठखेलियाँ करती हैं। नाजो-अदा से तौल-तौल कर कदम धरती हैं। अब्बासी फूल तोड़-तोड़ कर झोलियाँ भर रही है। इतने में सिपहआरा ने शोखी के साथ गुलाब का ...Read Moreतोड़ कर गेतीआरा की तरफ फेंका। गेतीआरा ने उछाला तो सिपहआरा की जुल्फ को छूता हुआ नीचे गिरा। हुस्नआरा ने कई फूल तोड़े और जहाँनारा बेगम से गेंद खेलने लगीं। जिस वक्त गेंद फेंकने के लिए हाथ उठाती थीं, सितम ढाती थीं। वह कमर का लचकाना और गेसू का बिखरना, प्यारे-प्यारे हाथों की लोच और मुसकिरा-मुसकिरा कर निशाने बाजी करना अजब लुत्फ दिखाता था। कोठे पर चौका बिछा है और एक नाजुक पलंग पर सुरैया बेगम सादी और हलकी पोशाक पहने आराम से लेटी हैं। अभी हम्माम से आई हैं। कपड़े इत्र में बसे हुए हैं। इधर-उधर फूलों के हार और गजरे रखे ...Read Moreठंडी-ठंडी हवा चल रही है। मगर तब भी महरी पंखा लिए खड़ी है। इतने में एक महरी ने आ कर कहा - दारोगा जी हुजूर से कुछ अर्ज करना चाहते हैं। बेगम साहब ने कहा - अब इस वक्त कौन उठे। कहो, सुबह को आएँ। महरी बोली - हुजूर कहते हैं, बड़ा जरूरी काम है। हुक्म हुआ कि दो औरतें चादर ताने रहें और दारोगा साहब चादर के उस पार बैठें। खोजी आजाद के बाप बन गए तो उनकी इज्जत होने लगी। तुर्की कैदी हरदम उनकी खिदमत करने को मुस्तैद रहते थे। एक दिन एक रूसी फौजी अफसर ने उनकी अनोखी सूरत और माशे-माशे भर के हाथ-पाँव देखे तो जी ...Read Moreकि इनसे बातें करें। एक फारसीदाँ तुर्क को मुतरज्जिम बना कर ख्वाजा साहब से बातें करने लगा। आजाद को साइबेरिया भेज कर मिस क्लारिसा अपने वतन को रवाना हुई और रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव किया। वहाँ की आब-
हवा उसको ऐसी पसंद आई कि कई दिन तक उसी पड़ाव पर शिकार खेलती रही। एक ...Read Moreमिस-कलरिसा ने सुबह को देखा कि उसके खेमे के सामने एक दूसरा बहुत बड़ा खेमा खड़ा हुआ है। हैरत हुई कि या खुदा, यह किसका सामान है। आधी रात तक सन्नाटा था, एकाएक खेमे कहाँ से आ गए! एक औरत को भेजा कि जा कर पता लगाए कि ये कौन लोग है। वह औरत जो खेमे में गई तो क्या देखती है कि एक जवाहिरनिगार तख्त पर एक हूरों को शरमाने वाली शाहजादी बैठी हुई है। देखते ही दंग हो गई। जा कर मिस क्लारिसा से बोली - हुजूर, कुछ न पूछिए, जो कुछ देखा, अगर ख्वाब नहीं तो जादू जरूर है। ऐसी औरत देखी कि परी भी उसकी बलाएँ ले। जिस वक्त खोजी ने पहला गोता खाया तो ऐसे उलझे कि उभरना मुश्किल हो गया। मगर थोड़ी ही देर में तुर्कों ने गोते लगा कर इन्हें ढूँढ़ निकाला। आप किसी कदर पानी पी गए थे। बहुत देर तक तो ...Read Moreही ठिकाने न थे। जब जरा होश आया तो सबको एक सिरे से गालियाँ देना शुरू कीं। सोचे कि दो-एक रोज में जरा टाँठा हो लूँ तो इनसे खूब समझूँ। डेरे पर आ कर आजाद के नाम खत लिखने लगे। उनसे एक आदमी ने कह दिया था कि अगर किसी आदमी के नाम खत भेजना हो और पता न मिलता हो तो खत को पत्तों में लपेट दरिया कि किनारे खड़ा हो और तीन बार 'भेजो-भेजो' कह कर खत को दरिया में डाल दे, खत आप ही आप पहुँच जायगा। खोजी के दिल में यह बात बैठ गई। आजाद के नाम एक खत लिख कर दरिया में डाल आए। उस खत में आपने बहादुरी के कामों की खूब डींगे मारी थीं। खोजी थे तो मसखरे, मगर वफादार थे। उन्हें हमेशा आजाद की धुन सवार रहती थी। बराबर याद किया करते थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि आजाद को पोलैंड की शाहजादी ने कैद कर दिया है तो वह आजाद को ...Read Moreनिकले। पूछते-पूछते किसी तरह आजाद के कैदखाने तक पहुँच ही तो गए। आजाद ने उन्हें देखते ही गोद में उठा लिया। इन दोनों शाहजादों में एक का नाम मिस्टर क्लार्क था और दूसरे का हेनरी! दोनों की उठती जवानी थी। निहायत खूबसूरत। शाहजादी दिन के दिन उन्हीं के पास बैठी रहती, उनकी बातें सुनने से उसका जी न भरता था। ...Read Moreआजाद तो मारे जलन के अपने महल से निकलते ही न थे। मगर खोजी टोह लेने के लिए दिन में कई बार यहाँ आ बैठते थे। उन दोनों को भी खोजी की बातों में बड़ा मजा आता। उधर आजाद जब फौज से गायब हुए तो चारों तरफ उनकी तलाश होने लगी। दो सिपाही घूमते-घामते शाहजादी के महल की तरफ आ निकले। इत्तिफाक से खोजी भी अफीम की तलाश में घूम रहे थे। उन दोनों सिपाहियों ने ...Read Moreको आजाद के साथ पहले देखा था। खोजी को देखते ही पकड़ लिया और आजाद का पता पूछने लगे। एक दिन दो घड़ी दिन रहे चारों परियाँ बनाव-चुनाव हँस-खेल रही थीं। सिपहआरा का दुपट्टा हवा के झोंकों से उड़ा जाता था। जहाँनारा मोतिये के इत्र में बसी थीं। गेतीआरा का स्याह रेशमी दुपट्टा खूब खिल रहा था। हुस्नआरा - ...Read Moreयह गरमी के दिन और काला रेशमी दुपट्टा! अब कहने से तो बुरा मानिएगा, जहाँनारा बहन निखरें तो
आज दूल्हा भाई आने वाले हैं यह आपने रेशमी दुपट्टा क्या समझ के फड़काया! सुरैया बेगम चोरी के बाद बहुत गमगीन रहने लगीं। एक दिन अब्बासी से बोलीं - अब्बासी, दिल को जरा तकसीन नहीं होती अब हम समझ गए कि जो बात हमारे दिल में है वह हासिल न होगी। साकिया ले तेरी महफिल से चले भर पाया। सारी खुदाई में हमारा कोई नहीं। अब्बासी ने कहा - बीबी, आज तक मेरी समझ में न आया कि वह, जिसके लिए आप रोया करती हैं, कौन हैं? और यह जो आजाद आए थे, यह कौन हैं। एक दिन बाँकी औरत के भेष में आए, एक दिन गोसाई बनके आए। शाहजादा हुमायूँ फर भी शादी की तैयारियाँ करने लगे। सौदागरों की कोठियों में जा-जा कर सामान खरीदना शुरू किया। एक दिन एक नवाब साहब से मुलाकात हो गई। बोले - क्यों हजरत, यह तैयारियाँ! शाहजादा - आपके मारे कोई सौदा ...Read Moreखरीदे? नवाब - जनाब, चितवनों से ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाय। शाहजादा - आपको यकीन ही न आए तो क्या इलाज? इधर बड़ी बेगम के यहाँ शादी की तैयारियाँ हो रही थीं, डोमिनियों का गाना हो रहा था। उधर शाहजादा हुमायूँ फर एक दिन दरिया की सैर करने गए। घटा छाई हुई थी। हवा जोरों के साथ चल रही थी। ...Read Moreहोते-होते आँधी आ गई और किश्ती दरिया में चक्कर खा कर डूब गई। मल्लाह ने किश्ती के बचाने की बहुत कोशिश की, मगर मौत से किसी का क्या बस चलता है। घर पर यह खबर आई तो कुहराम मच गया। अभी कल की बात है कि दरवाज पर भाँड़ मुबारकबाद गा रहे थे, आज बैन हो रहा है, कल हुमायूँ फर जामे में फूले नहीं समाते थे कि दूल्हा बनेंगे, आज दरिया में गोते खाते हैं। किसी तरफ से आवाज आती है - हाय मेरे बच्चे! कोई कहता है - हैं, मेरे लाला को क्या हुआ! रोने वाला घर भर और समझाने वाला कोई नहीं। एक पुरानी, मगर उजाड़ बस्ती में कुछ दिनों से दो औ
रतों ने रहना शुरू किया है। एक का नाम फिरोजा है, दूसरी का फारखुंदा। इस गाँव में कोई डेढ़ हजार घर आबाद होंगे, मगर उन सब में दो ठाकुरों ...Read Moreमकान आलीशान थे। फिरोजा का मकान छोटा था, मगर बहुत खुशनुमा। वह जवान औरत थी, कपड़ेलत्ते भी साफ-सुथरे पहनती थी, लेकिन उसकी बातचीत से उदासी पाई जाती थी। फरखुंदा इतनी हसीन तो न थी, मगर खुशमिजाज थी। गाँववालों को हैरत थी कि यह दोनों औरतें इस गाँव में कैसे आ गईं और कोई मर्द भी साथ नहीं! उनके बारे में लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। गाँव की सिर्फ दो औरतें उनके पास जाती थीं, एक तंबोलिन, दूसरी बेलदारिन। यार लोग टोह में थे कि यहाँ का कुछ भेद खुले, मगर कुछ पता न चलता था। तंबोलिन और बेलदारिन से पूछते थे तो वह भी आँय-बाँय-साँय उड़ा देती थीं। फीरोजा बेगम और फरखुंदा रात के वक्त सो रही थीं कि धमाके की आवाज हुई फरखुंदा की आँख खुल गई। यह धमाका कैसा? मुँह पर से चादर उठाई, मगर अँधेरा देख कर उठने की हिम्मत न पड़ी। इतने में ...Read Moreकी आहट मिली, रोएँ खड़े हो गए। सोची, अगर बोली तो यह सब हलाल कर डालेंगे। दबकी पड़ी रही। चोर ने उसे गोद में उठाया और बाहर ले जा कर बोला - सुनो अब्बासी, हमको तुम खूब पहचानती हो? अगर न पहचान सकी हो, तो अब पहचान लो। खाँ साहब पर मुकदमा तो दायर ही हो गया था उस पर दारोगा जी दुश्मन थे। दो साल की सजा हो गई। तब दारोगा जी ने एक औरत को सुरैया बेगम के मकान पर भेजा। औरत ने आ ...Read Moreसलाम किया और बैठ गई। सुरैया - कौन हो? कुछ काम है यहाँ? औरत - ऐ हुजूर, भला बगैर काम के कोई भी किसी के यहाँ जाता है? हुजूर से कुछ कहना है, आपके हुस्न का दूर-दूर तक शोहरा है। इसका क्या सबब है कि हुजूर इस उम्र में, इस हालत में जिंदगी बसर करती हैं? आध कोस चलने के बाद इन चोरों ने सुरैया बेगम को दो और चोरों के हवाले किया। इनमें एक का नाम बुधसिंह था, दूसरे का हुलास। यह दोनों डाकू दूर-दूर तक मशहूर थे, अच्छे-अच्छे डकैत उनके नाम सुन कर ...Read Moreकान पकड़ते थे। किसी आदमी की जान लेना उनके लिए दिल्लगी थी। सुरैया बेगम काँप रही थी कि देखें आबरू बचती है या नहीं। हुलास बोला, कहो बुद्धसिंह, अब क्या करना चाहिए? सुरैया बेगम ने अब थानेदार के साथ रहना मुनासिब न समझा। रात को जब थानेदार खा पी कर लेटा तो सुरैया बेगम वहाँ से भागी। अभी सोच ही रही थी कि एक चौकीदार मिला। सुरैया बेगम को देख कर ...Read More- आप कहाँ? मैंने आपको पहचान लिया है। आप ही तो थानेदार साहब के साथ उस मकान में ठहरी थीं। मालूम होता है, रूठ कर चली आई हो। मैं खूब जानता हूँ। नेपाल की तराई में रिसायत खैरीगढ़ के पास एक लक व दक जंगल है। वहाँ कई शिकारी शेर का शिकार करने के लिए आए हुए हें। एक हाथी पर दो नौजवान बैठे हुए हैं। एक का सिन बीस-बाईस बरस ...Read Moreहै, दूसरे का मुश्किल से अट्ठारह का। एक का नाम है वजाहत अली, दूसरे का माशूक हुसैन। वजाहत अली दोहरे बदन का मजबूत आदमी है। माशूक हुसैन दुबला-पतला छरहर
ा आदमी है। उसकी शक्ल-सूरत और चाल-ढाल से ऐसा मालूम होता है कि अगर इसे जनाने कपड़े पहना दिए जायँ, तो बिलकुल औरत मालूम हो। पीछे-पीछे छह हाथी और आते थे। जंगल में पहुँच कर लोगों ने हाथी रोक लिए ताकि शेर का हाल दरियाफ्त कर लिया जाय कि कहाँ है। जब रात को सब लो खा-पी कर लेटे, तो नवाब साहब ने दोनों बंगालियों को बुलाया और बोले - खुदा ने आप दोनों साहबों को बहुत बचाया, वरना शेरनी खा जाती। बोस - हम डरता नहीं थ, हम शाला ईश ...Read Moreका बान को मारना चाहता था कि हम ईश देश का आदमी नहीं है। इस माफिक हमारे को डराने सकता और हाथी को बोदजाती से हिलाने माँगें। जब तो हम लोग बड़ा गुस्सा हुआ कि अरे सब लोग का हाथी हिलने नहीं माँगता, तुम क्यों हिलने माँगता है। और हमसे बोला कि बाबू शाब, अब तो मरेगा। हाथी का पाँव फिसलेगी और तुम मर जायँगे। हम बोला - अरे, जो हाथी की पाँव फिसल जायगी तो तुम शाले का शाला कहाँ बच जायगा? तुम भी तो हमारा एक साथ मरेगा। आज तो कलम की बाँछें खिली जाती हैं। नौजवानों के मिजाज की तरह अठखेलियाँ पर है। सुरैया बेगम खूब निखर के बैठी हैं। लौंडियाँ-महरियाँ बनाव-चुनाव किए घेरे खड़ी हैं। घर में जश्न हो रहा है। न जाने सुरैया बेगम ...Read Moreदौलत कहाँ से लाईं। यह ठाट तो पहले भी नहीं था। महरी - ऐ बी सैदानी, आज तो मिजाज ही नहीं मिलते। इस गुलाबी जोड़े पर इतना इतरा गईं? सैदानी - हाँ, कभी बाबराज काहे को पहना था? आज पहले-पहल मिला है। तुम अपने जोड़े का हाल तो कहो। सुरैया बेगम के यहाँ वही धमाचौकड़ी मची थी। परियों का झुरमुट, हसीनों का जमघट, आपस की चुहल और हँसी से मकान गुलजार बना हुआ था। मजे-मजे की बातें हो रही थीं कि महरी ने आ कर कहा - हुजूर, ...Read Moreसे असगर मियाँ की बीवी आई हैं। अभी-अभी बहली से उत
री हैं। जानी बेगम ने पूछा - असगर मियाँ कौन हैं? कोई देहाती भाई हैं? इस पर हशमत बहू ने कहा, बहन वह कोई हों। अब तो हमारे मेहमान हैं। फीरीजा बेगम बोलीं - हाँ-हाँ तमीज से बात करो, मगर वह जो आई है, उनको नाम क्या है? महरी ने आहिस्ता से कहा - फैजन। इस पर दो-तीन बेगमों ने एक दूसरे की तरफ देखा। आजाद पोलेंड की शाहजादी से रुखसत हो कर रातोंरात भागे। रास्ते में रूसियों की कई फौजें मिलीं। आजाद को गिरफ्तार करने की जोरों से कोशिश हो रही थी, मगर आजाद के साथ शाहजादी का जो आदमी था वह उन्हें ...Read Moreकी नजरें बचा कर ऐसे अनजान रास्तों से ले गया कि किसी को खबर तक न हुई। दोनों आदमी रात को चलते थे और दिन को कहीं छिप कर पड़ रहते थे। एक हफ्ते तक भागा-भाग चलने के बाद आजाद पिलौना पहुँच गए। इस मुकाम को रूसी फौजों ने चारों तरफ से घेर लिया था। आजाद के आने की खबर सुनते ही पिलौने वालों ने कई हजार सवार रवाना किए कि आजाद को रूसी फौजों से बचा कर निकाल लाएँ। शाम होते-होते आजाद पिलौनावालों से जा मिले। जिस दिन आजाद कुस्तुनतुनिया पहुँचे, उनकी बड़ी इज्जत हुई। बादशाह ने उनकी दावत की और उन्हें पाशा का खिताब दिया। शाम का आजाद होटल में पहुँचे और घोड़े से उतरे ही थे कि यह आवाज कान में आई, भला ...Read Moreजाता कहाँ है। आजाद ने कहा - अरे भई, जाने दो। आजाद की आवाज सुन कर खोजी बेकरार हो गए। कमरे से बाहर आए और उनके कदमों पर टोपी रख कर कहा - आजाद, खुदा गवाह है, इस वक्त तुम्हें देख कर कलेजा ठंडा हो गया, मुँह-माँगी मुराद पाई। आजाद, मीडा, क्लारिसा और खोजी जहाज पर सवार हैं। आजाद लेडियों का दिल बहलाने के लिए लतीफें और चुटकुले कह रहे हैं। खोजी भी बीच-बीच में अपना जिक्र छेड़ देते हैं। खोजी - एक दिन का जिक्र है, मैं होली ...Read Moreदिन बाजार निकला। लोगों ने मना किया कि आज बहार न निकलिए, वरना रंग पड़ जायगा। मैं उन दिनों बिलकुल गैंडा बना हुआ था। हाथी की दुम पकड़ ली तो हुमस न सका। चें से बोल कर चाहा कि भागे, मगर क्या मजाल! जिसने देखा, दातों उँगली दबाई कि वाह पट्ठे। सुरैया बेगम का मकान परीखाना बना हुआ था। एक कमरे में वजीर डोमिनी नाच रही थी। दूसरे में शहजादी का मुजरा होता था। फीरोजा - क्यों फैजन बहन, तुमको इस उजड़े हुए शहर की डोमिनियों का गाना काहे को अच्छा ...Read Moreहोगा? जानी बेगम - इनके लिए देहात की मीरासिनें बुलवा दो। फैजन - हाँ, फिर देहाती तो हम हैं ही, इसका कहना क्या? इस फिकरे पर वह कहकहा पड़ा कि घर भर गूँज उठा और फैजन बहुत शरमाईं। जानी बेगम ने कहा - बस यही बात तो हमें अच्छी नहीं लगती। एक तो बेचारी इतनी देर के बाद बोलीं, उस पर भी सबने मिल कर उनको बना डाला। शाहजादा हुमायूँ फर की मौत जिसने सुनी, कलेजा हाथों से थाम लिया। लोगों का खयाल था कि सिपहआरा यह सदमा बरदाश्त न कर सकेगी और सिसक-सिसक कर शाहजादे की याद में जान दे देगी। घर में किसी की हिम्मत ...Read Moreपड़ती थी कि सिपहआरा को समझाए या तसकीन दे, अगर किसी ने डर
ते-डरते समझाया भी तो वह और रोने लगती और कहती - क्या अब तुम्हारी यह मर्जी है कि मैं रोऊँ भी न, दिल ही में घुट-घुट कर मरूँ। दो-तीन दिन तक वह कब्र पर जा कर फूल चुनती रही, कभी कब्र को चूमती, कभी खुदा से दुआ माँगती कि ऐ खुदा, शाहजादे बहादुर की सूरत दिखा दे, कभी आप ही आप मुसकिराती, कभी कब्र की चट-चट बलाएँ लेती। एक आँख से हँसती, एक आँख से रोती। चौथे दिन वह अपनी बहनों के साथ वहाँ गई। चमन में टहलते-टहलते उसे आजाद की याद आ गई। हुस्नआरा से बोली - बहन, अगर दूल्हा भाई आ जायँ तो हमारे दिल को तसकीन हो। खुदा ने चाहा तो वह दो-चार दिन में आना ही चाहते हैं। नवाब वजाहत हुसैन सुबह को जब दरबार में आए तो नींद से आँखें झुकी पड़ती थीं। दोस्तों मे जो आता था, नवाब साहब को देख कर पहले मुसकिराता था। नवाब साहब भी मुसकिरा देते थे। इन दोस्तों में रौनकदौला ...Read Moreमुबारक हुसैन बहुत बेतकल्लुफ थे। उन्होंने नवाब साहब से कहा - भाई, आज चौथी के दिन नाच न दिखाओगे? कुछ जरूरी है कि जब कोई तायफा बुलवाया जाय तो बदी ही दिल में हो? अरे साहब, गाना सुनिए, नाच देखिए, हँसिए, बोलिए, शादी को दो दिन भी नहीं हुए और हुजूर मुल्ला बन बैठे। मगर यह मौलवीपन हमारे सामने न चलने पाएगा। और दोस्तों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ तक कि मुबारक हुसैन जा कर कई तायफे बुला लाए, गाना होने लगा। रौनकदौला ने कहा - कोई फारसी गजल कहिए तो खूब रंग जमे। शाहजादा हुमायूँ फर के जी उठने की खबर घर-घर मशहूर हो गई। अखबारों में जिसका जिक्र होने लगा। एक अखबार ने लिखा, जो लोग इस मामले में कुछ शक करते है उन्हें सोचना चाहिए कि खुदा के लिए किसी ...Read Moreको जिला देना कोई मुश्किल बात नहीं। जब उनकी माँ और बहनों को पूरा यकीन है तो फिर शक की गुंजाइश नहीं रहती।
आजाद पाशा को इस्कंदरिया में कई दिन रहना पड़ा। हैजे की वजह से जहाजों का आना-जाना बंद था। एक दिन उन्होंने खोजी से कहा - भाई, अब तो यहाँ से रिहाई पाना मुश्किल है। खोजी - खुदा का शुक्र करो ...Read Moreबचके चले आए, इतनी जल्दी क्या है? आजाद - मगर यार, तुमने वहाँ नाम न किया, अफसोस की बात है। खोजी - क्या खूब, हमने नाम नहीं किया तो क्या तुमने नाम किया? आखिर आपने क्या किया, कुछ मालूम तो हो, कौन गढ़ फतह किया, कौन लड़ाई लड़े! यहाँ तो दुश्मनों को खदेड़-खदेड़ के मारा। आप बस मिसों पर आशिक हुए, और तो कुछ नहीं किया। चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की तारीफ की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली - अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे ...Read Moreकि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं। नवाब - तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ। सुरैया - ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती। नवाब - तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है? कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को इनके आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी। कांसल - मुझे ...Read Moreसख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी ? आजाद बंबई से चले तो सबसे पहले जीनत और अख्तर से मुलाकात करने की याद आई। उस कस्बे में पहुँचे तो एक जगह मियाँ खोजी की याद आ गई। आप ही आप हँसने लगे। इत्तिफाक से एक गाड़ी पर ...Read Moreसवारियाँ चली जाती थीं। उनमें से एक ने हँस कर कहा - वाह रे भलेमानस, क्या दिमाग पर गरमी चढ़ गई है क्या आजाद रंगीन मिजाज आदमी तो थे ही। आहिस्ता से बोले - जब ऐसी-ऐसी प्यारी सूरतें नजर आएँ तो आदमी के होश-हवास क्योंकर ठिकाने रहें। इस पर वह नाजनीन तिनक कर बोली - अरे, यह तो देखने को ही दीवाना मालूम होते थे, अपने मतलब के बड़े पक्के निकले। क्यों मियाँ, यह क्या सूरत बनाई है, आधा तीतर और आधा बटेर? खुदा ने तुमको वह चेहरा-मोहरा दिया है कि लाख दो लाख में एक हो। वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब साहब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा ...Read Moreगए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले - भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं। आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस की सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब ...Read Moreकुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब
गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला - वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ ? बहार बेगम - यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा? खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो बहुत झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी - भाइयों! ...Read Moreका खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं। आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही हैं। जानी - दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ ...Read Moreकि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं। प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम भी अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब ...Read Moreक्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन
तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं।
जान-पहचान और संपर्क की घनिष्ठता बढ़ने पर यार-दोस्तों की मंडली जुड़ती गयी । विद्यालय की सीमा छोड़ने पर खत्ता-दड़ी, धुन्ना, अंटा, और लट्टू खेलने की ऐसी बान पड़ी कि दूसरी कोई भी बात अच्छी नही लगती थी । खाना खाते समय मन खत्ता-दड़ी के साथ गुड़कने लग जाता ; पढ़ते समय धुन्ना के डण्डों में सराबोर हो जाता । धुन्ने की जीत में कोई लकड़ियों की जीत थोड़े ही होती थी, गढ़- किलों की जीत होती थी । जीते हुए अंटों के बहाने तो मानो चमकते सितारे ही जेबों में छिपे रहते । लट्टू की गरणाटी के बहाने मेरे अंतस की सारी दुनिया ही घूमने लगती । जाग्रत अवस्था में जीती हुई लकड़ियां व काच की गोलियां तो सुरक्षित रहतीं, लेकिन नीद में जीता हुआ राज्य आंख खुलते ही वापस छिन जाता । सपने में खोये हुए अंटों और धुन्नों का वास्तविक खजाने की लूट से भी ज्यादा दुख होता । दिन, पर्वत से ढले झरने की भांति प्रबल वेग से ढल रहे थे । रात-दिन से आगे छलांगें भर रही थी और दिन-रात से आगे चौकड़ियां भर रहा था। समझ नही पड़ता कि आज अंटा, धुन्ना और लट्टू खेले बिना दिन क्योंकर अस्त होता है और रात किस तरह ढलती है ? उन दिनों तो इस बात के लिए भगवान के कहे का भी विश्वास नहीं करता । मगर आज तो उन बातो को बरस पचास बीत गये । घोड़ों की क्या बिसात, उन बीती बातों को तो रॉकेट भी नही पहुंच सकता । कभी-कभार तो मन में यह संदेह होने लगता है कि पिछली सारी ख्यात अख्यात मेरे ही जीवन में बीती या किसी और के ? वह बालक क्या मैं ही था ? यदि सचमुच मैं ही था तो मेरी उसी काया में वे अनगिन स्वरूप कहां लुप्त हो गये ? वह बाल्य - रूप कहां दुबक गया ? वह चंचल यौवन कहां ओझल हो गया ? उन दिनों तो ऐसा महसूस होता था कि धुन्ना, खत्ता-दड़ी और अंटा खेलने के सिवाय मनुष्य दूसरे काम करता ही क्यों है ? क्यों इधर-उधर ललचाता है और क्यों प्रपंच करता है ? क्यों चाकरी करता है, क्यों व्यापार करता है और क्यो खेती करता है ? किन्तु आज स्वय मुझे ही धुन्ना, खत्ता - दडी, अंटा और लट्टू खेले हुए युग बीत गये ! कभी भी वापस खेलने की इच्छा नही हुई । फकत आज तुम्हें यह पाती लिखते समय अंतस में दुबकी हुई पुरानी बातें कुलबुला उठी है। मेरा - मुझ से ही यह अलंध्य फासला कैसे हो गया ? क्यों हो गया ? तुम्हारे माध्यम से मैं स्वयं अपने-आपसे यह सवाल कर रहा हूं ! बीती हुई सारी जिन्दगी ही एक बड़ा सवाल बन गयी है, जिसका जवाब देना चाहूं तो दे नही सकूगा ? और मुझे यों ही जवाब देने से बेहद खीज है । परीक्षा के डर से भी जवाब देने की इच्छा नही होती थी । स्वयं मनुष्य ही अपने आप में एक भरकम और अंतिम सवाल है। सवाल-दर-सवाल परस्पर गुथे हुए हैं, जिसका कही भी कोई उत्तर नही है। मिथ्या संतोष को बहलाने की खातिर जवाब मिलता भी है तो थोड़ी देर के लिए, फिर अगले ही क्षण वह जवाब ही स्वय एक सवाल बन कर फुफकारने लगता है ! बात कुछ भटक गयी, फिर से सीधी राह लौटता हू । तो--- गुरुओं के ठोले-घूसों का कुछ ऐसा करिश्मा हुआ इरपिंदर, कि
मैं बरस गुजरने के पहले-पहले कोरी पाटी पर सन्नाट लिखने लग गया, छपी हुई पोथी फर्राट बांचने लगा । ऐसा महसूस होने लगा, जैसे उस पढ़ाई के बहाने मैं प्रकृति का अगम रहस्य खोल रहा हूं । पाटी पर अंकित अक्षर आंखों के सामने नाचने लगते । आंखों की दृष्टि के द्वारा हृदय के भीतर प्रवेश करने वाले अक्षर अनहद घूमर की धमा-चौकड़ी मचाने लगते । दूसरी कक्षा पास करके तीसरी मे आया । अंग्रेजी राज्य की दुहाई गांव-गांव तक फैल चुकी थी। गुरुओं का मन भी अंग्रेजी सिखाने के लिए व्याकुल रहता था। मगर राम-जाने क्यों मेरे मन में अंग्रेजी का ऐसा आतंक पैदा हुआ कि याद करने के पहले ही उसे भूल जाता । अंग्रेजी की ए, बी, सी, डी, तो मेरी सीढ़ी [अर्थी] ही निकालती थी । बेइन्तहा मार खाने पर इस म्लेच्छ भाषा से ऐसा मन फटा कि अब भी अनगिन पुस्तकें बांचने के बावजूद न तो अच्छी तरह अंग्रेजी बोल सकता हू और न लिख सकता हू । सदा-सदैव इस से किनारा करने का आखिर यह परिणाम हुआ ! अब भी किसी हिन्दुस्तानी को फर्राट अंग्रेजी बोलते सुनता हू तो ऐसा प्रतीत होता है कि सर्कस का चतुर बंदर गिटपिट-गिटपिट नकल कर रहा है । या कोई होशियार मिट्ठू रटे-रटाये बोलों की उलटी कर रहा है । उन दिनों अंग्रेजी का फकत यही मायना समझता था कि यह मार खाने की विद्या है । जब अंग्रेजों ने भी अपने अधीन गुलामों पर जुल्म करने में कोई कसर नहीं रखी तो उनकी भाषा क्यों हम पर रहम करेगी ? एक मर्तबा सयोग की बात ऐसी बनी कि अंग्रेजी के गुरु आनंदीलालजी ने मुझ से अंग्रेजी के किसी शब्द की स्पेलिंग पूछी। आधी-अधूरी जानता था, वह भी भूल गया । होंठों पर अंजलि का संकेत करके प्याऊ की तरफ रवाना हो गया। अपने हाथ से ही पानी पीने लगा तो पीछा करते मा 'ट सा'ब आग-बबूला होकर भड़क उठे । वे केवल नाम मात्
र के ही आनदीलालजी थे. विद्यार्थियों को दुख पहुंचाने में उनका कोई जवाब नही था । कान उमेठ कर मुझे बुरी तरह पीटा - लातों में, घूसों से और ठोलों से । पसली में किसी एक घूस की असह्य चोट से मै मूच्छित हो गया। विद्या मीखने के निमित्त मार जरूरी होते हुए भी मुझे वैसी बेजा मार का सपने में भी अनुमान नहीं था । होश आते ही गुस्सा तो ऐसा भभका कि गुरुजी की लुग्धी बना दूं, मगर कुछ भी राह नहीं सूझी। फिर भी थकी हुई निर्बल देह में वैताल प्रवेश करन के बाद मुझ से सब्र नही रखा गया । गुरुजी की दक्षिणा' मटकियो को चुकायी। एक-एक ठोकर के साथ-ही-साथ तमाम मटकियों का सफाया हो गया। यह तो सांप्रत यमराज को चुनौती थी। फिर आनंदीलालजी पीटने के आनंद मे क्यों कसर रखते ? सटाक्-सटाक् बल खाती बेत से ठौरकुठौर सारा शरीर धुन डाला। चौडी नीली रेखाओं से तमाम शरीर में जाली चित्रित हो गयी । सरस्वती देवी का महाप्रसाद इसी रूप में मिलता था । तब से मेरे रोम-रोम में अंग्रेजी के प्रति भयंकर उबकाई पैठ गयी । किन्तु संयोग की ऐसी बेजा कारस्तानी इरपिदर, कि पिछले चालीस बरस से अंग्रेजी बांचने के सिवाय दूसरा विकल्प ही नहीं है । नितनेम की तरह अंग्रेजी की पोथियों का पारायण करना पड़ता है, किन्तु उस दिन के आतंक से ऐसा कुण्ठाग्रस्त हुआ कि आज दिन भी न अंग्रेजी बोल पाता हूं और न लिख पाता हूं । मानो यह कोई चेत- अचेत कुकर्म हो । बांचने की विशेषता के लिए अंग्रेजी भाषा का कोई श्रेय नही । 'विलायत' की बजाय यदि म फ्रांस या जर्मनी के गुलाम होते तो फ्रेंच या जर्मन सीखनी पड़ती । अंग्रेजों के पहले फारसी का ऐसा ही बोलबाला था। गुलाम स्वप्न में भी आजादी का स्वाद नहीं चख सकता । इस परम पूजनीय देश की पावन धरती को परदेशियो के चरण स्पर्श का उछाह बेशुमार है । आजादी के ये चालीस बरस ही आज पवित्र गंगा-जमुना के लिए असह्य हो गये हैं । गुलामी की मधुर स्मृति जन-मन में छटपटाने लगी है । नौकरी करने वाले अह्लकार का एक पांव घर में तो दूसरा गली में । सुमेरजी वाभा की बदली बाड़मेर हुई तो मुझे भी पढ़ने के लिए बाड़मेर जाना पड़ा । आखिर छंटते-छंटते हम तीन जने ही बाकी बचे । जैतारण मे मिडल स्कूल नही था । इसलिए कुबेरजी वाभा को पाचवी कक्षा के बाद बिलाड़ा जाने की खातिर मजबूर होना पड़ा । मैंने और खूमदानजी ने जैतारण की जमपुरी से टी. सी. कटायी । वे मुझ से एक क्लास टी.सी. आगे थे । जोधपुर के 'बड़े-ऐसण' पहली बार रेल के इंजन का आर्त्तनाद सुना । सही पता नहीं लगा कि वह आर्त्तनाद अंग्रेजी में था, हिन्दी में या मारवाड़ी में ? गोरों की हिकमत से बनाये इंजन शायद अंग्रेजी में ही आतंनाद करते होंगे । श्वास-प्रश्वास के साथ काले स्याह धुएं के वगूले-ही-बगूले ! भक्ख-भक्ख की कर्कश आवाज के साथ वह लोहे की पटरियों पर फिसल रहा था । दैत्य - खईस के समान वीभत्स आकृति ! बेहद खौफनाक, मानो पिछले जन्म में अंग्रेजी का अध्यापक हो । लंबी-ही-लंबी रेल के अनगिनत डिब्बों से आखिर वह इंजन जुड़ा । प्रचड वैताल की
तरह एक नथुने से काला धुआं और दूसरे नथुने से उबलती भाप ! एक नथुना सर पर और दूसरा पांव तले । मेरी आंखें चकन-बकन ! माथा आक-वाक ! गोरो की कारीगरी का कोई तूमार है भला ! सारी दुनिया पर राज्य करें तो भी कम है ! गांव की तमाम बस्ती समाये जितनी बडी गाड़ी । डिब्बे - ही - डिब्बे । न बैल जुते हुए और न घोड़े ! किस तरह चलेगी? यह गाड़ी तो दस हाथियों से भी नहीं खिच पायेगी ! गार्ड-बाबू की दूसरी या तीसरी सीटी के साथ ही इंजन ने जोर से आर्त्तनाद किया और चीखता - चिल्लाता आगे रपटने लगा । हड्डी-हड्डी मचक गयी होगी । परस्पर एक-दूसरे से गुथे हुए डिब्बे अपनी जगह छोड़ने के साथ ही चीत्कार करते हुए गुड़कने लगे । रेल तो सचमुच रवाना हो गयी लगती है ! अब किसी के रोकने पर रुकेगी थोड़े ही ! धीरे-धीरे बवडर की नाई वेग बढने लगा - खड़द-खड़द का डका बजाता हुआ । मानो कोई तूफान पटरियों पर धन्नाट भागने लगा हो । रेल को पकड़ने के लिए एक-एक झाड़-झंखाड़ उसका पीछा करने लगा, पर रेल तो रेल ही थी, किसी की पकड़ में नहीं आयी। स्टेशन आने पर अपने आप रुकती तो रुकती, नही तो अप्रतिहत गति से हाहाकार मचाती हुई दौड़ रही थी। ईश्वर न करे, शैतान भी मेहर-माया रखे - यदि पटरियों से फिसल पड़ी तो धरती के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे । यही बातें मुझे सोचनी चाहिए थी तो मैंने शायद यही बातें सोची होंगी । काफी देर बाद अपनी कर्कश ताल के साथ रेल ने न जाने किस तरह की लोरी सुनायी कि अत्यधिक आश्चर्य व आशंका के बावजूद मेरी आंखें स्वतः ही मुदने लगी और मैं नींद की गोद में अचेत हो गया । सुमेरजी वाभा के झिंझोड़ने पर मैंने आखें खोली । कुली दनादन सामान उतार रहे थे । मेरी चेतना के परे ही बरबस वाड़मेर स्टेशन आ गया ! तो क्या हठीली रेल अपनी निरंकुश धत् में ही उड़ती जा
रही थी ! थकावट मिटाने के बहाने वह तेजी से सांस खींच रही थी । दौड़ते-दौड़ते आखिर बेदम होकर हांफना पड़े तो इस में आश्चर्य की क्या बात ? सूरज से भी काफी देर बाद - घड़ी-डेढ़-घड़ी के उपरांत मेरी आंख खुली । अपरिचित स्टेशन । अजनबी मानुस । अजाना हाट-बाजार। अजानी राह । अजाने घर । अजाने गाछ-बिरछ । अजाने कुत्ते और अजाने ही कौए । पर जानी-पहचानी-सी कांव-कांव ! मानो मेरे शुभागमन का सहर्ष स्वागत कर रहे हों । राम-जाने उन कौओं को किस तरह यह सुराग लगा कि अंग्रेजी मे निपट ठोट बालक समय आने पर संयोग के चमत्कार से मातृभाषा के मर्मज्ञ पाठकों का अविस्मरणीय कथानवीस बनेगा ! इस पुस्तक की भूमिका के माध्यम से तुमने मेरी इसी सृजन-यात्रा की खातिर उत्सुकता प्रकट की थी । सचमुच, तुम्हारे उकसाने पर मैंने मुड़ कर पीछे देखा, चिर विस्मृत यात्रा के पदचिह्नों पर नजर गड़ायी । निस्संदेह मुझे कभी इस बात की अ शंका नही थी कि सृजन को बाद देकर मुझे उसकी कोख का हिसाब भी समझाना पड़ेगा। प्रसव के दौरान छटपटाती मां के लिए संतान को जन्म देना तो वाकई कष्टप्रद है, पर उस से भी बड़ी यातना है- प्रजनन की प्रक्रिया को अक्षरों के द्वारा व्यक्त करना । मैं आज वैसी ही गुत्थी में उलझ गया हूं । दूसरे दिन मैं और खूमजी वाभा स्कूल मे भरती होने के लिए हाब- गाब रवाना हुए तो रास्ते में सिपाहियों के साथ हथकड़ी और वेडियों में जकड़े सात-आठेक कैदी मिले । उन दिनों मुझे कैदियों से जबरदस्त डर लगता था । चोर, डाकू और हत्यारे ! देखते ही कंपकंपी छूटने लगती । समूचा शरीर रोमाचित हो उठता । उन कैदियों पर नजर पडते ही जैतारण की एक वीभत्स स्मृति का दंश मेरे हृदय मे गड़ गया-खुले चौक में मोटी लकड़ियों की टिकटी जमीन के भीतर गहरी गड़ी हुई । एक कैदी के हाथ-पांव, पूरमपूर चौड़े उस टिकटी से बंधे हुए । चारों तरफ मनुष्यों की तमाणबीन भीड़ । बेंतों का आदेश होते ही दो मेहतरों ने पानी में भीगी हुई कंटीली छड़ियां संभाली । एक मेहतर ने कैदी की लटकती तहमद उठाकर कमर से बांधी। उसकी बैठक पूरमपूर उघड़ गयी ! मैं गिनती अच्छी तरह जानता था । कंटीली छड़ी के प्रहार उड़ने लगे - एक... दो... तीन.........चार.......! प्रहार-दर-प्रहार वह कैदी इस कदर जोर से चिल्लाया कि मेरा समूचा शरीर थरथर कांपने लगा । कानों में जैसे खौलता तेल रिस रहा हो । फिर भी गिनती करूं इतना होश अवश्य था - पांच छः सात... । मनुष्य का ऐसा दर्दनाक चीत्कार पहली बार ही सुना था, मगर आज भी याद आने पर कंपकंपी छूटने लगती है। मेरे खयाल से उस कैदी का वह चीत्कार अब भी मिटा नहीं है ! तमाशा देखने की उत्सुक भीड़ में से कुछ शूरमा जोर से हंसे । आज सोचता हू कि हंसने वाले वे वीतराग व्यक्ति ज्यादा अपराधी थे या वह कैदी ? पंद्रह... सोलह... सत्रह । गिनती में कतई चूक नहीं थी । मानो मेरे शरीर को धुनते वे कंटीले प्रहार अचानक थम गये हों। कैदी को भी राहत का सांस मिला होगा । गिनती की संख्या तो अब भी काफी शेष है, मगर सजा की सीमा तो सत्र
ह बेंतों के उपरांत ही चुक गयी । हाकिम की मेहरबानी ! कैदी के नितंबों से खून झरने लगा। उस दिन की वह भयंकर छबि बरसों तक मुझे बेचैन करती रही । कैदी का वह हृदयविदारक चीत्कार, कंटीली बेंतों के प्रहार ! नितंबों से रिसता लहू ! हाथ-पांव बंधे हुए ! साथ-ही-साथ मुंह में डूंजा खसोल उसका मुह बांध देते तो बेहतर था । खाना खाते समय मुझे उबकाई तो नहीं आती। इरपिंदर ! आठ-दस बरस से एक सवाल मुझे निरंतर पछाड़ रहा है कि जब नेता, मंत्री, वकील, जज, डॉक्टर, साहूकार, संपादक, पंडे-पुजारी, मौलवी, प्रोफेसर, पुलिस, लेखक, आलोचक और अफसर इत्यादि - ये उजले-बुक अजगर जेलो से बाहर है तो जेलों के भीतर कौन हैं ? ? क्यू हैं ? ? ये श्रीमंत... ये सिरायत जेलों के बाहर गुलछरें उड़ा रहे हैं तो कानून के भरकम पोथों का मायना क्या है ? इन जेलों की सार्थकता क्या है ? यह बेकार इतना खर्च खाता फिर किसलिए ? भेड़ियों के हवाले इन निरीह भेड़ों की कब तक रखवाली होगी ? जब अपराधियों के जिम्मे ही सिंहासन है तो इन्हें कौन दंडित करेगा ? ये तो दंड सुनाने वाले हैं, तब इन्हें कौन सजा सुनाये ? आजकल आठों-पहर ऐसे सवालो के चाबुक मुझ पर बरसते रहते हैं ! क्षत-विक्षत करते है । कही मेरा सर तो नहीं चकरा गया ? इन सवालों का जवाब कौन गुरु जानता है ? केवल जानने मात्र से क्या होगा ? सरे आम दहाड़ने की हिम्मत चाहिए । वह इस देश के बाशिंदों से बिलकुल निःशेष हो गयी है । आजादी का छीका हाथ लगने पर वे पूरमपूर गुलाम हो गये हैं। मनुष्यों का रूप धर ढाणी-ढाणी, गांव-गांव और नगर-नगर गंडक, चीते, नाहर, जरख, बिज्जू, बन - बिलाव, नाग, अजगर, चील, गिद्ध, बाज, सिकरे और कौए मौज कर रहे हैं । प्रति वर्ष इनकी नफरी बढ़ रही है - असंख्य, अपरम्पार ! बढ़ते-बढ़ते सत्तर करोड़ के आसपास इनक
ी आबादी फैल गयी है । जानवरों की उपमा देने पर मनुष्य बुरा मानेगे या जानवर ? तुम्हे क्या लगता है ? तुम्हारा प्रत्युत्तर बांचने से मुझे काफी राहत मिलेगी । हमेशा की तरह देरी से जवाब न देकर, जरा जल्दी देना । आज की बात अलहदा है । उस दिन की बात अलहदा थी । इसी एक नाम से कक्षा में हाजरी देता था और आज भी उसी नाम से मेरी पहचान है । अधिकांश मित्रअधिकांश ही क्यों, लगभग सभी घनिष्ठ मित्र विजयदान देथा के बदले बिज्जी के नाम से संबोधित करते है । इस कोरे-मोरे एकल संबोधन के तहत क्या मैं सदावंत एक ही व्यक्ति रहा ? आठ-दस बरसों से एक - एक क्षण में बदलता रहा हू । कल था सो आज नही । आज हूं सो परसा नहीं रहूंगा, सवेरे ह सो सांझ नही । सांझ हू सो रात नही । रात हू सो प्रभात नही । फिर भी नाम का संबोधन जीवन पर्यन्त एक ही रहेगा । अर्जुन और कृष्ण भगवान के सहस्र नामों का मर्म अब कही अच्छी तरह समझ मे आने लगा है । जैतारण वाले कैदी की दारुण स्मृति में उलझा हुआ मैं स्कूल पहुंचा। मटिया निकर, मटिया कमीज । पीली टोपी ! बेहद दुबला-पतला । मरियल टांगें । डेढ़ अंगुल का ललाट । बदसूरत काठी । खूमजी वाभा काफी कुछ फबते और सुंदर थे । स्कूल के मनमौजी छात्रों ने मेरा हुलिया देखा तो उसी दिन से चिढ़ाने लगे। मन पूरमपूर कसैला हो उठा । पर जोर क्या करता, निपट निजोरी बात थी । भरती होने पर कोई पांच-सातेक दिन जैसे-तैसे कट गये । एक दिन क्लास में अंग्रेजी पढ़ाते समय मा'ट सा'ब ने मुझे पाठ बाचने का आदेश किया। धूजती टांगों पर बड़ी मुश्किल से खड़ा हो सका । अंग्रेजी के नाम पर फकत बुखार ही नही चढ़ा । बोलना शुरू किया तो जीभ मानो चिपक गयी। आधी मूर्च्छा की हालत में दो- एक पंक्तियां बड़ी मुश्किल से पढ़ पाया कि सारी क्लास एक साथ जोर से ठहाका मारकर हंस पड़ी । उच्चारण की चार-पांचेक ऐसी ही गलतिया हो गयी थी। रोकर नीचे बैठ गया। अंग्रेजी के लिए उस दिन बचे-खुचे उत्साह पर भी पाला पड़ गया । फांसी के तख्ते की बनिस्बत मुझे अंग्रेजी का डर ज्यादा लगता था । न किसी दौड़ मे पारंगत था और न किसी खेल में । हिन्दी, गणित और संस्कृत में काफी तर्राट था । मगर अंग्रेजी में एकदम भोट । तिस पर स्कूल में कभी खेल-कूद की प्रतियोगिता होती तो मंगते की नाई जीतने वाले की तरफ ललचाई निगाह से देखता । इधर एक ही घर मे बूमदानजी छोटी या लंबी दौड़ में एक भी इनाम नही छोड़ते । जिस किसी में भाग लेते उस में अव्वल । इनाम-ही- इनाम बुहार कर लाते । अक्सर टोकरी छोटी पड़ जाती । तेल की बोतल, काच, रेशमी रूमाल, बनियान, तौलिये इत्यादि । और मेरे पास कुछ भी नही । वही स्कूल का बस्ता और वही पीली टोपी । खूब ही लज्जित होता । शर्म के मारे केवल जमीन में गड़ना शेष रहता। क्या करता, जमीन फटती ही नहीं थी। अपने आप से घिन होने लगी। सचमुच मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता कि सूरज का प्रकाश फकत खूमदानजी की खातिर ही चमकता है और रात का काला - गहन अंधियारा फकत मेरे लेखे घुटन फैलाता है। करवट बदलते-बदलते काफी रात ढल
ने पर नीद आती। नीद के सपनो में भी सब से ढंगी रहता । दौड़ते-दौड़ते लड़खड़ा कर गिर पड़ता । न जगने पर शांति और न नीद में चैन । नग आकर हिन्दी, संस्कृत व गणित से कुश्ती लडता । कद-काठी में सब से छोटा और दुबला होने के कारण लडकियो के साथ बैठने की इजाजत मिल जाती थी। लड़कियो के सामने हेटी न लगे, मन-ही-मन ऐसी तरकीबें सोचता। किसी सीगे मे नाम करने की खातिर मन खूब छटपटाता । आखिर मर खप कर संस्कृत और हिन्दी में पूर्ण सफलता प्राप्त की । संस्कृत के पंडितजी ने एक बार डिक्टेशन दिया तो एक भी अशुद्धि नही ! मैं संस्कृत में हमेशा अव्वल रहता और हेड मा 'ट सा'ब की बिटिया दोयम । नाम था मृदुलता देवी । मगर हम सभी उसे देवी के नाम से ही पुकारते थे । हिन्दी में कई मर्त्तबा मैं अव्वल रहता और कई मर्तबा नृसिंह राजपुरोहित । मेरा सब से पुराना दोस्त । आज तक राजस्थानी साहित्य में अपनी गणित के जोर से आगे बढ़ता र है । पर मैं अब भी लेखक की बनिस्बत बंधु के रूप में उसका ज्यादा लिहाज रखता हूं । संस्कृत के रूप मुझे इस तरह कंठस्थ थे, मानो पिछले जन्म से ही रट रखे हों। चारों लड़कियां मुझ से संस्कृत सीखती थी । संस्कृत के पंडितजी ब्रह्मचारी के गुमान में क्लास के अतिरिक्त और कहीं भी लड़कियों से बात नहीं करते थे ; इसलिए मेरा भाग्य खुल गया । पर देवी से घनिष्ठ आत्मीयता की बानगी ही निराली थी । उसकी पालर सूरत और गुलाबी होंठों की स्मित मुस्कान देखते ही पीतल के सचित्र ग्लास के धारोष्ण झाग मेरी आंखों के सामने तैरने लगते । उसकी मुस्कान वैसी ही अबोट और पावन थी। फिर भी किसी-न-किसी सीगे चर्चित होने के लिए मन खूब ही कसमसाता, पर कोई भी युक्ति पार नही पड़ी । हिन्दी और संस्कृत के प्रताप से मेरे नाम की फुसफुसाहट स्कूल के पत्थरों में फैलने लगी ।
दिन-ब-दिन परिचय का दायरा बढ़ने लगा । किसी दूसरे माध्यम से पार नहीं पड़ी तो कुबद और कुलंगों की ओर मेरा मन स्वतः ही खिंचने लगा । और कुछ ही दिनों में हिन्दी व संस्कृत की अपेक्षा बदमाशी के सीगे में मेरा नाम भीतर ही भीतर चमकने लगा । कभी-कभार हेड माट सा'ब यों ही अपनी रौ मे प्रार्थना के बाद पूछ बैठते कि स्कूल में सबसे ज्यादा बदमाश कौन है ? यह सवाल सुनते ही मैं तो सर नवा कर चुपचाप खड़ा हो जाता । पर मेरे अतिरिक्त स्कूल के तमाम छोटे-बड़े विद्यार्थी एक साथ उत्साह से मेरा नाम लेते । कभी कोई दूसरा नाम भूल-चूक से भी उनकी जबान पर नहीं आया। पान चबाते हुए हेड-मा'ट सा'ब मुस्करा कर मुझे इशारा करते - 'इधर आ चोट्टे...।' मै पूरी तरह सर झुकाये चुपचाप विनम्रतापूर्वक उनके सामने खड़ा हो जाता। वे दुलार से कान उमेठ कर हलकी-सी दो-चार थप्पड़ लगाते । वे शायद मन-ही-मन सोचते होंगे कि पिछी-सा हुलिया और नाम हाथी से भी भारी । सच इरपिंदर, सब के सामने मार खाने के बावजूद मैं भीतर ही भीतर खुशी से फूल उठता । उन दिनों स्कूल के सारी दुनिया से बड़ा मालूम होता था। बुरा हो चाहे भला, मेरा नाम तो स्कूल में उफन ही रहा था । हेड मा ट सा'ब जब भी पूछते, बदनामी के सीगे में मेरा एकछत्र नाम सब के कंठ से हुंकार मचाता । आराम से गहरी नीद आने लगी। पांखों के बिना ही रात के अंधियारे में अलंध्य उड़ानें भरने लगा । अंधियारे में आंखें बंद कर लेने पर भी मुझे मंद-मंद उजाला दिखायी पड़ता । उन दिनों हमारी कक्षा में एक अजीब ही विषय था - नेचर स्टडी । मूलचंदजी मा'ट सा'ब पढ़ाते थे । ओछा और धुगधुगा शरीर, कसा हुआ गोल मुह, कायरी आंखें, छोटी गर्दन । पढ़ाते समय ज्यादातर उनकी निगाह लड़कियो के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती । अबोध बालक होते हुए भी मैंने उनके कुटिल अंतस की जासूसी कर ली थी । भीतर ही भीतर भाड़ के चने की तरह भडकता । नेचर स्टडी मे वे बिना किसी अपवाद के हमेशा देवी को सबसे ज्यादा नंबर देते थे । एक बार उन्होंने उसे घर पर पढ़ाने का न्यौता दिया ! एकल-छड़ा कुंवारा मास्टर था । पढ़ाने की मंशा का मायना मैं अच्छी तरह समझ गया । मौका मिलते ही देवी को वहां जाने की खातिर मना किया, खूब मना किया; पर वह भोली अबोध कब्बु नहीं मानी सो नही मानी । उलटे मुझे ही लतेड़ सुननी पड़ी कि मैं बेकार ही वहम कर रहा यह फकत मेरे मन का ही मैल है । भला, पढ़ाने वाले पूजनीय गुरु ऐसे लंपट थोड़े ही होते हैं। सच इरपिंदर, वह वैसे ही आदर्श बाप की वैसी ही निर्मल लाडली थी, जिनकी सूरत निहारने से तीन भव का पाप धुलता है। आज भी जी भर कर उनकी स्तुति करूं तो भी कम है। उन दिनों की नैसर्गिक छवि को कलम से आंकने की खातिर मन बिकता है । स्कूल में इकडंकी बदमाश होने के कारण छोटी-मोटी चौकड़ी अपने-आप जुड़ गयी थी । तत्काल यार-दोस्तों को इकट्ठा किया और महाभारत की योजना सोच ली । बार-बार मना करने पर देवी नहीं मानी तो मुझे सतर्क होना पड़ा । ऐयारी का माकूल मोर्चा बनाया । समाचार मिलते ही हम सात-आ
ठेक योद्धा मूलचंदजी मा'ट सा'ब के घर के पिछवाड़े अंग्रेजी बबूलों की ओट मे छिप गये। पहले से ही हाथों में अंग्रेजी । बबूल की कंटीली छड़ियां थाम रखी थी। जिस आशंका की अविकल प्रतीक्षा थी, उसकी अस्पष्ट-सी फुसफुसाहट सुनाई पडी- 'मा'ट सा'ब.. माट सा'ब... मै तो आपकी बेटी... ... के समान हूं । नही.. मा 'ट सा'व... नही ।' जैसे सारा आकाश ही धरती पर उलट पड़ा हो । मेरा रोम-रोम बिजली के सांत्र में ढल गया । फटाफट हत्था लांघ कर भीतर कूदे । डरी-सहमी हिरणी की आहत निगाह से देवी ने मेरी ओर झांका । मानो अचीते देव अवतरित हुए हों । उसकी सिहरन नही मिटी तब तक हम गुरुजी को अंधाधुंध दक्षिणा चुकाते रहे । अंग्रेजी बबूल के कांटे इस कदर सार्थक होंगे, सपने में भी नहीं सोचा था । संज्ञा - विहीन गुरुजी ने जाने-अनजाने कोई प्रतिरोध नही किया । आखिरं हाथ । न जवाब दिया तो हम दरवाजा उघाड़ कर देवी के साथ बाहर निकल आये । उसे तब भी विश्वास नही हुआ कि वह दैत्य की गुफा से बाहर आ गयी और मैं उस के साथ हूं । उस अचीते दुःस्वप्न से वह तब भी पूर्णतया मुक्त नही हुई थी। अनुभवों की दृष्टि से नितात अपरिपक्व उम्र होते हुए भी यह बात बिना सोचे ही मेरी समझ में आ गई कि मेरा कहा टालने के फलस्वरूप उलाहना देने का यह उचित अवसर नही है । फिर कोई अवांछित बकवास न करके हेड मा 'ट सा'ब को यह भेद बताने की राय जाहिर की तो वह तुरंत मान गयी । गढ़-किला जीतने का उत्साह लिये हम सभी देवी के साथ घर की सीढ़ियां चढ़ने लगे- बेंतों के प्रमाण सहित । हेड मा'ट सा'ब ने पान चबाते हुए अत्यधिक धैर्य से हमारी अंट-शट वार्ता सुनी । न कुछ बोल और न कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया दरसायी । पान की पीक के बहाने मानो कोई हलाहल जहर का घूट गले उतारा हो । दहकती आंखो से उन्होंने मेरी पीठ थप
थपायी और शाबाशी दी। आज तुम्हें यह पत्र लिखते समय, वाकई ऐसा महसूस हो रहा है इरपिंदर कि हेड मा 'ट सा'ब का वह अदृष्ट हाथ अभी-अभी मेरी पीठ थपथपा रहा है और वे अदृष्ट अधखुले होंठ मुझे बार-बार शाबाशी दे रहे हैं । देवी ठेठ सीढ़ियों तक नीचे हमें छोड़ने आयी । ऐसा महसूस हुआ कि मैं नीचे उतरने की बजाय ऊपर-ही- ऊपर चढ़ रहा हूं। उस के एक-एक कदम मे मेरा एहसान मानने का पहाड़ी बोझ व्यक्त हो रहा था । चार आंखो में तीन लोक के असंख्य गीतों ने जैसे अनहद गुजार गुनगुनायी हो । उस मांगलिक वेला के दौरान मैं दुनिया का सर्वोपरि सुखी बन्दा था । चुटकियों की रफ्तार से तुरंत रात ढली । हजार-हजार आलोक से प्रमुदित सूरज के बदले जैसे मैं ही उदित हुआ हूं । मेरी दुर्बल मरियल काठी में अनंत आनंद और अप्रतिम प्रकाश जगमगा रहा था । हमेशा की तरह उस दिन भी प्रार्थना का वैसा ही नितनेम हुआ । हेड मांट सा'ब ने खुद अपने हाथों से पेटी बजायी। चारों लड़कियो ने सदैव की भांति आगे-आगे प्रार्थना गायी। उस दिन मेरा स्वर मेरे अनजाने ही अपनेआप तेज व सुरीला हो गया था । मैने चुपके से झांका - हेड मा 'ट सा'ब की आंखों मे अंगारे दहक रहे थे । प्रार्थना संपूर्ण होते ही हेड मा 'ट सा'ब किचित् भी सयम नहीं रख सके । नेचर स्टडी के मूलचंदजी को भद्दे संबोधन से पुकार कर पास आने के लिए हाथ का इशारा किया । तमतमाये मुह से रक्तिम फुहार-सी छूटी । दहाड़ते हुए बोले, 'दोगले कुत्ते, इधर मर.....!' मुझे स्वप्न में भी यह विश्वास नहीं था कि हेड मा 'ट सा व खचाखच भरी सभा म सरेआम अपने मुंह से वह कुकर्म प्रकट कर देंगे । देवी ने एक बार भी मेरी तरफ नही देखा । आखें नीची किये पाव के अंगूठे से चुपचाप धूल कुचर रही थी । आज लाख चेष्टा करने पर भी पुख्ता तौर से सही अंदाज नहीं कर पाता कि वह बायें अंगूठे से धूल से कुचर रही थी या दाहिने अंगूठे से । हेड मा ट सा'ब न निःशंक खुले आम मूलचंद पुराण सुनाया। फिर हाथ के इशारे से मुझे पास बुलाकर मेरी पीठ थपथपायी । पान चबाते -चबाते ही भरी सभा में मेरे प्रति आभार प्रकट करके बोले, 'इस बदमाश खोके ने मेरी बेटी और तुम्हारी देवी की लाज बचायी.. ।' काफी कुछ बोलना चाहते थे, पर उसके बाद कुछ भी बोल नहीं सके। उस दिन शायद पहली बार यत्किचित् आभास हुआ कि मौन की भाषा भी कम ताकतवर नही होती ! बेहद दुबला-पतला होने के कारण सभी विद्यार्थी मुझे 'खोका' कहकर पुकारते थे । पर इरपिंदर, उस समय बीस गामा पहलवान होते तो भी मैं उन्हें टिकने नहीं देता। एक-एक को बारी- सर ऐसा पछाड़ता कि ताजिदगी याद रखते । सचमुच, एक ऐसा ही अपूर्व जोश मेरे रोम-रोम में बिजली की नाई चमक रहा था और आज उम्र की ढलती वेला में भी उस प्राचीन बानगी का स्वाद नही भूला । उन दिनों जोधपुर रियासत मे सभी विभागों के सर्वोच्च अधिकारी अंग्रेज ही होते थे । शिक्षा विभाग का निदेशक ए. पी. कॉक्स नाम का अंग्रेज था । अत्यधिक मिलनसार, बेइन्तहा उदार । हमारे हेड मा 'ट सा'ब की बहुत ही उज्जत करता था। कॉक्स साहब न
े कई मर्त्तवा अपनी चौपामनी स्कूल मे उनकी बदली के आदेश निकाले, मगर बाड़मेर की जनता ने उन्हें एक बार भी विदाई नही दी । सारा बाजार बंद । सारा कामकाज ठप्प । और उदार कॉक्स साहब ने भी जनता की मर्यादा को एक बार भी खंडित नही किया। तार-पर-तार खड़खडाने से उन्हें मन मार कर वापस तार से ही बदली रद्द करनी पड़ती । वह एक-से-एक आला चुनिदा अध्यापक चौपासनी स्कूल मे रखता था, पर हमारे हेड मा'ट सा'ब को वह नही बुला सका, जिसकी उसे बेइन्तहा खुशी थी । आजादी के बाद कुछ वैसे असली 'सा'ब' हम हिन्दुस्तान में रख लेते तो अच्छा रहता । अपने काले साहबों को कुछ तो नसीहत मिलती । वाकई ए. पी. कॉक्स अकृत्रिम उदारता व निष्ठा का आदर्श पुतला था ! मरा तब तक न्यूजीलैण्ड से उसके पत्र चंद मित्रों के नाम बराबर आते रहते । अब तुम्ही बताओ इरपिंदर कि वह सौ टंच विशुद्ध सोना था कि नही ? हेड मा 'ट सा'ब न नेचर स्टडी के अध्यापक मूलचंदजी को अदेर मौकूफ करके कॉक्स सा'ब के नाम दस्ती कागज भेजा तो उन्होंने बिना जांच-पड़ताल किये उनकी बात रख ली। उन की बात से मुकरना तो न्याय व सच्चाई से मुकरना होता । ऐसे थे गर्व-गुमान के योग्य हमारे पूज्य हेड माट सा'ब । देवी के चिरअविस्मरणीय बापू । उस दिन वाली प्रार्थना तो जैसे मेरी ही खातिर हुई हो । मुझे ऐसा अनहद गुमान हुआ कि क्या बताऊ ? मेरा सिप्पा जमने में कोई कमर बाकी नही रही । तत्पश्चात् हेड मा'ट सा'ब ने तो सर्वोपरि बदमाश का नाम जानने की कभी उत्कंठा प्रकट नहीं की, पर मेरे अंतस में कही गहरे दबी लालमा उस सवाल की खातिर भीतर ही भीतर फड़फड़ा रही थी, इस में कोई संदेह नहीं । आज तुम्हारे सामने व्यर्थ के शिष्टाचार का दिखावा करूं तो सत्य की मर्यादा विकृत होगी ! यदि उस दिन हेड मा 'ट सा'ब अपने मुह से मूलचंदजी की बा
त सरे आम उजागर नहीं करते तो आज मुझे लिखते समय दो बार सोचना पडता । किन्तु उस खांटी बन्दे ने बाप होकर जब बेटी के बुरे भले की रंचमात्र भी चिन्ता न करके निर्भय - निशंक सबके सामने सत्य पर पर्दा नही डाला तो आज किसे, कैसी जोखिम है ? जोखिम तो उस दिन थी । पर सत्य की टेक रखने वाले जवामर्द बिरले ही जन्म लेते है । सुना है कि धरती बीज नही चुराती, किन्तु इरपिंदर, आजकल तो कुछ ऐसी आशंका खटकने लगी है कि सफेद पोश प्रतिष्ठित चोरों के पावन चरण का स्पर्श पाकर कही धरती तो चोरी कर्ना नही सीख गयी ? मुझे तो अब यह पुख्ता विश्वास होने लगा है कि अपनी धरती से सत्य का बीज बिल्कुल नदारद हो जायेगा । हा, तो उस दिन बाल-प्रीत की निर्मल आत्मीयता के वशीभूत कल्पना के उड़न खटोल पर राजकुमार की तरह आकाश मे चक्कर काटने लगा। 'खोका' का संबोधन तब भी मेरे दिल में कही काटे-सा खटक रहा था । ऐसा क्या गुल खिलाऊ कि लोग मेरे नाम का यथेष्ट सम्मान करें । मेरा नाम उच्चरित करते समय उनका मुह भर आये । शनिवार की नियमित सभा मे रटे-रटाये सवैये, मनहर छद और कवित्त तो सुनाता ही था । तालियों की गड़गड़ाहट उड़ने लगी थी । आखिर सोचते विचारते, बुझतेघुटते एक अटकल सूझी कि दूसरो की कविता नहीं सुना कर खुद कविता बनाऊं तो ज्यादा धाक जमेगी । बलवती आकाक्षा के उकसाने पर नृसिह राजपुरोहित से सलाह-मशविरा किया । वह तो जैसे इसी सुझाव की प्रतीक्षा कर रहा था । तुरंत मान गया । साधुओ के वेश मे बैर्गिये नाले की ओट में चोरी करने वाले तीन चोरों पर दोनों ने साथ बैठ कर कविता करने की सोची। एक- एक पंक्ति पूरी होने पर मानो इंद्रलोक का राज्य हाथ लगता । स्कूल में समय मिलता तो स्कूल में और बोर्डिंग में समय मिलता तो बोडिंग मे नृसिंह के पास अपूर्व खुशी में उड़ कर जाता । सिकंदर को भी अपनी विजय का डंका सुनते समय ऐसा आनंद तो क्या हुआ होगा, जितना हमें वह पहली कविता सम्पूर्ण करने पर हुआ। स्कूल के कण-कण में हमारे नाम की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ने लगी कि मैने व नृसिंह ने कविता बनायी है, कविता ! हां कविता !! मानो धरती पर कोई नया चांद उगा हो । उन दिनों कविता का कुछ ऐसा ही दबदबा था । कई अध्यापकों ने पूछताछ की तो मैंने अभिमान के साथ विनम्र हामी भरी । फिर तो मैने हेकड़ी हेकड़ी मे संस्कृत के चार-पांच श्लोक भी बनाये । पडितजी ने भरे स्कूल के सामने मेरी हिम्मत बधायी । इतने जोर से मेरी पीठ थपथपायी कि सारे शरीर में सनसनाहट-सी फैल गयी। फिर भी दर्द की जगह आंखों में खुशी के मोती भर आये थे। उस दिन की भविष्यवाणी आज की तरह याद है कि मैं पंडितजी का होनहार विद्यार्थी समय आने पर, सारे देश में अपना नाम रौशन करूंगा । गाडी के नीचे चलने वाले कुत्ते की तरह मेरे मन में भी इसी गलतफहमी का ज्वार हिलोरे भरने लगा कि स्कूल की गाड़ी मेरे बूते पर ही चलती है। उन दिनों स्कूल की चहारदीवारी में ही समूची दुनिया समायी हुई थी । हमेशा कविता करना तो हाथ की बात नही थी, पर हमेशा कुबद करना तो हाथ की बात थी । ना
मवरी का लहू तो होठों लग चुका था । दूसरों की रटी हुई कविताओं की तुलना में मेरी अपनी कविताएं खराब लगती थीं । मगर बदमाशी मे मेरी होड करने वाला कोई नहीं था । नामवरी का उछाह इस राह धीरे-धीरे तुष्ट होने लगा । नादान देवी समझाने की चेष्टा करती; पर निरर्थक । आखिर समझ तो अपनी ही काम देती है, इरपिंदर । शाहजी की सीख फलसे तक । वह कई वार नाराज होती, रूठती, पर बदमाशी की लत मुझ से नही छूटी । कविता की सफलता अभी काफी दूर थी । उस मे नामवरी हासिल करने के लिए बरसों - बरसों तक धैर्य रखने की दरकार थी । बदमाशी के सतोष का चमत्कार तो हाथोहाथ मिलता था । हमारे परिवार मे कुबेरजी वाभा के पास कविता लिखने का अच्छा खासा हुनर था । पढ़ाई और खेलकूद के प्रति उत्साह भी कम नहीं था। बिलाड़ा से सातवी कक्षा पास करके वे आगे पढ़ने के लिए जोबनेर भरती हुए। मुझ से मन पसद कविताएं नहीं लिखी गयी तो मै उनकी कविताएं याद करके सुनाने लगा। सुनने वालो की आंखे ऊंची ललाट में चढ़ जाती । पर मन से छिपी तो कोई चोरी नही होती, इरपिंदर ! मैं स्वयं तो अपना बूता जानता ही था । वैसी कविताएं लिखना मेरे वश की बात नही थी । एक दफा तो शनिवार की सभा में ऐसा ठाट जमा कि क्या बताऊ ! पूरी कविता तो फिलहाल याद नहीं है, पर उसकी अंतिम कड़ी भुलना चाहूं तो भी भूल नही सकता : अड़ी अगरेजी छोड़, धारौ अंग रेजी को काफी लम्बी कविता थी, सात-आठेक मनहर छंदों की । अंग्रेजी फैशन और अंग्रेजी भाषा की बुराई से सराबोर । मेरा मनचीता प्रतिशोध ! ऐसी मालजादी अंग्रेजी छोड़ कर सारे देशवासियो अंग रेजी धारण करो । रेजी कहते हैं हाथों से कती बुनी खादी को । महात्मा गांधी की दुलारी खादी ! फिर क्या कसर बाकी रहती । तालियों पर तालियों की गड़गड़ाहट ! तीसरी बार सुनने के बाद भी श्रोताओं का मन
नहीं भरा । हेड मा ट सा'ब ने अत्यधिक खुशी में छक कर मुझे शाबाशी दी। देवी के आनंद का भी वारापार नहीं था । उस रात दमकते सितारों के बीच उसका मन भी दमका होगा, जरूर दमका होगा। मुझे स्वयं भी कुछ देर के लिए यह भ्रम हुआ कि इस अथाह यश-कीत्ति का दावेदार मैं ही हूं । पर उस रात के सघन अधियारे मे मेरी आंखों के सामने यह स्पष्ट हो गया कि यह तो सरासर चोरी की नामवरी है। क्योंकर कबूल करूं ? किसी एक व्यक्ति को तो सच्चा भेद बताये बिना क्षण भर के लिए चैन नही पड़ेगा । सारी रात नीद नही आयी। पर सवेरे सूरज के छलछलाते उजाले में सब कुछ फिर से अंधियारे के बीच दब गया । समय से घडी डेढ़-घडी पहले स्कूल पहुंचा, पर सिले हुए होंठ तो खुले ही नही । हेड मा ट सा'ब का घर स्कूल से एकदम सटा हुआ ही था । भीतर ही भीतर मन तो खूब ही छटपटाया, मगर जिसे भेद बताना था, उसे नही बता सका । आज पहली बार यह रहस्य उजागर कर रहा हू । मन-ही-मन कुण्ठाग्रस्त होकर मैने उस दिन ज्यादा बदमाशी की। पर साथ ही साथ यह दृढ़ संकल्प किया कि कुबेरजी वाभा जैसी कविताए करके ही दम लूगा । अन्यथा मनुष्य की जिंदगी पाकर धूल ही फांकी । इस तरह जीने को धिक्कार है । इसकी अपेक्षा तो मौत ज्यादा श्रेयस्कर है । पहले ही कहा था कि सरकारी अहलकार का एक पांव दफ्तर में तो दूसरा गली में । सुमेरजी वाभा की बदली जोधपुर हो गयी । सुनते ही ऐसा लगा कि बाड़मेर छूटने के साथ मेरे प्राण भी छूट जायेंगे । इस तरह की अविच्छिन्न आत्मीय मडली से क्योंकर दूर छिटक सकूगा ? वियोग की दाह सुलगते ही यार-दोस्तो की घनिष्ठता का अहसास हुआ। वे कोई मित्र थोड़े ही थे, तारों का जमघट था, जमघट नृसिह, आसूलाल, रामजीवन, राधेश्वर, गिरधारी, हमीरसिंह, मेघसंह इत्यादि... इत्यादि ! आखिरी नाम के आगे इत्यादि इत्यादि की अर्गला जड़ने पर निश्चय ही तुम्हारी मुस्कान थमेगी नही । हरगिज नही थमेगी । पर वह नाम कलम की कालिख द्वारा प्रकट होते ही निर्मल प्रेम की मर्यादा भ्रष्ट हो जायेगी । बादला के पानी में कीच घुल जायेगा । बिजली की पावन दमक पर काजल की तूलिका फिर जायेगी । ऐसा महसूस हुआ कि जैसे फूलों पर मंडराती तितली की पाखे कतर ली गयी हो । तितली मे पांखो के अलावा शेष बचता ही क्या है ? नृसिंह वाली बोडिंग मे भरती होकर वही पढ़ने के लिए सुमेरजी वाभा के सामने डरते-डरते मशा प्रकट की, पर पार नही पड़ी । सयोग तो अपनी लीला अपने हिसाब से रचता है । जितना 'अंजल' था उतना सपना देख लिया। सपने की क्या बिसात ? टूट कर ही रहता है । आंख खुलने के साथ ही सुहाना सपना ध्वस्त हो गया । एक ही क्षण में एक साथ । आशाओं के बादल महल की ढेरी होने मे यह देर लगी, इरपिंदर ! सभी यार-दोस्त गले मिल-मिल कर खूब ही रोये, पर जाने वाले के लिए रुकना हाथ की बात नहीं थी । क्यों तो कलमुंही रेल ने इतनी दूर लाकर जोर से पछाड़ा और अब क्यों क्षत-विक्षत पिड को सहेज कर वापस ले जा रही है ? प्रीत के घरौदे रौंद कर इसे क्या हाथ लगेगा ? पर जिसके निःश्वास से ही काला धुआं नि
कले, उस से कुछ आशा रखना ही बेकार है। आज तो अधिकांश मित्रों के नाम सोचने पर भी याद नहीं आते, पर उस दिन वाकई वियोग की दाह का कोई पार नहीं था। वैसे घनिष्ठ अंतरंग मित्र पीछे रह गये और मैं अकेला जीवित मुर्दे की तरह आधे-अधूरे होश में गाड़ी रवाना होने के साथ जुदा हो गया । उस समय नृसिंह ने जाली के धागों से गुंथी एक थैली और एक पेन मुझे सौंपा । अत्यधिक स्नेह के साथ, उछाह के साथ । वह थैली उसके हाथ से गुंथी हुई थी चार आंखों से, एक ही सांचे में ढले मोती झार-झार बरसने लगे। पर लम्बा-ही-लम्बा अजगर फुफकारे भरता सब यात्रियों को अपनी ओजरी में समेट कर आगे रपटता ही गया, रपटता ही गया । कलेजे को मसलता हुआ, रौदता हुआ । इत्यादि-इत्यादि बातों पर वही विराम-चिह्न जड़ गया । वसोले की तीखी-तच्च धार से कच्ची कदली के टुकड़े होने पर उन्हें वापस कैसे जोड़ा जा सकता है ? बदली की अशुभ खबर मिलने के बाद एक व्यक्ति से भेंट करने की हिम्मत नही हुई । वह तो स्वयं अपने आप से अपना ही वियोग था, इरपिंदर ! कोई क्योंकर सहन कर सकता है । जीवन और मृत्यु का वियोग तो समझ में आता है, पर मौत-स-मौत का वियोग तो विधात्री भी नही जानती । चार-पांच दिन तक किस तरह अपने-आप से छिपता रहा, आज चाहूं तो भी विश्वास नहीं होता। वैसी शूरवीरता से तो कायरता लाख गुना श्रेष्ठ है। आज दिन तक वापस उस से मिलन नहीं हुआ। उस दिन का 'खोका' और आज का 'बिज्जी' एक ही व्यक्ति है क्या ? मुझे तो ऐसा नही लगता । और न दो मानने के लिए ही मन राजी होता है ! कैसे स्नेहमयी है संयोग की लीला !! कैसी निर्मम है संयोग की लीला !!! तब का जोधपुर शहर भी बाड़मेर से बहुत बड़ा और विचित्र था । दरबार हाईस्कूल, बाड़मेर के मिडल स्कूल में अत्यधिक ठसके वाला था । हेड मास्टर सिंहल साहब के नाम के
पत्थर तैरते थे । शहर का चुनिंदा स्कूल था । वैसे ही नामजद गुरु और वैसे ही कुशल विद्यार्थी ! कुए के मेंढ़क ने जैसे विशाल सरोवर मे छलांग मारी हो । कई दिन तक तो घबराया-घबराया-सा रहा । मानो अपने ठिकाने पर स्वयं खो गया हूं । किसी तरह का कोई संपट ही नहीं जुड़ पाया । जगल की नीलगाय बस्ती मे आने पर जिस तरह होश भूल जाती है, ठीक मेरी भी वही हालत हुई । पर धीरे-धीरे कविता के बूते पर आश्वस्त होने लगा। खिलाड़ी और दौड़ने वालों की पूछ काफी थी। खूमदानजी ने तो आते ही अपनी धाक जमा ली । वे फुटबाल के निहायत उम्दा खिलाड़ी थे । सौ गज की दौड़ मे दांत भींचकर दौड़ते तो अव्वल नंबर में कोई खामी नहीं रहती। पर मैं तो खेल-कूद में एकदम अनाड़ी था। फिर भी नामवरी की भूख तो किसी तरह शांत होना ही नहीं चाहती थी। कुछ तो कविता ने बाजी रखी और कुछ वाद-विवाद की प्रतियोगिता ने । पर बदमाशी, कुबद व कुलंगों का पलड़ा तब भी भारी था । छठी कक्षा पास करके सातवीं में आया तब तक काफी शोहरत हासिल कर ली थी। आज तो भाषण व साक्षात्कार के नाम से कलेजा धुकधुक करने लगता है, पर उन दिनों मंच पर सामने खड़ा
तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जाँच करनी चाहिए कि अपने पूरे जीवन में तुमने परमेश्वर पर किस तरह से विश्वास किया है, ताकि तुम यह देख सको कि परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम परमेश्वर को वास्तव में समझ, बूझ और जान पाए हो या नहीं, तुम वास्तव में जानते हो या नहीं कि विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के प्रति परमेश्वर कैसा रवैया रखता है, और तुम वास्तव में उस कार्य को समझ पाए हो या नहीं, जो परमेश्वर तुम पर कर रहा है और परमेश्वर तुम्हारे प्रत्येक कार्य को किस तरह परिभाषित करता है। यह परमेश्वर, जो तुम्हारे साथ है, तुम्हारी प्रगति को दिशा दे रहा है, तुम्हारी नियति निर्धारित कर रहा है, और तुम्हारी आवश्यकताओं के लिए आपूर्ति कर रहा है - आखिर तुम इस परमेश्वर को कितना समझते हो? तुम इस परमेश्वर के बारे में वास्तव में कितना जानते हो? क्या तुम जानते हो कि हर दिन वह तुम पर क्या कार्य करता है? क्या तुम उन सिद्धांतों और उद्देश्यों को जानते हो, जिन पर वह अपने हर क्रियाकलाप को आधारित करता है? क्या तुम जानते हो, वह कैसे तुम्हारा मार्गदर्शन करता है? क्या तुम उन साधनों को जानते हो, जिनसे वह तुम्हारे लिए आपूर्ति करता है? क्या तुम जानते हो कि किन तरीकों से वह तुम्हारी अगुआई करता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे क्या प्राप्त करना चाहता है और तुम में क्या हासिल करना चाहता है? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे अलग-अलग तरह के व्यवहार के प्रति उसका क्या रवैया रहता है? क्या तुम जानते हो कि तुम उसके प्रिय व्यक्ति हो या नहीं? क्या तुम उसके आनंद, क्रोध, दुःख और प्रसन्नता के उद्गम और उनके पीछे छिपे विचारों और अभिप्रायों तथा उसके सत्व को जानते हो? अंततः, क्या तुम जानते हो कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह किस प्रकार का परमेश्वर है? क्या ये और इसी प्रकार के अन्य प्रश्न, ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में तुमने पहले कभी नहीं सोचा या समझा? परमेश्वर पर अपने विश्वास का अनुसरण करते हुए, क्या तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविक समझ और उनके अनुभव से उसके बारे में अपनी सभी गलतफहमियाँ दूर की हैं? क्या तुमने परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना से गुज़र कर सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह पाई है? क्या तुम परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के दौरान मनुष्य की विद्रोहशीलता और शैतानी प्रकृति को जान पाए हो और क्या तुमने परमेश्वर की पवित्रता के बारे में थोड़ी-सी भी समझ प्राप्त की है? क्या तुमने परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता से जीवन का कोई नया नज़रिया अपनाया है? क्या तुमने परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों के दौरान मनुष्य के अपराधों के प्रति उसकी असहिष्णुता के साथ-साथ यह महसूस किया है कि वह तुमसे क्या अपेक्षा रखता है और वह तुम्हें कैसे बचा रहा है? यदि तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर को गलत समझना क्या है या इस गलतफहमी को कैसे दूर किया जाए, तो यह कहा जा सकता है कि तुमने परमेश्वर के साथ कभी भी वास्तविक स
मागम में प्रवेश नहीं किया है और परमेश्वर को कभी नहीं समझा है, या कम-से-कम यह कहा जा सकता है कि तुमने उसे कभी समझना नहीं चाहा है। यदि तुम नहीं जानते कि परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना क्या हैं, तो निश्चित रूप से तुम नहीं जानते कि आज्ञाकारिता और परवाह क्या हैं, या कम से कम तुमने कभी वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन और उसकी परवाह नहीं की। यदि तुमने कभी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का अनुभव नहीं किया है, तो तुम निश्चित रूप से नहीं जान पाओगे कि उसकी पवित्रता क्या है, और यह तो बिलकुल भी नहीं समझ पाओगे कि मनुष्यों का विद्रोह क्या होता है। यदि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण कभी उचित नहीं रहा है या जीवन में सही उद्देश्य नहीं रहा है, बल्कि तुम अभी भी अपने भविष्य के मार्ग के प्रति दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में हो, यहाँ तक कि तुम्हें आगे बढ़ने में भी हिचकिचाहट महसूस होती है, तो यह निश्चित है कि तुमने कभी परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन नहीं पाया है; यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हें कभी वास्तव में परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति या पुनःपूर्ति प्राप्त नहीं हुई है। यदि तुम अभी तक परमेश्वर के परीक्षणों से नहीं गुज़रे हो, तो कहने की आवश्यकता नहीं है कि तुम निश्चित रूप से नहीं जान पाओगे कि मनुष्य के अपराधों के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता क्या है, न ही तुम यह समझ पाओगे कि आख़िरकार परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है, और यह तो बिलकुल भी नहीं समझ पाओगे कि अंततः मनुष्य के प्रबंधन और बचाव का उसका कार्य क्या है। चाहे कोई व्यक्ति कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा हो, यदि उसने कभी उसके वचनों में कुछ अनुभव नहीं किया या उनसे कोई बोध हासिल नहीं किया है, तो फिर वह निश्चित रूप से उद्धार के मार्ग पर
नहीं चल रहा है, परमेश्वर पर उसका विश्वास किसी वास्तविक तत्त्व से रहित है, उसका परमेश्वर का ज्ञान भी निश्चित ही शून्य है, और कहने की आवश्यकता नहीं कि परमेश्वर के प्रति श्रद्धा क्या होती है, इसका उसे बिलकुल भी पता नहीं है। परमेश्वर का स्वरूप और अस्तित्व, परमेश्वर का सार, परमेश्वर का स्वभाव - यह सब मानवजाति को उसके वचनों के माध्यम से अवगत कराया जा चुका है। जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है, तो उन्हें अभ्यास में लाने की प्रक्रिया में वह परमेश्वर के कहे वचनों के पीछे छिपे उद्देश्य को समझेगा, परमेश्वर के वचनों के स्रोत और पृष्ठभूमि को समझेगा, और परमेश्वर के वचनों के अभीष्ट प्रभाव को समझेगा और बूझेगा। जीवन और सत्य में प्रवेश करने, परमेश्वर के इरादों को समझने, अपना स्वभाव परिवर्तित करने, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारी होने में सक्षम होने के लिए मनुष्य को ये सब चीज़ें अनुभव करनी, समझनी और प्राप्त करनी चाहिए। जिस समय मनुष्य इन चीज़ों को अनुभव करता, समझता और प्राप्त करता है, उसी समय वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ प्राप्त कर लेता है, और साथ ही उसके विषय में वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त कर लेता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य द्वारा कल्पित या निर्मित किसी चीज़ से नहीं आती, बल्कि उससे आती है, जिसे वह अपने भीतर समझता, अनुभव करता, महसूस करता और पुष्टि करता है। इन बातों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और पुष्टि करने के बाद ही मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान में तत्त्व की प्राप्ति होती है; केवल मनुष्य द्वारा इस समय प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक, असली और सटीक होता है और यह प्रक्रिया - परमेश्वर के वचनों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और उनकी पुष्टि करने के माध्यम से परमेश्वर की वास्तविक समझ और ज्ञान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं, वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य सच में परमेश्वर के उद्देश्यों को समझ-बूझ पाता है, परमेश्वर के स्वरूप और अस्तित्व को जान पाता है, सच में परमेश्वर के सार को समझ और जान पाता है, धीरे-धीरे परमेश्वर के स्वभाव को जान और समझ पाता है, संपूर्ण सृष्टि के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व के बारे में निश्चितता और उसकी सही परिभाषा पर पहुँच पाता है और परमेश्वर की पहचान और स्थिति का ज्ञान और अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी स्थिति की अनिवार्य समझ प्राप्त कर पाता है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने विचार थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, वह परमेश्वर को अपनी कल्पना की उड़ान नहीं मानता, या वह उसके बारे में अपने संदेहों को बेलगाम नहीं दौड़ाता, या उसे गलत नहीं समझता, उसकी निंदा नहीं करता, उसकी आलोचना नहीं करता या उस पर संदेह नहीं करता। इस प्रकार, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद बहुत कम होंगे, वह परमेश्वर के साथ कम संघर्ष करेगा, और ऐसे मौके कम आएँगे, जब वह परमे
श्वर के विरुद्ध विद्रोह करेगा। इसके विपरीत, मनुष्य द्वारा परमेश्वर की परवाह और आज्ञाकारिता बढ़ेगी और परमेश्वर के प्रति उसका आदर अधिक वास्तविक और गहन होगा। ऐसे समागम के मध्य, मनुष्य न केवल सत्य का पोषण और जीवन का बपतिस्मा प्राप्त करेगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान भी प्राप्त करेगा। ऐसे समागम के मध्य न केवल मनुष्य का स्वभाव बदलेगा और वह उद्धार पाएगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी की वास्तविक श्रद्धा और आराधना भी प्राप्त करेगा। इस प्रकार का समागम कर लेने के बाद मनुष्य का परमेश्वर पर विश्वास किसी कोरे कागज़ की तरह या दिखावटी प्रतिज्ञा के समान, या एक अंधानुकरण अथवा मूर्ति-पूजा के रूप में नहीं रहेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन परिपक्वता की ओर बढ़ेगा, और तभी उसका स्वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होगा और परमेश्वर के प्रति उसका विश्वास कदम-दर-कदम अस्पष्ट और अनिश्चित विश्वास से एक सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह में, वास्तविक श्रद्धा में बदलेगा और परमेश्वर के अनुसरण की प्रक्रिया में मनुष्य का रुख भी उत्तरोत्तर निष्क्रियता से सक्रियता, नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ-बूझ और सच्चा ज्ञान प्राप्त करेगा। चूँकि अधिकतर लोगों ने कभी परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं किया है, अतः परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान सिद्धांत, शब्द और वाद पर आकर ठहर जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, भले ही कितने भी सालों से परमेश्वर पर विश्वास करता आ रहा हो, लेकिन परमेश्वर को जानने के संबंध में अभी भी उसी स्थान पर है, जहाँ से उसने शुरुआत की थी, और वह सामंती
अंधविश्वासों और रोमानी रंगों से युक्त भक्ति के पारंपरिक रूपों की बुनियाद पर ही अटका हुआ है। मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान के प्रस्थान-बिंदु पर ही रुके होने का अर्थ व्यावहारिक रूप से उसका न होना है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर की स्थिति और पहचान की पुष्टि के अलावा परमेश्वर पर मनुष्य का विश्वास अभी भी अस्पष्ट अनिश्चतता की स्थिति में ही है। ऐसा होने से, मनुष्य परमेश्वर के प्रति कितनी वास्तविक श्रद्धा रख सकता है? चाहे तुम कितनी भी दृढ़ता से परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास क्यों न करो, वह परमेश्वर संबंधी तुम्हारे ज्ञान की जगह नहीं ले सकता, न ही वह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा की जगह ले सकता है। चाहे तुमने उसके आशीष और अनुग्रह का कितना भी आनंद क्यों न लिया हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान की जगह नहीं ले सकता। चाहे तुम उस पर अपना सर्वस्व अर्पित करने और उसके लिए अपना सब-कुछ व्यय करने के लिए कितने भी तैयार हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद तुम परमेश्वर के कहे हुए वचनों से बहुत परिचित हो गए हो, या शायद तुमने उन्हें रट भी लिया हो और तुम उन्हें तेजी से दोहरा सकते हो; लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करने का कितना भी अभिलाषी हो, यदि उसका परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं हुआ है, या उसने परमेश्वर के वचनों का वास्तविक अनुभव नहीं किया है, तो परमेश्वर संबंधी उसका ज्ञान खाली शून्य या एक अंतहीन दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं होगा; तुम भले ही आते-जाते परमेश्वर से "टकराए" हो या उससे रूबरू हुए हो, तुम्हारा परमेश्वर संबंधी ज्ञान फिर भी शून्य ही है और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्शवादी अवधारणा के अलावा और कुछ नहीं है। कई लोग परमेश्वर के वचनों को दिन-रात पढ़ते रहते हैं, यहाँ तक कि उनके उत्कृष्ट अंशों को सबसे बेशकीमती संपत्ति के तौर पर स्मृति में अंकित कर लेते हैं, इतना ही नहीं, वे जगह-जगह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, और दूसरों को भी परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति करके उनकी सहायता करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर की गवाही देना है, उसके वचनों की गवाही देना है; ऐसा करना परमेश्वर के मार्ग का पालन करना है; वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना है, ऐसा करना उसके वचनों को अपने जीवन में लागू करना है, ऐसा करना उन्हें परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने, बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने योग्य बनाएगा। परंतु परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हुए भी वे कभी परमेश्वर के वचनों पर खुद अमल नहीं करते या परमेश्वर के वचनों में जो प्रकाशित किया गया है, उससे अपनी तुलना करने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग छल से दूसरों की प्रशंसा और विश्वास प्राप्त करने, अपने दम पर प्रबंधन में प्रवेश करने, परमेश्वर की महिमा का गबन और उसकी चोरी क