Book
int64 10
18
| Chapter
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353
| Verse
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211
| Sanskrit
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| Transliteration
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---|---|---|---|---|---|
18 | 4 | 10 | द्रुपदस्य कुले जाता भवद्भिश्चोपजीविता । रत्यर्थं भवतां ह्येषा निर्मिता शूलपाणिना ॥ १० ॥ | null | 1,040,897 |
18 | 4 | 11 | एते पञ्च महाभागा गन्धर्वाः पावकप्रभाः । द्रौपद्यास्तनया राजन्युष्माकममितौजसः ॥ ११ ॥ | null | 1,040,898 |
18 | 4 | 12 | पश्य गन्धर्वराजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम् । एनं च त्वं विजानीहि भ्रातरं पूर्वजं पितुः ॥ १२ ॥ | null | 1,040,899 |
18 | 4 | 13 | अयं ते पूर्वजो भ्राता कौन्तेयः पावकद्युतिः । सूर्यपुत्रोऽग्रजः श्रेष्ठो राधेय इति विश्रुतः । आदित्यसहितो याति पश्यैनं पुरुषर्षभ ॥ १३ ॥ | null | 1,040,900 |
18 | 4 | 14 | साध्यानामथ देवानां वसूनां मरुतामपि । गणेषु पश्य राजेन्द्र वृष्ण्यन्धकमहारथान् । सात्यकिप्रमुखान्वीरान्भोजांश्चैव महारथान् ॥ १४ ॥ | null | 1,040,901 |
18 | 4 | 15 | सोमेन सहितं पश्य सौभद्रमपराजितम् । अभिमन्युं महेष्वासं निशाकरसमद्युतिम् ॥ १५ ॥ | null | 1,040,902 |
18 | 4 | 16 | एष पाण्डुर्महेष्वासः कुन्त्या माद्र्या च संगतः । विमानेन सदाभ्येति पिता तव ममान्तिकम् ॥ १६ ॥ | null | 1,040,903 |
18 | 4 | 17 | वसुभिः सहितं पश्य भीष्मं शांतनवं नृपम् । द्रोणं बृहस्पतेः पार्श्वे गुरुमेनं निशामय ॥ १७ ॥ | null | 1,040,904 |
18 | 4 | 18 | एते चान्ये महीपाला योधास्तव च पाण्डव । गन्धर्वैः सहिता यान्ति यक्षैः पुण्यजनैस्तथा ॥ १८ ॥ | null | 1,040,905 |
18 | 4 | 19 | गुह्यकानां गतिं चापि केचित्प्राप्ता नृसत्तमाः । त्यक्त्वा देहं जितस्वर्गाः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मभिः ॥ १९ ॥ | null | 1,040,906 |
18 | 5 | 1 | जनमेजय उवाच । भीष्मद्रोणौ महात्मानौ धृतराष्ट्रश्च पार्थिवः । विराटद्रुपदौ चोभौ शङ्खश्चैवोत्तरस्तथा ॥ १ ॥ | null | 1,040,908 |
18 | 5 | 2 | धृष्टकेतुर्जयत्सेनो राजा चैव स सत्यजित् । दुर्योधनसुताश्चैव शकुनिश्चैव सौबलः ॥ २ ॥ | null | 1,040,909 |
18 | 5 | 3 | कर्णपुत्राश्च विक्रान्ता राजा चैव जयद्रथः । घटोत्कचादयश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः ॥ ३ ॥ | null | 1,040,910 |
18 | 5 | 4 | ये चान्ये कीर्तितास्तत्र राजानो दीप्तमूर्तयः । स्वर्गे कालं कियन्तं ते तस्थुस्तदपि शंस मे ॥ ४ ॥ | null | 1,040,911 |
18 | 5 | 5 | आहोस्विच्छाश्वतं स्थानं तेषां तत्र द्विजोत्तम । अन्ते वा कर्मणः कां ते गतिं प्राप्ता नरर्षभाः । एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रोच्यमानं त्वया द्विज ॥ ५ ॥ | null | 1,040,912 |
18 | 5 | 6 | सूत उवाच । इत्युक्तः स तु विप्रर्षिरनुज्ञातो महात्मना । व्यासेन तस्य नृपतेराख्यातुमुपचक्रमे ॥ ६ ॥ | null | 1,040,913 |
18 | 5 | 7 | वैशंपायन उवाच । गन्तव्यं कर्मणामन्ते सर्वेण मनुजाधिप । शृणु गुह्यमिदं राजन्देवानां भरतर्षभ । यदुवाच महातेजा दिव्यचक्षुः प्रतापवान् ॥ ७ ॥ | null | 1,040,914 |
18 | 5 | 8 | मुनिः पुराणः कौरव्य पाराशर्यो महाव्रतः । अगाधबुद्धिः सर्वज्ञो गतिज्ञः सर्वकर्मणाम् ॥ ८ ॥ | null | 1,040,915 |
18 | 5 | 9 | वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः । अष्टावेव हि दृश्यन्ते वसवो भरतर्षभ ॥ ९ ॥ | null | 1,040,916 |
18 | 5 | 10 | बृहस्पतिं विवेशाथ द्रोणो ह्यङ्गिरसां वरम् । कृतवर्मा तु हार्दिक्यः प्रविवेश मरुद्गणम् ॥ १० ॥ | null | 1,040,917 |
18 | 5 | 11 | सनत्कुमारं प्रद्युम्नः प्रविवेश यथागतम् । धृतराष्ट्रो धनेशस्य लोकान्प्राप दुरासदान् ॥ ११ ॥ | null | 1,040,918 |
18 | 5 | 12 | धृतराष्ट्रेण सहिता गान्धारी च यशस्विनी । पत्नीभ्यां सहितः पाण्डुर्महेन्द्रसदनं ययौ ॥ १२ ॥ | null | 1,040,919 |
18 | 5 | 13 | विराटद्रुपदौ चोभौ धृष्टकेतुश्च पार्थिवः । निशठाक्रूरसाम्बाश्च भानुः कम्पो विडूरथः ॥ १३ ॥ | null | 1,040,920 |
18 | 5 | 14 | भूरिश्रवाः शलश्चैव भूरिश्च पृथिवीपतिः । उग्रसेनस्तथा कंसो वसुदेवश्च वीर्यवान् ॥ १४ ॥ | null | 1,040,921 |
18 | 5 | 15 | उत्तरश्च सह भ्रात्रा शङ्खेन नरपुंगवः । विश्वेषां देवतानां ते विविशुर्नरसत्तमाः ॥ १५ ॥ | null | 1,040,922 |
18 | 5 | 16 | वर्चा नाम महातेजाः सोमपुत्रः प्रतापवान् । सोऽभिमन्युर्नृसिंहस्य फल्गुनस्य सुतोऽभवत् ॥ १६ ॥ | null | 1,040,923 |
18 | 5 | 17 | स युद्ध्वा क्षत्रधर्मेण यथा नान्यः पुमान्क्वचित् । विवेश सोमं धर्मात्मा कर्मणोऽन्ते महारथः ॥ १७ ॥ | null | 1,040,924 |
18 | 5 | 18 | आविवेश रविं कर्णः पितरं पुरुषर्षभ । द्वापरं शकुनिः प्राप धृष्टद्युम्नस्तु पावकम् ॥ १८ ॥ | null | 1,040,925 |
18 | 5 | 19 | धृतराष्ट्रात्मजाः सर्वे यातुधाना बलोत्कटाः । ऋद्धिमन्तो महात्मानः शस्त्रपूता दिवं गताः । धर्ममेवाविशत्क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः ॥ १९ ॥ | null | 1,040,926 |
18 | 5 | 20 | अनन्तो भगवान्देवः प्रविवेश रसातलम् । पितामहनियोगाद्धि यो योगाद्गामधारयत् ॥ २० ॥ | null | 1,040,927 |
18 | 5 | 21 | षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः । न्यमज्जन्त सरस्वत्यां कालेन जनमेजय । ताश्चाप्यप्सरसो भूत्वा वासुदेवमुपागमन् ॥ २१ ॥ | null | 1,040,928 |
18 | 5 | 22 | हतास्तस्मिन्महायुद्धे ये वीरास्तु महारथाः । घटोत्कचादयः सर्वे देवान्यक्षांश्च भेजिरे ॥ २२ ॥ | null | 1,040,929 |
18 | 5 | 23 | दुर्योधनसहायाश्च राक्षसाः परिकीर्तिताः । प्राप्तास्ते क्रमशो राजन्सर्वलोकाननुत्तमान् ॥ २३ ॥ | null | 1,040,930 |
18 | 5 | 24 | भवनं च महेन्द्रस्य कुबेरस्य च धीमतः । वरुणस्य तथा लोकान्विविशुः पुरुषर्षभाः ॥ २४ ॥ | null | 1,040,931 |
18 | 5 | 25 | एतत्ते सर्वमाख्यातं विस्तरेण महाद्युते । कुरूणां चरितं कृत्स्नं पाण्डवानां च भारत ॥ २५ ॥ | null | 1,040,932 |
18 | 5 | 26 | सूत उवाच । एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठात्स राजा जनमेजयः । विस्मितोऽभवदत्यर्थं यज्ञकर्मान्तरेष्वथ ॥ २६ ॥ | null | 1,040,933 |
18 | 5 | 27 | ततः समापयामासुः कर्म तत्तस्य याजकाः । आस्तीकश्चाभवत्प्रीतः परिमोक्ष्य भुजंगमान् ॥ २७ ॥ | null | 1,040,934 |
18 | 5 | 28 | ततो द्विजातीन्सर्वांस्तान्दक्षिणाभिरतोषयत् । पूजिताश्चापि ते राज्ञा ततो जग्मुर्यथागतम् ॥ २८ ॥ | null | 1,040,935 |
18 | 5 | 29 | विसर्जयित्वा विप्रांस्तान्राजापि जनमेजयः । ततस्तक्षशिलायाः स पुनरायाद्गजाह्वयम् ॥ २९ ॥ | null | 1,040,936 |
18 | 5 | 30 | एतत्ते सर्वमाख्यातं वैशंपायनकीर्तितम् । व्यासाज्ञया समाख्यातं सर्पसत्रे नृपस्य ह ॥ ३० ॥ | null | 1,040,937 |
18 | 5 | 31 | पुण्योऽयमितिहासाख्यः पवित्रं चेदमुत्तमम् । कृष्णेन मुनिना विप्र नियतं सत्यवादिना ॥ ३१ ॥ | null | 1,040,938 |
18 | 5 | 32 | सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता । अतीन्द्रियेण शुचिना तपसा भावितात्मना ॥ ३२ ॥ | null | 1,040,939 |
18 | 5 | 33 | ऐश्वर्ये वर्तता चैव सांख्ययोगविदा तथा । नैकतन्त्रविबुद्धेन दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा ॥ ३३ ॥ | null | 1,040,940 |
18 | 5 | 34 | कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम् । अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम् ॥ ३४ ॥ | null | 1,040,941 |
18 | 5 | 35 | य इदं श्रावयेद्विद्वान्सदा पर्वणि पर्वणि । धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयाय गच्छति ॥ ३५ ॥ | null | 1,040,942 |
18 | 5 | 36 | यश्चेदं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः । अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते ॥ ३६ ॥ | null | 1,040,943 |
18 | 5 | 37 | अह्ना यदेनः कुरुते इन्द्रियैर्मनसापि वा । महाभारतमाख्याय पश्चात्संध्यां प्रमुच्यते ॥ ३७ ॥ | null | 1,040,944 |
18 | 5 | 38 | धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ॥ ३८ ॥ | null | 1,040,945 |
18 | 5 | 39 | जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो भूतिमिच्छता । राज्ञा राजसुतैश्चापि गर्भिण्या चैव योषिता ॥ ३९ ॥ | null | 1,040,946 |
18 | 5 | 40 | स्वर्गकामो लभेत्स्वर्गं जयकामो लभेज्जयम् । गर्भिणी लभते पुत्रं कन्यां वा बहुभागिनीम् ॥ ४० ॥ | null | 1,040,947 |
18 | 5 | 41 | अनागतं त्रिभिर्वर्षैः कृष्णद्वैपायनः प्रभुः । संदर्भं भारतस्यास्य कृतवान्धर्मकाम्यया ॥ ४१ ॥ | null | 1,040,948 |
18 | 5 | 42 | नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितॄन् । रक्षो यक्षाञ्शुको मर्त्यान्वैशंपायन एव तु ॥ ४२ ॥ | null | 1,040,949 |
18 | 5 | 43 | इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसंमितम् । श्रावयेद्यस्तु वर्णांस्त्रीन्कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः ॥ ४३ ॥ | null | 1,040,950 |
18 | 5 | 44 | स नरः पापनिर्मुक्तः कीर्तिं प्राप्येह शौनक । गच्छेत्परमिकां सिद्धिमत्र मे नास्ति संशयः ॥ ४४ ॥ | null | 1,040,951 |
18 | 5 | 45 | भारताध्ययनात्पुण्यादपि पादमधीयतः । श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः ॥ ४५ ॥ | null | 1,040,952 |
18 | 5 | 46 | महर्षिर्भगवान्व्यासः कृत्वेमां संहितां पुरा । श्लोकैश्चतुर्भिर्भगवान्पुत्रमध्यापयच्छुकम् ॥ ४६ ॥ | null | 1,040,953 |
18 | 5 | 47 | मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥ ४७ ॥ | null | 1,040,954 |
18 | 5 | 48 | हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च । दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ४८ ॥ | null | 1,040,955 |
18 | 5 | 49 | ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे । धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ॥ ४९ ॥ | null | 1,040,956 |
18 | 5 | 50 | न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ ५० ॥ | null | 1,040,957 |
18 | 5 | 51 | इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ५१ ॥ | null | 1,040,958 |
18 | 5 | 52 | यथा समुद्रो भगवान्यथा च हिमवान्गिरिः । ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते ॥ ५२ ॥ | null | 1,040,959 |
18 | 5 | 53 | महाभारतमाख्यानं यः पठेत्सुसमाहितः । स गच्छेत्परमां सिद्धिमिति मे नास्ति संशयः ॥ ५३ ॥ | null | 1,040,960 |
18 | 5 | 54 | द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च । यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥ ५४ ॥ | null | 1,040,961 |
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